दिल्ली की हज़रत निज़ामउद्दीन दरगाह परिसर में मध्याकालीन सूफ़ी शायर अमीर ख़ुसरो की क़ब्र है। दिल्ली सल्तनत (1192-1526) में उनके जितने मुरीद हुआ करते थे उतने आज भी हैं। दक्षिण एशिया में अमीर ख़ुसरो देहलवी (1253-1325) का कलाम न सिर्फ़ दरगाहों पर क़व्वालियों के रुप में सुना जाता है बल्कि आज सोशल मीडिया और संगीत समारोह में भी उतने ही शौक़ से लोग उनकी ग़ज़लों और नज़्मों को सुनते हैं।
ख़ुसरो की ग़ज़लों और नज़्मों के नये अर्थ निकाले जा रहे हैं। उनकी शायरी के रीमिक्स बन रहे हैं। मुम्बईया फ़िल्मों और म्यूज़िक वीडियो में इन्हें देखा-सुना जा रहा है। ख़ुसरो की प्रासंगिकता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके मरने के 700 साल बाद भी उनकी लोकप्रिय नज़्म “छाप तिलक….” राहत फ़तह अली ख़ां और आबिदा परवीन ने गायी है और जो आज भी बेहद मक़बूल है। इसे सोशल मीडिया पर ढ़ाई करोड़ से ज़्यादा लोग सुन चुके हैं।
ख़ुसरो के कलाम की महानता का अंदाज़ा भारत की गंगा जमुनी तहज़ीब से लगाया जा सकता है जो बदक़िस्मती से अब ख़त्म हो रही है। गंगा-जमुनी तहज़ीब (संस्कृति) वो तहज़ीब थी जहां हिंदू-मुस्लिम परंपराओं का समागम होता था और जो ख़ुसरो के समय में शुरु हुई थी। आज के विघटनकारी विश्व में अमीर ख़ुसरो के जीवन और सृजनात्मक काम को किसी प्रकार की छाप देना बहुत मुश्किल है। आप किसी ऐसे व्यक्ति को कोई छाप कैसे दे सकते हैं जो न सिर्फ़ शास्त्रीय फ़ारसी का एक बेहतरीन कवि था बल्कि जिसका हिंदवी के विकास में महत्वपूर्ण योगदान था जो बाद में हिंदी भाषा बनी? ये वो शख़्स था जो अलाउद्दनी ख़िलजी के दरबार का आला कवि था। ख़ुसरो ने अलाउद्दीन ख़िलजी के बेटे मुबारक शाह ख़िलजी पर एक मसनवी( लम्बी कविता) नूह-सिपिहर (नौ आसमान) में लिखा है:
‘यहां (भारत) बहुत बुद्धिमान ब्राह्मण हैं लेकिन इन्होंने अपने ज्ञान का फ़ायदा नहीं उठाया। इसीलिये उन्हें अन्य देशों में कोई नहीं जानता। मैं उनके महत्व को समझता हूं क्योंकि मैंने उनसे कुछ सीखने की कोशिश की है…..हालंकि वे हमारे धर्म को नहीं मानते लेकिन उनके धर्म के बहुत से सिद्धांत हमारे धर्म के सिद्धांतों से मिलते जुलते हैं।’
बहुत कम लोगों को पता होगा कि ख़ुसरो ऐसे समय में हुए थे जब दिल्ली में ग़यासुद्दीन बलबन से लेकर मोहम्मद बिन तुग़लक तक ग्यारह सुल्तान आए और गए। ख़ुसरों इन पांच के दरबारों की शोभा हुआ करते थे।
ख़ुसरो के आरंभिक वर्ष
ख़ुसरों की ग़ज़लों और नज़मों को समझने के लिये उस समय के और दिल्ली दरबार में उनके बीते वर्षों को समझने की ज़रुरत है। सन 1193 में दिल्ली पर मोहम्मद ग़ौरी की फ़तह के बाद दिल्ली सल्तनत में पूरे इस्लामिक विश्व के तुर्क लोग हुआ करते थे। उस समय दिल्ली पर ममलूक यानी ग़ुलाम वंश का शासन (1206-1290) था और ज़्यादातर शासक और सांस्कृतिक लोग पश्चिमी और मध्य एशिया के होते थे।
ख़ुसरो का जन्म एक प्रसिद्ध तुर्क परिवार में सन 1253 में पटियाली में हुआ था जो अब उत्तर प्रदेश का कासगंज ज़िला कहलाता है। उनके पिता सैफ़ुद्दीन महमूद, तकाश (तुर्केमिनिस्तान ) के लाछिन कबीले के सरदार थे। मंगोलों के हमले की वजह से उन्हें भारत आना पड़ा था। सुल्तान इल्तुतमिश (1121-1136 ) के समय वह दिल्ली में पुलिस अफ़सर थे। ख़ुसरो के नाना इमाद-उल-मुल्क भी सुल्तान ग़यासुद्दीन बलबन (1266-1287) के समय दिल्ली सल्तनत में रक्षा मंत्री थे।
ख़ुसरो सात साल के थे तभी उनके पिता का निधन हो गया था और उनकी परवरिश नाना के घर ही हुई। एक संपन्न घर में रहने की वजह से ख़ुसरों की दिल्ली दरबार में, न सिर्फ़ पहुंच आसान हो गई बल्कि उनका ऐसे सूफ़ियों से सम्पर्क हो गया था जिनकी ख़ानक़ाह हुआ करती थीं। ख़ानक़ाह वो जगह होती है जहां सूफ़ी पंथ के अनुयायी जमा होते हैं। उस दक़ियानूसी समय में ये ख़ानक़ाहें उत्तेजक बौद्धिक वार्ताओं का केंद्र हुआ करती थीं। इन में प्रमुख थे सूफ़ी संत हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया (1238-1335)। कहा जाता है कि ख़ुसरो हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के पसंदीदा शागिर्द थे। दोनों बीच यह रिश्ता ताउम्र सलामत रही।
हज़रत निज़ामुद्दीन जहां राजनीति से दूर रहते थे वहीं ख़ुसरो के दिल्ली दरबार में पचास साल बहुत अच्छे बीते। इस दौरान कई सुल्तान आये और गये।
मंगोलों के शिकंजे में ख़ुसरो
ख़ुसरो को कुछ समय मंगोलों के बंदी के रुप में भी बिताना पड़ा था जिसके बारे में लोग ज़्यादा नहीं जानते। सन 1272 में नाना के निधन के बाद ख़ुसरो ने बतौर शायर अपना करिअर बीस साल की उम्र में शुरु किया था। उनका पहले संरक्षक किशलू ख़ान (मलिक छज्जू) थे जो सुल्तान बलबन के भतीजे थे। सन 1280 में सुल्तान बलबन के पुत्र ख़ान मलिक सुल्तान मोहम्मद का ध्यान ख़ुसरो की तरफ़ गया। सुल्तान मोहम्मद मुल्तान के गवर्नर थे। सुल्तान न सिर्फ़ फ़राग़ दिल थे बल्कि शायरी का भी शौक़ रखते थे। उन्होंन अपने आसपास कई अच्छे शायर जमा कर लिये थे। ख़ुसरो मुल्तान में पांच साल रहे और इस दौरान वह दरबार में शायरी के अलावा सल्तनत की फ़ौज में अफ़सरी भी करते थे।
मुल्तान में सब कुछ ठीक चल रहा था कि तभी ख़ुसरों की ज़िंदगी अचानक थम गई। तैमूर ख़ान की सेना ने अचानक मुल्तान पर हमला बोल दिया और युद्ध में शहज़ादा मोहम्मद मारा गया। सुल्तान के मरने के बाद ख़ुसरो को बंदी बना लिया गया। मौलाना शिल्बी जैसे कुछ इस्लामिक इतिहासकारों का मानना है कि ख़ुसरो दो साल तक अफ़ग़ानिस्तान के बल्ख़ की जेल में रहे लेकिन मोहम्मद हबीब जैसे कुछ अन्य इतिहासकारों का दावा है कि ख़ुसरो ने जेल में कुछ ही दिन काटे थे। प्रसिद्ध इतिहासकार इरफ़ान हबीब के पिता प्रोफ़ैसर हबीब ने अपनी किताब “ हज़रत अमीर ख़ुसरो ऑफ़ डेहली” (1926) में खुसरो के हवाले से लिखा है:
“ मुझे भी बंदी बना लिया गया और इस डर से कि वे मेरा ख़ून बहा देंगे, मेरी रगों में ख़ून का एक भी क़तरा नहीं बचा….मुझे क़ैद करने वाला मंगोल धोड़े पर ऐसे बैठा था मानो शेर की सवारी कर रहा हो….थकान की वजह से जब भी मैं कुछ पीछे रह जाता था, वह मुझे भाले से धमकाता था। मुझे लगा कि इस स्थिति से निकल पाना नामुमकिन है लेकिन ख़ुदा का शुक्र है कि तीर से सीना भिदने और शरीर के दो टुकड़े होने के पहले ही मैं आज़ाद हो गया।”
ख़ुसरो को फ़िरोती रक़म अदा करने के बाद रिहा कर दिया गया और वह वापस दिल्ली दरबार में आ गए। यहां उन्होंने अपने पहले संरक्षक शहज़ादे मोहम्मद की प्रशंसा में ऐसी कविता पढ़ी कि कहा जाता है कि इसे सुनकर सुल्तान बलबन खुले दरबार में रोने लगे थे। शहज़ादे मोहम्मद की मौत का ख़ुसरो पर इतना असर पड़ा कि उन्हें ज़िंदगी भर के लिये मंगोलों से नफ़रत हो गई और इस नफ़रत को उनके लेखन में भी देखा जा सकता है।
(मंगोल विरोधी ख़ुसरो का लेखन मुग़ल शासनकाल के शुरुआती दिनों में लोकप्रिय नहीं हुआ था। ( मुग़ल ख़ुद को मंगोल का वंशज मानते थे)
सुल्तान कैक़ुबाद और संगीत में ख़ुसरो का योगदान
ख़ुसरो ने अगले पांच साल दिल्ली में अपने परिवार के साथ बिताये। सन 1287 में सुल्तान बलबन के देहांत के बाद उनका भतीजा सुल्तान क़ैक़ुबाद (1287-1290) राजगद्दी पर बैठे। सुल्तान कैक़ुबाद लंपट और अय्याश क़िस्म के इंसान थे। अपनी नयी राजधानी किलोकारी (मौजूदा समय में महारानी बाग़) में सुल्तान क़ैक़ुबाद ने देश भर से संगीतकारों, नृतकों और कलाकारों को संरक्षण दिया। उसके संरक्षण में ख़ुसरो ने भी संगीत के क्षेत्र में योगदान किया। क़ैक़ुबाद ने ख़ुसरो कों, दो क़द्दावर और पवित्र व्यक्तितिवं यानी अपने और अपने पिता के बारे में क़ुरानिस-सदाएं लिखने को कहा। खुसरो को ये पहला शाही काम मिला था जिसके तहत उन्होंने कई ग़ज़लें लिखीं। बाद में ख़ुसरो ने इस बारे में कुछ स तरह लिखा:“मैंने कई ताज़ा ग़ज़लें लिखीं हैं लेकिन इसमें मैंने उन्हें (क़ुरानिस-सदाएं) में शामिल नहीं किया क्योंकि ग़ज़ल सात या नौं छंदों को मिलाकर बनती है और जो भी सात या नौ छंद गढ़ देगा वो ऊंट की तरह अकड़कर चलेगा और मुझसे बराबरी करने लगेगा।”
ऐसा विश्वास किया जाता है कि ख़ुसरो ने भारतीय वाद्य यंत्र वीणा और ईरानी वाद्य यंत्र तंबूरा को मिलाकर सितार का अविष्कार किया था। ऐसा भी माना जाता है कि उन्होंने मृदंग में कुछ बदलाव करके तबला बनाया था। यही नही उन्होंने क़व्वाली की भी शुरुआत की थी। लेकिन इन सब बातों का कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता।
अमीर ख़ुसरो और ख़िलजी
अक्टूबर सन 1289 में क़ैकुबाद की रहस्मय परिस्थितियों में महल में हत्या हो गई। उसकी मौत के बाद अफ़रातफ़री के बीच जलालउद्दीन ख़िलजी (1290-1296) नये सुल्तान बन गये और उन्होंने दिल्ली में ख़िलजी वंश (1290-1320) की स्थापना की। ख़िलजी तुर्क नहीं थे,वह अफ़ग़ानिस्तान से आए थे। जलालुद्दीन ख़िलजी के सुल्तान बनने के साथ ही तुर्क लोगों के दबदबे का अंत हो गया। बहरहाल, ख़ुसरो को नये निज़ाम में भी पैठ जमाने में कोई दिक़्क़त नहीं हुई। 70 साल के जलालउद्दीन ख़िलजी अमीर ख़ुसरो के पुराने प्रशंसक थे।
सत्ता संभालने के बाद सुल्तान जलालुद्दीन ने ख़ुसरो को दरबार में ऐसा ऊंचा ओहदा दे दिया जिसकी वो कल्पना भी नहीं कर सकते थे। उन्हें शाही क़ुरान की हिफ़ाज़त का ज़िम्मा सौंपा गया और वह सुल्तान के प्रमुख मुसाहिब (दरबारी) बन गए। सुल्तान ने उन्हें सम्मान स्वरुप पोशाक और सफ़ेद कमरबंद भेट किया। ये सम्मान उस समय बड़े बड़े दरबारियों को ही मिलता था। सुल्तान ने इसके अलावा ख़ुसरो की तनख़्वाह सालाना बारह सौ सोने के सिक्के कर दी गई।
सुल्तान जलालुद्दीन शौक़ीन तबियत के इंसान थे और महफ़िलबाज़ भी थे। उसकी महफ़िलों में शराब पी जाती थी और शेर-ओ-शायरी, नाच-गाना भी होता था। साक़ी मेहमानों को शराब पिलाती थीं। ख़ुसरों की शायरी में अक्सर साक़ी का ज़िक्र मिलता है। 13वीं शताब्दी के इतिहासकार ज़ियाउद्दीन बरनी ने अपनी किताब तारीख़-ए-फ़ीरोज़ शाही में लिखा है:अमीर ख़ुसरो इन महफ़िलों में नयी नयी ग़ज़ले लिखकर लाते थे और सुल्तान (जलालउद्दीन) उनकी शायरी से बहुत प्रभावित हो जाते थे और उन्हें मालामाल भी कर देते थे।
सुल्तान जलालउद्दीन हालांकि भले इंसान थे लेकिन उनमें एक ख़ामी थी। वह अपने भतीजे अली गुशाप्स को बहुत चाहते थे। लेकिन वही अली अपने चाचा जलालउद्दीन की हत्या करके राज सिंहासन पर बैठ गया। उसने अपना नाम अलाउद्दीन ख़िलजी रख लिया था। अलाउद्दीन ख़िलजी (1296-1316) को संगीत और शायरी से ज़्यादा युद्ध में दिलचस्पी थी लेकिन फिर भी उसने दरबार में ख़ुसरो को मुख्य शायर के रुप में जगह दी थी।
ज़ियाउद्दीन बरनी की शिकायत है कि अलाउद्दीन ख़िलजी ने ख़ुसरो की प्रतिभा को नहीं पहचाना। वह लिखते हैं,अमीर ख़ुसरो जैसा शायर अगर मध्य एशिया के राजा मोहम्मद या संजर के समय होता तो उसे वे धन-दौलत और ऊंचें पद से सम्मानित करते । उन्हें कोई रियासत देते,सूबेदार बनाते या कोई बड़ा औहदा देते लेकिन अलाउद्दीन ने उनकी ज़्यादा परवाह नहीं की बस उन्हें सोने के एक हज़ार टके सालाना ज़रुर देते रहे।
विडंबना ये है कि अलाउद्दीन ख़िलजी का बीस साल का शासनकाल ख़ुसरो के जीवन का सबसे लाभकारी समय रहा। पांच सालों (1298-1303) में ख़ुसरो ने पांच रुमानी मसनवी- मतला-उल-अनवार, शिरीन ख़ुसरो, मजनूं लैला, आईना-ए-सिकंदरी और हश्त बहिश्त पूरी कर लीं। इस संकलन को पंच-गंज कहा जाता है। शेख़ निज़ामुद्दीन औलिया को समर्पित ये मसनवियां सुल्तान अलाउद्दीन को भेंट की गईं थीं।
कई नज़्मों और ग़ज़लों के अलावा ख़ुसरो ने गद्य भी लिखा था। इनमें एक किताब ख़ज़ाइन-अल फ़ुतुह है जो मैदान-ए-जंग में अलाउद्दीन खिलजी की सफलताओं का एक छोटा सा इतिहास है। ख़ुसरो ने इसमें मंगोल, चितौड़, गुजरात, देवगिरी और दक्षिण के ख़िलाफ खिलजी की सैन्य मुहिम के बारे में विस्तार से लिखा है। दिलचस्प बात ये है कि जब वह चित्तौड़ का ज़िक्र करते हैं तो वहां रानी पद्मिनी का कोई उल्लेख नहीं होता हालंकि 700 साल बाद पद्मिनी को लोकर काफ़ी विवाद हुआ था। दूसरी किताब एजाज़-ए-ख़ुसरवी है जो पांच खंडो में है।स किताब का विषय है… शब्दों की धवनि है।
ख़ुसरो के मलिक काफ़ुर से अच्छे सम्बंध नहीं थे। मलिक काफ़ूर अलाउद्दीन का सिपहसालार था। अलाउद्दीन ख़िलजी उसे बहुत पसंद करता था। ख़ुसरो ने अपनी प्रसिद्ध कविता देवल रानी ख़िज़्र ख़ान में काफ़ुर की बहुत टांग खिंचाई की थी। ये कविता अलाउद्दीन ख़िलजी के शासनकाल के समाप्त होने के बाद लिखी गई थी। ये कविता अलाउद्दीन ख़िलजी के बड़े और ख़ूबसूरत बेटे ख़िज़्र ख़ान और गुजरात की राजकुमारी देवल देवी की त्रासद प्रेम कहानी है। ख़ुसरो की तरह ख़िज़्र भी निज़ामुद्दीन औलिया का अनुयायी था। लेकिन महल की साज़िशों की वजह से पिता अलुद्दीन ख़िलजी ने अपने बेटे की आंखें फोड़वा दीं और उसे जेल में बंद कर दिया। जहां बाद में उसकी हत्या कर दी गई। ख़ुसरो को उससे बहुत हमदर्दी थी और उन्होंने लिखा भी है कि ये प्रेम कहानी ख़ुद ख़िज़्र ने उन्हें सुनाई थी।
अमीर ख़ुसरो- राष्ट्रवादी और उत्तरजीवी
अलाउद्दीन ख़िलजी की मौत के बाद भी तमाम साज़िशों के बावजूद ख़ुसरो की हैसियत पर आंच नही आई। अलाउद्दीन के बाद वह उनके पुत्र और उत्तराधिकारी सुल्तान क़ुतुबउद्दीन मुबारक शाह (1316-132) के दरबार में भी शायर रहे।
सुल्तान क़ुतुबुद्दीन मुबारक शाह को समर्पित अपनी मसनवी नूह-सिपिहर में अमीर ख़ुसरो ने वो दस कारण गिनवाएं हैं जिनकी वजह से भारत पृथ्वी पर सबसे महान देश था।
ख़ुसरो ने भारत की महानता के लिये यहां के मौसम से लेकर फूलों तक का ज़िक्र किया है। उन्होंने गणित के क्षेत्र में भारत के योगदान की भी तारीफ़ की है।। मसनवी नूह-सिपिहर में उन्होंने यह भी लिखा है:
“मैंने दो कारणों से भारत की प्रशंसा की है। पहला ये कि ये मेरी जन्मभूमि है और दूसरा ये कि मेरे देश में देशभक्ति अपने आप में एक धर्म है।”
ग़ुलाम वंश की तरह ख़िलजी वंश का भी ख़ूनख़राबे और संदिग्ध गठबंधनों की वजह से अंत हो गया। इसके बाद ख़िलजी के कुशल सैनिक कमांडर ग़यासुद्दीन तुग़लक़ ने सत्ता पर कब्ज़ा कर तुग़लक़ वंश (1320-1413) की बुनियाद डाली। सुल्तान ग़यासुद्दीन तुग़लक़ रुढ़ीवादी था औऱ वह हज़रत निज़ामुद्दीन की ख़ानगाह में विचारों के आदान प्रदान के सख़्त ख़िलाफ़ था। इस बात को लेकर निज़ामुद्दीन औलिया और तुग़लक़ के बीच तनाव भी हो गया था लेकिन हैरानी की बात ये है कि निज़ामुद्दीन के क़रीबी शागिर्द अमीर ख़ुसरों को तब भी शाही संरक्षण मिलता रहा। ख़ुसरो ने ग़यासुद्दीन तुग़लक़ के शासनकाल और उसके द्वारा बनवाई गई नयी राजधानी तुग़लक़ाबाद के बारे में तुग़लक़नामा में क़सीदे पढ़े हैं।
ख़ुसरो, हज़रत निज़ामुद्दीन के बेहद क़रीब थे और अप्रैल सन 1325 में जब ह़ज़रत निज़ामुद्दीन की मृत्यु हुई तो उनका रो रोकर बुरा हाल हो गया था। ख़ुसरो के संरक्षक सुल्तान ग़यासउद्दीन तुग़लक़ की भी फ़रवरी सन 1325 में रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो गई। कहा जाता है कि उनकी हत्या उनके भतीजे ने करवाई थी। ग़यासउद्दीन तुग़लक़ के बाद मोहम्मद बिन तुग़लक़ (1325-1351) सत्ता पर काबिज़ हो गया जिसे ” पागल बादशाह” कहा जाता था। ख़ुसरो पांच दशकों तक दिल्ली दरबार से जुड़े रहे और अक्टूबर 1325 में 70 साल की उम्र में उनका देहांत हो गया। उनका मज़ार उनके आध्यात्मिक गुरु हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के मज़ार के पास ही है।
अमीर ख़ुसरो की चिरस्थाई विरासत
“ख़ुसरो दरिया प्रेम का, उल्टी वा की धार,
जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार।”
ऐसे समय जब हिंदी और उर्दू भाषा में विशुद्धता बहुत महत्वपूर्ण होती जा रही है, अमीर ख़ुसरो का साहित्य सबसे जुदा है। भारत में उनके साहित्य ने फ़ारसी, उर्दू और हिंदी भाषा के विकास में बहुत योगदान किया है।
शास्त्रीय फ़ारसी साहित्य में ईरानी विद्वानों ने तीन शैलियों को मान्यता दी है और भारतीय शैली (सबक़-ए-हिंद) इनमें से एक है। ख़ुसरो इस शैली के जनक थे जिसकी वजह से विश्व के फ़ारसी विद्वानों ने उन्हें तूती-ए-हिंद का ख़िताब दिया था। ख़ुसरो की प्रसिद्ध फ़ारसी कविता है- मुफ़लिसी अज़ पादशा-ए-ख़ुश्तरस्त( ग़रीबी महानता से कहीं ज़्यादा अच्छी है) जो इस तरह है-
“ जब बादशाह किसी को अपने क़रीब आने की इजाज़त नहीं देते
ग़रीबों के बीच ज़रूरतमंद बने रहना, ज़्यादा सुखदायी है
जब ग़रूर किसी के दिमाग़ में घुस जाये
गली के कुत्ते के साथ दोस्ती करना,ज़्यादा सुखदायी है”
ख़ुसरो की ज़्यादातर रचनाएं हिंदवी (ब्रज बोली) में हैं जो दिल्ली के आसपास बोली जाती थी। ये इलाक़ा अब उत्तर प्रदेश में आता है। सन 1192 में जब मोहम्मद ग़ौरी ने उत्तर भारत में दिल्ली सल्तनत क़ायम की उसके बाद दिल्ली में एक नयी शहरी भाषा पैदा हो गई थी। इसमें स्थानीय ब्रज भाषा औऱ फ़ारसी तथा तुर्की भाषा का मिश्रण था। इसे दहलवी या हिंदवी कहा जाता था। यही भाषा बाद में 19वीं शताब्दी में हिंदी और उर्दू बन गई। दिलचस्प बात ये है कि ख़ुसरो ने दोहे भी लिखे और पहेलियां भी बूझी जो लोगों में बहुत लोकप्रिय हुईं।
उदाहरण के लिये उनकी एक पहेली
बीसों के सर काट लिये
ना मारा, ना ख़ून किया
जवाब-नाख़ून
प्रसिद्ध हिंदी कवि रामधारी सिंह दिनकर ने ख़ुसरो की हिंदी, हिंदी के लिये उनके योगदान और उनके राष्ट्रवादी नज़रिये की प्रशंसा की थी। साहित्यमुखी पत्रिका में प्रकाशित (पटना, 1968) अपने लेख हिंदी साहित्य में निगमधारा में दिनकर लिखते हैं:
“ये याद रखना ज़रुरी है कि इस एकता के प्रवाह (भाषा में) में न सिर्फ़ हिंदू बल्कि मुस्लिम कवियों और संतों ने भी बिना पूर्वाग्रह के योदगान किया है। ख़ुसरो खड़ी बोली और उर्दू दोनों के पिताहमाह माने जाते हैं। सच्चाई ये है कि ख़ुसरो एकता के इस आंदोलन के अग्रज थे। अपनी फ़ारसी मसनवी नूह-सिपिहर में उन्होंने भारत को अपनी जन्मभूमि बताया है और देश की प्रशंसा की है। पैग़ंबर मोहम्मद के हवाले से वह कहते हैं कि किसी देश के प्रति प्रेम, धर्म के प्रति प्रेम के समान ही है।”
ख़ुसरो भले ही मध्यकाल के दिग्गज कवि रहे हों लेकिन उनका साहित्य आज भी प्रासंगिक है। होली का त्यौहार इस गीत के बिना नहीं पूरा नही होता- आज रंग है….। इसी तरह कोई भी सूफ़ी संगीत समारोह छाप तिलक के बिना अधूरा ही माना जाएगा। गुज़रे ज़माने के सुल्तानों से लेकर आज सहस्त्राब्दी तक हज़रत अमीर ख़ुसरो के प्रति प्रेम एक नदी की तरह बहता रहता है।
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