इतिहास अर्जुमंद बानो बेगम को मशहूर मुमताज़ महल के रूप में हमेशा याद रखेगा ।अर्जूमंद बानो बेगम, मुग़ल बेगम नूरजहॉ की भतीजी थीं। अर्जुमंद के पति मुगल बादशाह शाहजहां (शासनकाल 1628-58) ने अर्जुमंद बानों यानी मुमताज़ महल की याद में ही ताज महल बनवाया था। ताजमहल की गिनती दुनिया के सात अजूबों में होती है। लेकिन हम शाहजहां की अन्य बेगमों के बारे में बहुत ही कम जानते हैं।
इज़्ज़-उन-निस्सा, शाहजहां की तीसरी पत्नी थीं। इज़्ज़-उन-निस्सा पटरानी थीं, जिन्होंने दिल्ली में दो शानदार स्मारक बनवाए थे, जिनमें से एक आज भी मौजूद है। इज़्ज़-उन-निस्सा बादशाह अकबर के भरोसेमंद जनरल बैरम ख़ान की परपोती थीं, जबकि उनके दादा अब्दुल रहीम ख़ान-ए-खाना, अकबर के दरबार में प्रसिद्ध नवरत्नों में से एक थे। रहीम कवि भी थे, और जिनके काम को आज भी याद किया जाता है, और पढ़ा जाता है।
इज़्ज़-उन-निस्सा के पिता शाहनवाज़ ख़ान थे, जिन्हें शहज़ादे ख़ुर्रम (बादशाह शाहजहां)ने दक्षिणी द्वीपों का कमांडर-इन-चीफ़ बनाया था। शहज़ादा ख़ुर्रम अपने पिता बादशाह जहांगीर के बाद तख़्त पर बैठना चाहते थे। उत्तराधिकार के संघर्ष में अपनी स्थिति मज़बूत करने के लिए शहज़ादे ख़ुर्रम ने इज़्ज़-उन-निस्सा से शादी करने का फ़ैसला किया, और इस तरह वह उसकी तीसरी पत्नी या बेगम बन गईं।
शादी के बाद, इज़्ज़-उन-निस्सा का नाम अकबराबादी बेगम रखा गया, क्योंकि उनका परिवार अकबराबाद का रहने वाला था। उस समय आगरा का नाम अकबराबाद हुआ करता था। कुछ दस्तावोज़ों के अनुसार शाहजहां ने उन्हें आगरा क़िले के शाही बगीचे में पहली बार तब देखा था, जब वह वहां गुलाब के फूल चुन रहीं थीं। पहली ही नज़र में शाहजहां उनकी ख़ूबसूरती पर फ़िदा हो गए थे। उनकी शादी सन 1617 में हुई। उनका एक बेटा भी हुआ था, लेकिन बदक़िस्मती से दो साल से भी कम उम्र में उसकी मृत्यु हो गई।
अकबराबादी मस्जिद
जैसा कि मुग़ल सल्तनत के संस्थापक बाबर के समय से रिवाज था, लगभग सभी मुग़ल शहज़ादियों और बेगमों को हाथ-ख़र्च के लिए वज़ीफ़े मिलते थे, जिसे वे अपनी मर्ज़ी से ख़र्च कर सकती थीं। इनमें से ज़्यादातर बेगमों और शहज़ादियों ने यह रक़म, आमलोगों के लिए इमारतें या अपने शौहरों के लिए शाही मक़बरे बनवाने पर ख़र्च किए।
इसके अलावा लगभग सभी मुग़ल शहज़ादियों और शाही घरानों की महिलाओं को अच्छी शिक्षा मिला करती थी, ताकि वे अपनी दौलत को सोच समझकर ख़र्च कर सकें। माना जाता है, कि अकबराबादी बेगम भी पढ़ी-लिखी थीं। उन्होंने क़ुरान का अरबी से उस समय उभरती हुई उर्दू भाषा में अनुवाद किया था। इसी की याद में उन्होंने दिल्ली में अकबराबादी मस्जिद बनवाई थी।
सन 1650 में इस मस्जिद को लाल बलुआ-पत्थर और संगमरमर से बनवाया गया था।इसके अगले हिस्से में तीन गुम्बद और सात मेहराबदार दरवाज़े थे। इसका दालान लगभग दिल्ली की जामा मस्जिद के बराबर था। ये मस्जिद शाहजहां की एक दूसरी बेगम फ़तेहपुरी बेगम की बनवाई फ़तेहपुरी मस्जिद का मुक़ाबला करती थी।
सन 1857 की क्रांति के बाद अकबराबादी मस्जिद को अंग्रेज़ों ने ध्वस्त कर दिया था। अंग्रेज़ों ने लाल क़िले के आसपास की सभी इमारतों को तोड़ने की मुहिम चलाई थी। उन्हें शक था कि उन इमारतों में छुप कर भारतीय क्रांतिकारी अंग्रेजों के ख़िलाफ़ साजिश रचने के लिए बैठकें करते थे। बाद में, इस मस्जिद के अवशेषों पर एक पार्क का निर्माण हुआ। पहले इसे एडवर्ड पार्क कहा जाता था, फिर सन 1947 में भारत की आज़ादी के बाद इसका नाम बदलकर सुभाष पार्क कर दिया गया था।
सन 2012 में जब दिल्ली मेट्रो की हेरिटेज लाइन के लिए खुदाई चल रही थी, तब अकबराबादी मस्जिद की नींव के अवशेष मिले थे। इसे लेकर क़ानूनी लड़ाई शुरु हुई, लेकिन दिल्ली मेट्रो को आख़िरकार साइट पर हेरिटेज लाइन बनाने की अनुमति मिल गई।
शालीमार बाग़
अकबराबादी बेगम ने दिल्ली में शालीमार बाग़ भी बनवाया था, जिसके आंगन में कभी ख़ूबसूरत शीश महल हुआ करता था। सन 1653 में दिल्ली में बनाया गया, शालीमार बाग़, मुग़ल राजधानी शाहजहाँनाबाद के बाहर बनाए गए कई आलीशान बाग़ों में सबसे बड़ा बाग़ था।यह लाहौर के शालीमार बाग़ की तर्ज़ पर बनाया गया था। इससे पहले बादशाह जहांगीर ने श्रीनगर में और भी बेहतर डिज़ाइन के साथ शालीमार बाग़ बनवाया।
दिल्ली के शालीमार बाग़ में अकबराबादी बेगम के शौहर शाहजहां कश्मीर, पंजाब और लाहौर जाते वक़्त रुका करते थे। मुमताज़ महल के बेटे शहज़ादे औरंगज़ेब की भी पसंदीदा जगह हुआ करती थी।
अपने पिता बादशाह शाहजहां को आगरा के क़िले में नज़रबंद करने और अपने बड़े भाई शहज़ादे दारा शिकोह का पीछा करते हुए, औरंगज़ेब शालीमार बाग़ में ठहरा था और वहीं उसने अपनी ताजपोशी करवाई थी। यह उसकी दो ताजपोशियों में से पहली थी, जो शीश महल में 31जुलाई,सन 1658 को हुई थी। औरंगज़ेब की दूसरी ताजपोशी दारा शिकोह को हराने के बाद13 जून, सन 1659 को लाल क़िले में हुई थी।
भूलने की बीमारी और उपेक्षा का शिकार होने की वजह से दिल्ली का शालीमार बाग़ आज वीरान पड़ा है। इसे भले ही किसी बड़े ऐतिहासिक व्यक्ति ने न बनवाया हो, लेकिन फिर भी यह इतिहास का अहम हिस्सा है, और यह मुग़ल-युग के सुनहरे दिनों की एक महत्वपूर्ण निशानी भी है।
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