अजमेर का नाम सुनते ही जो सबसे पहली चीज़ आंखों के सामने घूमती है वह है ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ की दरगाह। राजस्थान में जयपुर से क़रीब 130 कि.मी. दूर अजमेर गहमागहमी और अफ़रातफ़री वाला शहर है जिसका ऐतिहासिक और आध्यात्मिक महत्व भी है। जहां सूफ़ी संत ख़्वाजा मोईनउद्दीन चिश्ती की दरगाह की वजब से लाखों लोग हर साल ज़ियारत करने आते हैं। अजमेर दरगाह नाम से मशहूर ये दरगाह दक्षिण एशिया में सबसे महत्वपूर्ण दरगाहों में से एक मानी जाती है।
“ गुनाह करने से किसी शख़्स को उतना नुक़सान नहीं होता जितना किसी को हिक़ारत की नज़र से देखने से होता है।”
ये शब्द 12वीं शताब्दी के सूफ़ी संत मोईनउद्दीन चिश्ती के हैं जो भारत में सूफ़ीवाद लेकर आए थे।सूफ़ीवाद की चिश्ती व्यवस्था का नाम अफग़ानिस्तान के शहर शिको के नाम पर पड़ा है जो पूर्वी हरात से क़रीब 95 मील दूर है। शिको में सबसे पहले सूफ़ीवाद आया था। अजमेर आने के पहले मोइनउद्दीन चिश्ती के आरंभिक जीवन के बारे में कोई ख़ास जानकारी उपलब्ध नहीं है। मध्यकाल में उनके बारे में जो भी जानकारियां मिलती हैं वो इतिहास से न होकर लोक कथाओं पर ही आधारित हैं। कहा जाता है कि मोईनउद्दीन चिश्ती का जन्म अफ़ग़ानिस्तान के गांव संगार में हुआ था।
वे जब बहुत छोटे थे तभी उनके माता-पिता का निधन हो गया था और तभी से उनका रुझान इबादत और आध्यात्म की तरफ़ हो गया। बाद में वह विलासिता की तमाम चीज़े छोड़कर ज्ञान की तलाश में बुख़ारा चले गए। बुख़ारा में वह चिश्ती संत उस्मान हरुनी के अनुयायी बन गए और फिर दोनों मक्का, मदीना और अन्य महत्वपूर्ण इस्लामिक केंद्रों की तरफ़ रवाना हो गए।
12वीं शताब्दी में चौहान राजवंश के शासनकाल में दिल्ली के साथ अजमेर (अजयमेरु) भी एक महत्वपूर्ण शहर होता था। सन 1192 में मोहम्मद ग़ौरी ने तराइन के दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज चौहान को हराकर अजमेर पर कब्ज़ा कर लिया था। उसी के शासनकाल में मोइनउद्दीन चिश्ती पहले दिल्ली और फिर अजमेर गए थे।अजमेर में ही वह ग़रीब नवाज़ नाम से मशहूर हुए थे। मोइनउद्दीन चिश्ती का निधन सन 1236 में हुआ था। तब उनकी उम्र 96 थी। उनकी शोहरत और मर्तबे की वजह पूरे भारतवर्ष में मुस्लिम शासकों ने उनकी दरगाह को ख़ूब प्रश्रय दिया।
शुरु में मोइनउद्दीन चिश्ती की अजमेर में एक क़ब्र हुआ करती थी लेकिन कहा जाता है कि बाद में सन1455 में मांडु के सुल्तान महमूद ख़िलजी ने वहां मक़बरा और बुलंद दरवाज़ा बनवाया था। ख़िलजी ने मक़बरे के परिसर में एक मस्जिद भी बनवाई थी। बाद में इस परिसर को अकबर और औरंगज़ेब ने फैलाया। दिलचस्प बात ये है कि मुग़ल बादशाहों ख़ासकर अकबर के संरक्षण की वजह से दरगाह का महत्व बढ़ा।
आईन-ए-अकबरी के लेखक अबुल फ़ज़ल के अनुसार दरगाह की लोकप्रियता सुनकर अकबर सबसे पहले सन 1562 में अजमेर गए थे। तब उन्होंने दरगाह से जुड़े लोगों को तोहफ़े दिये थे और दान भी किया था। दूसरी बार अकबर सन 1586 में पैदल दरगाह तब गए थे जब बेटे की चाहत की उनकी मन्नत पूरी हो गई थी। उन्होंने अपने बेटे का नाम सलीम रखा था जो सूफ़ी संत सलीम चिश्ती के नाम पर था। सूफ़ी संत सलीम चिश्ती की दरगाह फ़तेहपुरी सीकरी में है।
कहा जाता है कि सलीम (जहांगीर) के पैदा होने से अकबर इतने ख़ुश हुए कि उन्होंने दरगाह को एक बड़ी देग़ (हाण्डा) सहित और तरह की चीज़े दान में दीं। इस देग़ में आज भी दरगाह में उर्स के समय खाना पकाया जाता है।
क्या आपको पता है कि शाहजहां का बेटा दारा शिकोह और बेटी जहांआरा दोनों अजमेर में ही पैदा हुए थे। जहांआरा न सिर्फ़ ख़्वाजा मुईनउद्दीन चिश्ती की मुरीद थीं बल्कि उन्होंने मुईनउद्दीन चिश्ती की जीवनी मुनीस अल-अरवाह भी लिखी थी।
18वीं और 19वीं शताब्दी में अन्य प्रमुख शासकों जैसे हैदराबाद के निज़ाम और अरकोट के नवाब ने भी दरगाह को प्रश्रय दिया था। सन 1911 में इंग्लैंड की राजकुमारी मेरी भारत आई थीं और उन्होंने अजमेर में महफ़िल ख़ाने के सामाने हौज़ की मरम्मत और उस पर छत बनाने के लिये डेढ़ हज़ार रुपये का दान दिया था। ये हौज़ अब विक्टोरिया टैंक के नाम से जाना जाता है।
दरगाह का प्रवेश द्वार निज़ाम गेट कहलाता है जो हैदराबाद के निज़ाम मीर क़ासिम अली ख़ान ने सन 1911 में बनवाया था। परिसर के अंदर दो अहातों में संगमरमर की कई इमारते हैं और एक अकबरी मस्जिद है जो मुग़ल बादशाह शाहजहां ने बनवाई थी। यहीं पर ख़्वजा साहब की क़ब्र है। दरगाह के अन्य दो दरवाज़े हैं- जन्नती दरवाज़ा औऱ बुलंद दरवाज़ा। जन्नती दरवाज़ा दरगाह की पश्चिम दिशा में है और गैती आरा के मक़बरे के पास है। गैती आरा शाहजहां की बेटी थी जिसकी कम उम्र में मौत हो गई थी। दरवाज़ों के पलड़ों पर चांदी के धातु का काम है। ये दरवाज़ा साल में सिर्फ़ चार बार खोला जाता है। ईद पर दो बार, उर्स के मौक़े पर छह दिन के लिये, रमज़ान के बाद शव्वाल (इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार साल का दसवां महीना) के छठे दिन और ईद-उल-फ़ित्र के बाद।
उर्स शरीफ़ के शुरु के पहले सुल्तान मोहम्मद ख़िलजी के बनवाए गए बुलंद दरवाज़े के ऊपर एक झंडा फहराया जाता है और ख़्वाजा साहब के उर्स के लिये 25वें जमादी-उल-सानी पर भव्य समारोह आयोजित किया जाता है।
मोईनउद्दीन चिश्ती का उर्स हर साल इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार रजब माह के छठे और सातवें दिन मनाया जाता है। समारोह का मुख्य आकर्षण एक जुलूस होता है जो श्रद्धालु अजमेर से 400 कि.मी. दूर महरोली में क़ुतुबउद्दीन बख़्तियार काकी की दरगाह से निकालते हैं। इन श्रद्धालुओं को क़लंदर यानी मोईनउद्दीन चिश्ती का दोस्त कहा जाता है।
दरगाह की पूर्व दिशा में एक सुंदर दालान है जिसे बेगमी दालान कहा जाता है। ये दालान शाहजहां की सबसे लाड़ली बेटी शहज़ादी जहांआरा ने सन 1643 में बनवाया था। मुग़ल परिवार की महिलाएं जब भी दरगाह आती थीं, इस दालान का इस्तेमाल करती थीं।
मुख्य दरगाह में चांदी की छपरखट (छतरी) है जिस पर मोती जड़े हुए हैं। ये छतरी मक़बरे के ऊपर है और ये काम बादशाह जहांगीर ने करवाया था। इसके अलावा यहां कटघरा (रैलिंग) है और छत्री को सहारा देने वाले चार खंबों के बीच मेहराब है। क़ब्र के पास क़रीब दो फुट की दूरी पर एक और चांदी का कटघरा है। श्रद्धालु यहां फूल चढ़ाते हैं और क़ब्र पर फ़ातिहा पढ़ते हैं। मक़बरे की छत मख़मल के कपड़े से ढ़की होती है।
परिसर के अंदर सोहम चिराग़ के सामने बुलंद दरवाज़े के दोनों तरफ़ दो बड़ी बड़ी देग़ हैं जिसमें मीठे चावल,घी और मेवे डालकर प्रसाद बनाया जाता है जो श्रद्धालुओं में बांटा जाता है। बड़ी देग़ का पैंदा क़रीब सवा दस फ़ुट चौड़ा है और इसमें 2800 किलो चावल पकाया जाता है जबकि दूसरी देग़ में 1120 किलो चावल पक सकता है। इनमें से एक देग़ अकबर ने सन 1567 में दान की थी। एक समय उर्स के दौरान प्रसाद बनाने के लिये शाही परिवार पैसा देते थे जबकि आज ये काम संपन्न लोग करते हैं।
ख़्वाजा मोईनउद्दीन चिश्ती की दरगाह की स्थापना के समय से ही यहां हिंदू और मुसलमान दोनों ज़ियारत करते आ रहे हैं। आज भी प्रति दिन क़रीब ढेड़ लाख लोग यहां ज़ियारत के लिये आते हैं।
पुराने शहर की सकरी गलियों में स्थित दरगाह फूलों की ख़ुशबू से महकती रहती है और क़व्वालियों से गूंजती रहती है। श्रद्धालु ख़्वाजा साहब के मज़ार पर चादर चढ़ाते हैं। इस मौक़े पर क़व्वाली और क़ुरान के पाठ से सारा माहौल सराबोर हो जाता है।
श्रद्धालुओं के दिल में अजमेर शरीफ़ की ख़ास जगह है। अजमेर शरीफ़ भारत में उन धार्मिक स्थलों में से एक है जहां सबसे ज़्यादा लोग जाते हैं।
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