मुंबई के पास अंबरनाथ रेल्वे स्टेशन से एक किलोमीटर दूर अंबरनाथ शिवालय न सिर्फ़ महाराष्ट्र बल्कि भारत के सबसे प्राचीन मंदिरों में से एक है जो अपनी अद्वितीय स्थापत्य कला के लिए प्रसिद्ध है | ये मंदिर भूमिज शैली में बना है. मंदिर बनाने की ये शैली ९वीं और १३वीं सदी के दौरान मध्य और पश्चिम भारत के कुछ हिस्सों में प्रचलित थी | यह मंदिर बनाने का काम उत्तर कोंकण के शिलाहार राजवंश के १२वें शासक महामंडलेश्वर श्री छित्तराजदेव (सन १०२२- १०३५) के शासनकाल में शुरू हुआ था और सन १०६० में १४ वें शासक महामंडलेश्वराधिपती श्री माम्वणीराज के शासनकाल में मंदिर बनकर तैयार हो गया था | उत्तर कोंकण शिलाहार शाखा के राजदरबार के राजकवि सोढ्ढल के उदयसुंदरी कथा नामक ग्रंथ में हमें छित्तराजदेव, नागार्जुन और माम्वणी इन तीन शिलाहार शासक भाईयों के बारे में जानकारी मिलती है |
वालधुनी नदी के किनारे ये मंदिर कसौटी (बसाल्ट) पत्थर (काला पत्थर) का बना है. इसका मुख पश्चिम दिशा की ओर है | इस मंदिर में प्रवेश के लिए तीन मुखमंडप है| मुखमंडप से होते हुए आप सभा मंडप के अंदर पहुंच जाते हैं. सभामंडप के बाद नौ सीढ़ियों के नीचे गर्भगृह है |
मंदिर से बाहर निकलने के बाद अगर आप इसके शिखर को देखें तो वह टूटा हुआ नज़र आता है | यह खंडित होने से पहले सप्तभूम भूमीज शिखर हुआ करता था |
इस मंदिर की बाहरी दिवारों पर भगवान शिव के अनेक रुप बने हुए हैं जिसमें मार्कंडेयानुग्रह शिव, त्रिपुरांतक शिव, भिक्षाटन शिव, गजासूरवध शिव के साथ साथ यह मंदिर महिषासुरमर्दिनी, गणेश, विष्णु, कार्तिकेय, नरसिंह, चंडिका आदि देवी- देवताओं की सुंदर मुर्तियों से सजा है | इस मंदिर की सबसे सुंदर मूर्तियों में गजासूर वध शिवमूर्ति और महिषासुरमर्दिनी है | इन मूर्तियों में भगवान शिव और देवी दुर्गा त्रिशूल से असुरों का वध करते हुए दिखाई देते हैं | इस मंदिर पर हरिहर पितामहसूर्य प्रतिमा भी दिखाई देती है | यह मूर्ति विष्णु (हरी), शिव (हर), ब्रह्मदेव (पितामह) और सूर्य की मिलीजुली प्रतिमा है. इसके अलावा मंदिर के अंदर के स्तंभ और बाहरी दीवारों पर ब्रह्मदेव की कम से कम ८ प्रतिमाएं हैं | ठाणे और नाला सोपारा में भी ब्रम्हादेव की प्राचीन मूर्तियां मिली हैं जिससे हमें पता चलता है कि प्राचीन काल में यहां ब्रह्मदेव की उपासना होती थी |
ये वैभवशाली और दिव्य मंदिर ९४९ साल पुराना है |
डॉ. विल्सन ने इस मंदिर का उल्लेख एशियाटिक सोसायटी के सन १८४८ के जर्नल में किया था | फिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के जनक एलेक्ज़ेंडर कनिंघम की देखरेख में सन १८६८ में मंदिर के ३५ फोटो, २४ भग्नावशेष और ७६ सांचे निकाले गए | यह काम जी. डब्ल्यू. टेरी और उनके बॉम्बे स्कूल ऑफ़ आर्ट्स के ८ विद्यार्थियों और दो अन्य लोगों ने किया था | इस काम पर दस हज़ार, सात सौ चौदह रुपये, तीन आने और एक पैसे का ख़र्च हुआ था | इसी काम के दौरान उन्हें मंदिर का शिलालेख मिला था | जॉन एंडरसन की किताब ‘कॅटलोग एण्ड हॅण्डबूक ऑफ़ आर्किऑलॉजिकल कलेक्शन इन द् इंडियन म्युज़ियम’ के अनुसार इसी अंबरनाथ मंदिर के ४९ प्लास्टर तत्कालीन ब्रिटिश भारत सरकारने जुलाई सन १८७२ में इंडियन म्युज़ियम को उपहार में दिए थे जो आज भी कलकत्ता के इंडियन म्युज़ियम में मौजूद हैं. इन प्लास्टर को देखकर पता चलता है कि अंग्रेज़ शासन में मंदिर की मरम्मत कैसे होती थी |
मंदिर से मिले शिलालेख के अनुसार यह मंदिर प्राचीन काल में ‘आम्रनाथ या अम्वनाथ’ मंदिर के नाम से जाना जाता था | बॉम्बे स्कूल ऑफ़ आर्ट्स के एक्टिंग सुपरिटेंडेंट जे. डब्ल्यू. टेरी के अनुसार इस मंदिर का शिलालेख १४ नवंबर सन १८६८ में मिला था | अंग्रेज़ों के समय इस शिलालेख का अध्ययन मशहूर पुराभिलेखपाल डॉ. भाऊ दाजी लाड और बाद में पंडित भगवान लाल इंद्रजी ने किया था| सन १८६८ में मिला था |
९वीं शताब्दी से लेकर १२वीं शताब्दी तक उत्तर कोंकण याने महाराष्ट्र के पालघर, ठाणे , साष्टी दक्षिण-मुंबई और रायगढ़ ज़िलों पर शिलाहार राजवंश का राज्य हुआ करता था | इस राजवंश की स्थापना जीमूतकेतू ने की थी | उनका पुत्र जीमूतवाहन विद्याधर राजकुमार था | बताया जाता है कि जीमूतवाहन ने शंखचूड नाग को बचाने के लिए अपना शरीर एक शिला पर गरुड़ को आहार के रुप में दे दिया था और तभी से इस राजघराने का नाम ‘शिलाहार’ पड़ गया |
इस राजवंश के सबसे पुराने तीन उपलब्ध शिलालेख कपर्दिनी प्रथम (सन ८४३-४४), पुल्लशक्ती ( सन ८५३-५४), कपर्दिनी द्वितीय ( सन ८७७) के समय के हैं जो कान्हेरी बौद्ध गुंफाओं में मौजूद हैं | इन शिलालेखों से पता चलता है कि शुरुआत में इस राजवंश ने बौद्ध धर्म को आश्रय दिया था लेकिन ये शिवभक्त भी हुआ करता था | छित्तराजदेव के कल्याण ताम्रपत्रों के अनुसार इसी राजवंश के झंझ नामक शासक ने बारा शिव मंदिर भी बनाए थे | ठांणे शहर के मासुंदा तालाब के पास कोपिनेश्वर मंदिर इसी राजवंश ने बनवाया था | वहां आज नया मंदिर है लेकिन उसमें पुराने मंदिर का भव्य शिवलिंग आज भी पूजा जाता है |
Author Bio
संदीप दहिसरकर मुंबई में स्थित पुरातत्त्वशास्त्र और इतिहास विषयों के अभ्यासक है|
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