सन 1908, जनवरी या फ़रवरी के किसी दिन, देवगढ़ (अब झारखंड) के बाहरी इलाक़े में धीधिरिया पर्वत पर एक ज़बरदस्त बम धमाका हुआ था। धमाके के बाद एक युवा बंगाली का शव मिला। यह युवक बम धमाके में मारा गया था लेकिन उस वक़्त किसी को भी ये एहसास नहीं हुआ था कि ये एक ऐसी साज़िश की शुरुआत थी जिसके बाद ऐसे और ज़बरदस्त धमाके होने वाले थे और उनकी गूँज इतिहास में सुनाई देगी।
साज़िश का केंद्र उत्तर कोलकता के क्षेत्र मुरारीपुकुर में एक गार्डन हाउस था। ये घर सिविल सर्जन कृष्णधन घोष का था। घोष का सोचना था कि अंग्रेज़ी में पढ़ाई उनके बच्चों के लिये सबसे बेहतर होगी और इसीलिये उन्होंने सन 1879 में अपने बच्चों को इंग्लैंड ले जाकर सेंट पॉल स्कूल में दाख़िल करवा दिया। इनमें उनका बेटा अरबिंदो था, जो 14 साल बाद बड़ौदा राज सेवा में नौकरी करने लगा था और सन 1893 में भारत वापस आया था। वापस आने के बाद अरबिंदो की दिलचस्पी संस्कृति में हो गई और वह संस्कृत भाषा का अध्ययन करने लगे।
सन 1905 में भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड कर्ज़न ने हिंदू-मुस्लिम बहुल इलाक़ो के आधार पर बंगाल का विभाजन करने का फ़ैसला किया। इस फ़ैसले से बंगाली आबादी के एक बड़े वर्ग में रोष पैदा हो गया और ब्रिटिश राज के ख़िलाफ़ विरोध उमड़ पड़ा। यूरोप में क्रांतियों से प्रभावित कई बंगाली युवकों ने ब्रिटिश राज को उखाड़ फेंकने के लिये हथियार उठाने का फ़ैसला किया।
सन 1905 में जब बंगाल के विभाजन को लेकर राजनीतिक विरोध हुआ तब अरबिंदो राजनीति में शामिल हो गए। 19वीं शताब्दी में भारत में मध्यम वर्ग में पढ़े-लिखे लोगों की संख्या बढ़ने लगी थी और उनमें भारतीय राष्ट्रीय पहचान की भावना पनपने लगी थी जिससे राजनीतिक आंदोलन को बल मिला। सन 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन हुआ जिसने स्वायत्तता और आज़ादी के लिये संघर्ष शुरु कर दिया। लेकिन पंजाब और बंगाल में आंदोलन उग्र हो गया। यहां कई गुप्त संगठन बन गए जो हिंसा के ज़रिये अंग्रेज़ों का राज ख़त्म करना चाहते थे। ऐसा ही एक संगठन था कोलकता का अनुशीलन समिति जिसके अरबिंदों और उनके भाई बारिन घोष सदस्य थे।
धीरे-धीरे मुरारीपुकुर गार्डन हाउस एक ऐसी जगह बन गया जहां अरबिंदो और समान विचारधारा के लोग बैठकें कर सशस्त्र क्रांति की योजना बनाने लगे। उनकी योजना बम बनाने की थी और मुरारीपुकुर गार्डन बम बनाने की कार्यशाला बन गया। घर के पीछे जहां बम बनाये जा रहे थे वहीं सामने घर के कमरों में भजन-कीर्तन हुआ करते थे ताकि वहां से गुज़रने वालों को कोई शक न हो। बम बनाने के अलावा युवा हथियार, ख़ासकर रिवाल्वर, भी जमा करने लगे थे जो वे चोरी, लूट या फिर तस्करी करके लाते थे।
बम की पहली खेप जब तैयार हो गई, तब उनके परीक्षण की ज़रुरत मेहसूस हुई। परीक्षण के लिये उल्लासकर दत्ता, बारिन घोष, विभूति भूषण सरकार, नलिनी कांतो गुप्ता और प्रफुल्लचंद्र चक्रवर्ती का एक ग्रुप देवगढ़ रवाना हुआ। द अलीपुर बॉम्ब केस-ए हिस्टॉरिक प्री-इंडिपेंडेंस ट्रायल किताब (2008) के लेखक नुरुल हुडा लिखते हैं कि बम ने बढ़िया काम किया लेकिन प्रफुल्ल चक्रवर्ती, जिसने बम फेंका था, समय रहते ख़ुद को बचा नहीं पाए और धमाके में उनकी वहीं मौत हो गई जबकि उल्लासकर दत्ता गंभीर रुप से घायल हो गए।
इस बीच एक अन्य युवा बंगाली हेमचंद्र कानूनगो दास बम बनाने की विधा सीखने के लिये सन 1906 में कोलकता में अपना घर बेचकर मारसेली, फ़्रांस चला गया। वहां उनकी मुलाक़ात प्रसिद्ध मराठी क्रांतिकारी पांडुरंग बापट से हुई जिसे हम आज सेनापति बापट के नाम से जानते हैं। दोनों ने वहां “पीएच.डी” नाम की रहस्यमय रुसी क्रांतिकारी संगठन से बम बनाने की विधा सीखी। हेमचंद्र जब वापस लौटे तो उनके पास 70 पन्नों के काग़ज़ात थे जिनमें बम बनाने के तरीक़े सिखाये गये थे। इस बीच क़ानूनगो भी मुरारीपुकुर गैंग में शामिल हो गए।
इस ग्रुप का पहला निशाना बंगाल का गवर्नर सर एंड्रू फ़्रेज़र था। उस पर हमले की कमान बारिन घोष, उल्लासकर दत्ता और नरेंद्र गोस्वामी ने संभाली। अक्टूबर सन 1907 में ये ग्रुप गिरिडीह के पास चंद्रनगर पहुंचा। एंड्रू एक विशेष रेलगाड़ी से रांची जा रहा था और तय किया गया कि रेल को पटरी पर बम रखकर उड़ा दिया जाएगा। हालाँकि वे अपने मौके से चूक गए और ट्रेन बिना घटना के गुजर गई। कुछ दिनों के बाद दूसरी बार कोशिश की गई। इस बार दत्ता ने रेल लाइन के नीचे बम रख दिया था लेकिन गवर्नर ने अपना कार्यक्रम रद्द कर दिया। छह दिसंबर सन 1907 में तीसरी बार गवर्नर की हत्या की कोशिश की गई। गवर्नर को खड़गपुर जाना था और रेलपटरी के नीचे बारुदी सुरंग लगा दी गई। इस बार धमाका तो हुआ लेकिन गवर्नर बच गया। नवंबर सन 1908 में गवर्नर पर एक आमसभा में रिवाल्वर से गोली चलाने की योजना बनाई गई लेकिन बद़िस्मती से रिवाल्वर ऐन वक़्त पर जाम हो गई। गवर्नर बच गया लेकिन गोली चलाने की कोशिश करने वाला जितेंद्रनाथ राय गिरफ़्तार कर लिया गया और उसे जेल हो गई।
ग्रुप का दूसरा निशाना था मुज़फ़्फ़रपुर का ज़िला मजिस्ट्रेट किंगफ़ोर्ड जो सख़्त सज़ा देने के लिये बदनाम था। उसकी हत्या करने के लिये प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस को मुज़फ़्फ़रपुर भेजा गया। दोनों मुज़फ़्फ़रपुर के मोतीझील क्षेत्र में पहुंचकर किशोर मोहन बंधोपाध्याय की धर्मशाला में ठहर गए। तीस अप्रेल सन 1908 की रात दोनों यूरोपियन क्लब के गेट पर किंगफ़ोर्ड की बग्गी का इंतज़ार करने लगे। बग्गी जब आई तो दोनों ने बम फेंका । निशाना सही लगा। लेकिन बग्गी में किंग्सफ़ोर्ड की जगह बैरिस्टर प्रिंगल कैनेडी की पत्नी और बेटी थी। कैनेडी मुजफ्फरपुर बार के एक प्रमुख याचिकाकर्ता थे। बेटी की तो कुछ ही घंटों में मृत्यु हो गई लेकिन श्रीमती कैनेडी दो मई तक मौत से जूझती रहीं।
अगली सुबह वैणी स्टेशन, जो अब खुदीराम बोस पूसा स्टोशन के नाम से जाना जाता है, पर खुदीराम बोस को गिरफ़्तार कर लिया गया और प्रफुल्ल चाकी ने मोकामघाट पर ख़ुद को तब गोली मार ली, जब पुलिस ने उन्हें गिरफ़्तार करने की कोशिश की। मुख़बिरों की सूचना के आधार पर अरबिंदो घोष के ग्रे स्ट्रीट निवास और सात ठिकानों सहित मुरारीपुकुर गार्डन हाउस पर दबिश दी गई। खुदीराम बोस पर मुक़दमा चला और 11 अगस्त सन 1908 में उन्हें फांसी दे दी गई। जिस जज सी.पी. बीचक्रऑफ़्ट ने बोस को फांसी की सज़ा सुनाई थी वह आईसीएस की तैयारी के दिनों में ख़ुदीराम बोस की क्लास में ही पढ़ता था।
अलीपुर बम कांड मामले में 49 अभियुक्त थे, 206 लोग गवाही की तरह पेश किये गये। क़रीब 400 दस्तावेज़ और 5000 से ज़्यादा सबूत अदालत में पेश किए गए।अभियुक्तों मे से एक नरेंद्रनाथ गोस्वामी सरकारी गवाह बन गया था लेकिन जेल के अस्पताल में क्रांतिकारियों ने उसकी हत्या कर दी।
6 मई सन 1909 को ये ऐतिहासिक मुक़दमा पूरा हुआ। अरबिंदो घोष और 16 अन्य अभियुक्तों को रिहा कर दिया गया। बारिन घोष और उल्लासकर दत्ता को जेल हुई और वे सन 1920 में रिहा हो हुए। हेमचंद्र क़ानूनगो दास और कई अभियुक्तों को उम्र भर के लिये देश निकाला दिया गया और उनकी संपत्ति ज़ब्त तर ली गई। मुक़दमे के दौरान रक्षा पक्ष के वकील चितरंजन दास हीरो बन गए थे जिन्होंने अपनी तबीयत की परवाह न करते हुए मुक़दमा लड़ा।
बताया जाता है कि मुक़दमे की सुनवाई के दौरान अरबिंदो के सामने कई राज़ खुले थे जिसकी वजह से वह सक्रिय राजनीति से अलग हो गए और उनका झुकाव आध्यात्म की तरफ़ हो गया था। उन्होंने पांडीचेरी में, जो उस समय फ़्रांस का उपनिवेश था, एक आश्रम खोला जो आज भी मौजूद है। 18 साल की उम्र मे खुदीराम बोस फांसी पर चढ़ने वाले सबसे युवा क्रांतिकारी थे। उनका शव जब अंतिम संस्कार के लिये ले जाया जा रहा था तब सड़कों पर लोगों ने उनके शव पर फूलों की वर्षा की थी। कहा जाता है कि जब खुदीराम बोस को फांसी दी जा रही थी तब उनके चेहरे पर मुस्कान थी।
ज़्यादातर अभियुक्त गुप्त क्रांतिकारी गिरोह अनुशीलन समिति के सदस्य थे। उनकी गिरफ़्तारी के बाद बंगाल में क्रांतिकारी गतिविधियों की बागडोर जुगांतर ग्रुप ने संभाल ली जिसका संचालन जुझारु क्रांतिकारी जतिंद्रनाथ मुखर्जी उर्फ़ बाघा जतिन करते थे। सन 1909 में उन्होंने गोस्वामी हत्याकांड मामले के सरकारी वकील आशुतोष गोस्वामी की हत्या कर दी। अगले साल अलीपुर बम कांड के जांच अधिकारी शम्सुल आलम और खुदीराम बोस को गिरफ़्तार करने वाले नरेन बनर्जी की भी हत्या कर दी गई। गिरफ़्तारियों के बावजूद गिरोह ने वाइसराय हार्डिंग की हत्या की कोशिश की और सन 1914 में देश भर में बग़ावत फैलाने की कोशिश की जिसे हिंदु-जर्मन साज़िश के नाम से जाना जाता है।
अलीपुर बम कांड की वजह से अनुशीलन समिति सुर्ख़ियों में आई। सन 1902 में इसकी स्थापना से लेकर सन 1930 में इसके भंग होने तक बंगाल में क्रांतिकारी आतंकवाद की हर कार्रवाई का इससे संबंध रहा था। पुलिस के दबाव की वजह से बंगाल में क्रांतिकारी आंदोलन तीस के दशक में ख़त्म हो गया लेकिन अलीपुर बम साज़िश बंगाल के क्रांतिकारी संघर्ष में एक मील का पत्थर रहा है।
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