शेखावाटी क्षेत्र का मुख्य आस्था का स्थल: हर्षनाथ मंदिर

शेखावाटी क्षेत्र का मुख्य आस्था का स्थल: हर्षनाथ मंदिर

आश्चर्य और सपनों की सृष्टि को साकार रूप से संजोये राजस्थान बुनियादी तौर पर राजपूतों और रजवाड़ों का प्रदेश रहा है। इसीलिये यहां की राजपूतानी आन, बान, शान और शौर्य की कीर्ति आज तक अजर-अमर है। राजपूताना की खून से रंगी यह वीर भूमि गौरवपूर्ण इतिहास और परम्पराओं से भरी एक धनी संस्कृति की गवाह है। यहां प्रकृति और मुनष्यों में अद्भूत तालमेल भी रहा है। एक तरफ़ प्रकृति ने अनेक सुरम्य झीलें, घने जंगल, पठार दिये हैं, तो वहीं दूसरी ओर दूर-दूर तक फैला रेगिस्तान दिये हैं, जिसकी वजह से प्रदेश की ख़ूबसूरती में चार चांद लग गये हैं।

यहां के राजा-महाराजाओं के साथ सेठ-साहुकारों और भामाशाहों ने संत-महात्माओं की प्ररेणाओं से अनोखे और भव्य मंदिरों, मठों, गढ़-किलों, दुर्गों, राजप्रासादों और हवेलियों सहित आदि धरोहरों का निर्माण कर इस धरा को सजाया संवारा है। जो आज भी दूर-दराज़ से आने वाले पर्यटकों और श्रृद्धालूओं को बरबस अपनी ओर आकर्षित करते है।

हर्षनाथ भगवान का मुख्य मंदिर | लेखक

राजस्थान में गुप्तकाल के बाद प्रतिहार, चैहान, चालुक्य, गुहिल आदि राजवंशों के अलावा मुग़लों के मध्य भीषण लड़ाईयों और भारी रक्तपात के बावजूद यहां के कला-प्रेमी शासकों ने सुंदर ईमारतों का निर्माण कर स्थापत्य कला की धारा बहा दी थी, जो आज तक संस्कृति के बेजोड़ नमूने हैं। साथ ही भारतीय इतिहास में एक विशेष स्थान लिए हुए हैं। जानते हैं,सावन मास में शेखावाटी के एक मुख्य जन आस्था का स्थल रहे हर्षनाथ मंदिर की ऐतिहासिक और अद्भुत मूर्तिकला से।

हर्षनाथ पहाड़ी: शेखावाटी का ऐतिहासिक गौरव केन्द्र

शेखावाटी के अर्ध-मरूस्थल में आकाश छूने वाली अरावली पर्वतमालाएं सहज ही दर्शकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लेती हैं। यहां के अनेक गिरि- शिखर भव्य भवन, मंदिर और गढ़ों से सुशोभित हैं। जिनका सौंदर्य देखते ही बनता है। जयपुर से 110 और सीकर से 16 किमी दूर दक्षिण में हर्ष पर्वत है जिस पर देवाधिदेव महादेव का प्राचीन मंदिर मौजूद है। इस पर्वत की ऊँचाई 2 हज़ार 9 सौ 98 फ़ुट मानी जाती है।

हर्ष पहाड़ी | लेखक

हर्ष गांव से पहाड़ी के शिखर तक पहुंचने के लिए बद्रीनारायण सोठाणी ने अपनी अटूट आस्था के कारण, लगभग 35 वर्ष पूर्व एक सड़क मार्ग का निर्माण करवाया था। यह जगह प्राकृतिक दृश्य, हरियाली से सजी मालाओं से युक्त वनोषधियां और वृक्षों से भरे हैं। पहाड़ी के ऊपर वायरलेस स्टेशन, वन ईको-टूरिज़म और भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग के कार्यालय भी बने हुए हैं। पहाड़ी की चोटी सपाट है, जो लगभग एक मील लम्बी ओर सौ गज़ चैड़ी है। यहां से खंडेला और जयपुर की पहाड़ी श्रृंखला, लक्षमणगढ़, देवगढ़ और रैवासा के दुर्गों के लुभावने दृश्य के साथ आस-पास के कई गांवों के सुंदर नज़ारे दिखाई देते है। इस पर्वत की ऊंचाई से सूर्योदय और सूर्यास्त का दृश्य तथा समीप की झील बड़ी ही मनोरम लगती है।

इस विशाल पहाड़ी में चुम्बकीय गुण होने की पृष्टि कैप्टेन वेब ने की थी। वर्तमान में यहां पवन ऊर्जा का भी उत्पादन किया जा रहा है। पौराणिक मान्यता और शिवपुराण के अनुसार भगवान शिव ने वृत्तासुर राक्षस का अंत भी यहीं किया था। जिससे प्रसन्न हुए देवताओं ने इसी पहाड़ी पर शिव की स्तुति की थी। चूंकि देवताओं में अपार हर्ष था। इसलिए इस पहाड़ी का नाम हर्ष और यहां स्थापित शिव हर्षनाथ कहलाए।

‘‘जगमालपुरा हर्ष नगरी, बोम तालाब छतरी,

एक बाजार मंडी गुदड़ी’’

हर्ष पहाड़ी पर स्थित प्राचीन मंदिर

साँभर के चौहान शासकों के कुल देवता भगवान शिव का यह मुख्य मंदिर आज भी हर्षगिरि पर्वत पर स्थित है। यहां कभी विश्व प्रसिद्ध लिंगोद्भव की अद्भूत मूर्ति प्रतिष्ठि की गई थी। जो अब अजमेर संग्रहालय में प्रदर्शित की हुई है। वहीं, यहां के मुख्य प्राचीन मंदिर में आज भी प्राचीन पंचमुखी शिवलिंग स्थापित हैं। कला मर्मज्ञ विजय वर्मा बताते हैं, कि राज्य में मंदिर निर्माण काल (8वीं से 10वीं) सदी के मध्य यहां विभिन्न क्षेत्रीय शैलिया विकसित हुई थीं। इस दौर के मंदिरों में प्रतिहार कला का पूर्ण विकास तथा सोंलकी शैली का पूर्वाभास देखने को मिलता है। हर्षनाथ का प्राचीन मंदिर इसी काल और कोटि का माना जाता है।

मंदिर के अन्दर पंचमुखी शिवलिंग | लेखक

यहां के अन्य मंदिर और मूर्ति शिल्पकला पर अध्ययन करने ब्राउन यूनिर्वसिटी बोस्टन की प्रो. एलिज़ाबेथ ने अपने शोध में बताया, कि इस पहाड़ी पर प्रतीकात्मक अवशेषों के अनुसार कुछ अन्य छोटे मंदिर भी रहे होगें जो कि भगवान विष्णु, गणेश, सूर्य और देवी महिषासुरमर्दिनी को समर्पित थे। विभिन्न इतिहासकारों के अनुसार कालान्तर में इन भव्य मंदिर समूह को समय के प्रभाव तथा विध्वंसक गतिविधियों के कारण बहुत क्षति पहुंचाई गई थी। मूर्तियां तोड़ने वालों की छोटी सोच के कारण यहां की अमूल्य धरोहरों में सम्मलित चौरासी मंदिरों को खंडित कर दिया गया था। इन मंदिरों का स्थापत्य और मूर्ति शिल्प कितना वैभवशाली रहा होगा। इसका अनुमान यहां दूर-दूर तक रखी मूर्तियों को देखकर ही लगाया जा सकता है।

पहाड़ी पर रखी हुई मूर्तियांऔर अन्य मंदिरों के भाग | लेखक

यहां के मुख्य मंदिर में आज भी विभिन्न देवी-देवताओं, सुंदरियों, अप्सराओं की अनेक मूर्तियाँ मौजूद हैं। इनमें से कई मूर्तियां केन्द्रीय और राज्य पुरातत्व विभाग के संरक्षण में हैं। जिन्हें सीकर और अजमेर संग्रहालयों में प्रदर्शन के लियेरखा गया है। हर्षनाथ के इस अलौकिक लकुलिश पाशुपत मंदिर का अल्लाट से संबंध रहा है। इस मंदिर के सामने विशाल संगमरमर नंदी प्रतिमा स्थापित की हुई है। इसी के पास एक अन्य शिव मंदिर को सीकर के राव शिवसिंह ने बनवाया था। इन दोनो मंदिरों के आगे भैरव व जीणमाता जी का मंदिर स्थित हैं। जहां कई प्राचीन मूर्तियों में महिषासुरमर्दिनी, हाथ में मदिरा का प्याला लिए हुए हाथी के सिर वाली योगिनी की अद्भूत मूर्ति, 10वीं सदी में उकेरे गये लेख का स्तम्भ भी स्थित है।

पहाड़ी पर बना भैरव मंदिर | लेखक

मनीष पराशर बताते है, कि यहां प्राचीन काल से निरन्तर अखण्ड ज्योति जल रही है। मुग़ल काल से अब तक केंद्रीय सता के माध्यम से 62 रूपयों का चढ़ावा भी प्राप्त हुआ है। यहां की अन्य मूर्तियों के स्थापत्य एवं कला के बारे में अधीक्षक सोहनलाल चैधरी ने बताया, कि हर्षपर्वत पर 10वीं शताब्दी में बनाया गया यह मंदिर, मूर्ति-शिल्प एवं वास्तुकला की दृष्टि से एक अनुपम कृति है। मंदिर के गर्भगृह में सोलह सुर-सुंदरियों का अंकन किया हुआ है। सीकर संग्रहालय में प्रदर्शित प्रस्तर प्रतिमाएं इस मंदिर के अतीत एवं भव्य स्वरूप को याद दिलाती हैं।

यहां से प्राप्त प्रतिमाओं में द्विबाहु नटेश शिव का शिल्पखण्ड नृत्यवादन फलक, भारतीय शिल्प में ऐसा फलक अभी तक अज्ञात है। इनके अलावा हरिहर पितामह मार्तण्ड प्रतिमा भी अद्भुत है। इसमें भगवान विष्णु, शिव, ब्रह्मा व सूर्य का संयुक्त अंकन किया हुआ है। एक मूर्ति देवी छाया की है, जिसमें कमल के फूल, सूर्य रथ के घोड़े, त्रिशूल की आकृति बनी हुई है। सन 1934-38 के दौरान सीकर के वरिष्ठ अधिकारी रहे कैप्टन वेब ने जब पहली बार इस पर्वत की यात्रा की तो वहां लगभग 2 एकड़ भूमि पर बिखरे टूटे-फूटे पत्थरों के सौंदर्य को देखकर प्रसन्न हो गए, और उनके ही प्रयासों से यहां से कुछ महत्वपूर्ण मूर्तियाँ संग्रहालय में सुरक्षित रखी गईं।

हर्षनाथ मंदिर की प्रशस्ति

हर्षनाथ मंदिर से प्राप्त काले पत्थर पर उकेरा गया, वि.सं. 1030 (सन 973) आषाढ़ शुक्ला 15 का शिला-लेख संस्कृत भाषा और विकसित देवनागरी लिपि में है। इसमें शिव की स्तुति के प्रारम्भ के बाद 48 पद्य में चौहान शासकों की वंशावली दी हुई है। इसीलिए चौहान वंश के राजनीतिक इतिहास की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। इसमें हर्षगिरी, हर्षनगरी तथा हर्षनाथ का भी विवरण दिया हुआ है।

शिला-लेख | लेखक

इस शिला-लेख का विषय उस मंदिर की स्थापना के बारे में है जिसके खंडहरों में यह पाया गया था। इसका अनुवाद डब्ल्यू. एच. मिल, डी.डी. प्राचार्य बिशप कॉलेज ने एशियाटिक सोसायटी के समक्ष अगस्त सन 1935 में किया था। जिसमें सांभर के चैहान राजा विग्रहराज, गूवक, चन्द्रराज, चंदन, वाक्पतिराज और सिंहराज के नाम उकेरे गये हैं। साथ ही इस मंदिर के लिए सांभर के व्यापारी एक नमक की ढ़ेरी के लिये एक विशोपक और एक घोड़े के लिये एक द्रम( तांबे और चॉंदी के सिक्के) देते थे। इसका एक श्लोक इस तरह से है:-

‘‘…….तोमरनायकं सलवणं सैन्याधिपत्योद्धतं युद्धे येन नरेश्वराः प्रतिदिशं निंर्नाशिता विष्णुना कारावेश्मनि भूरमश्च विधृतास्तावद्धि यावद्गृहे तन्मुक्त्यर्थमुपागतो रघुकुले भुचक्रवर्ती स्वयम्।।’’

इसी भाषा और लिपि का एक अन्य लेख पाली के बीजापुर हस्तिकुण्डी जैन मंदिर से भी प्राप्त हुआ था।हर्षनाथ मंदिर शिला-लेख के अनुसार सिंहराज (संवत् 1001-29), विग्रहराज द्वितीय (सं. 1029-55) व समीप के जीणमाता जी मंदिर लेख में संवत् 1162 और अर्णोराज का रैवासा ग्राम से सं.1196 का शिला-लेख मिला था। इनके अलावा पहाड़ी पर अन्य मंदिरों का हिस्सा रही विभिन्न मूर्तियां या स्तम्भों पर अन्य शिला-लेख उकेरे गये हैं।

प्राचीन मूर्तियाँ | लेखक

इस अद्धितीय स्थल पर प्रतिदिन दूर-दराज़ से सैंकड़ों श्रद्धालु भगवान हर्षनाथ के आगे शीश झुकाते हैं।

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