चेन्नई से पुडुचेरी आते समय तमिलनाडू में पूर्वी समुद्री तट पर हमें दो ऐसे स्थान मिलते हैं, जो इस यात्रा को और यादगार बना देते हैं। ये स्थान हैं महाबलीपुरम और कलपक्कम परमाणु बिजली संयत्र। इन दो स्थानों से आगे जाने के बाद एक क़िला है, जो किसी ज़माने में डच ईस्ट इंडिया कंपनी का गढ़ हुआ करता था। कोरोमंडल तट पर स्थित सदरास क़िला हालंकि भुला दिया गया है, लेकिन आज भी ये ऐतिहासिक रुप से प्रासंगिक है। डच (हालैंड निवासियों) द्वारा बनवाया गया ये क़िला अंग्रेज़ों और फ़्रांस के बीच प्रसिद्ध सदरास युद्ध का गवाह रहा है और इसने डच साम्राज्य के उदय और पतन को भी देखा है।
सदरास का इतिहास
तमिलनाडू के चेंगलपट्टू ज़िले में स्थित मछुआरों के इस छोटे से शहर का शानदार अतीत रहा है। संगम युग (300 ई.पू. -300 ई.) के दौरान ये शहर मदुरै और तिरुनेलवेली के बीच 16 बंदरगाहों में से एक हुआ करता था जिनका चीन, यूरोप और दक्षिण एशियाई देशों से सीधा समुद्री संपर्क होता था। ये पंड्या और चोल राजवंशों का छोटा मगर एक महत्वपूर्ण बंदरगाह होता था, जहां से वे समुद्री व्यापार किया करते थे। कई दस्तावेंज़ों में दावा किया गया है, कि सदरास को पेरीप्लस ऑफ़ द अर्थीरियन सी में सोपात्मा भी कहा गया है, जो सागर और पलार नदी के संगम पर स्थित था।
13वीं सदी के अंत में चोल राजवंश के कमज़ोर होने के बाद उनके जागीरदार सांबुवारायर ने क्षेत्र पर नियंत्रण किया, जिसमें मौजूदा समय के वेल्लोर, तिरुवन्नामलई, कांचीपुरम, कुड्डलोर, तिरुवल्लूर, नेल्लोर और चित्तूर ज़िले आते थे। मदुरै के सन 1353 के अभिलेख के अनुसार इस स्थान राजानारायणम पत्तिनम का नाम इसके सरदार राजानारायण के नाम पर रखा गया था। 14वीं सदी में विजयनगर साम्राज्य के उदय के दौरान बुक्का-प्रथम (सन 1356-1377) ने राजानारायण की हत्या कर सदरास पर क़ब्ज़ा कर लिया और इसका नाम बदलकर सांडुरंगपट्टिनम रख दिया। यहां रहने वाले लोग, जिनमें से कुछ अरब व्यापारियों के वंशज थे, जो दूसरी सदी में यहां आकर बस गए थे, मलमल के कपड़े, मछली और मसालों का व्यापार करने लगे।
यूरोपियों का आगमन
सन 1602 में डच ने दूर-दराज़ के द्वीपों में व्यापार के लिए डच ईस्ट इंडिया कंपनी (Vereenigde Oostindische Compagnie) (वीओसी) बनाई। भारत में व्यापार के लिए उन्होंने पहले सन 1604 में केरल में ज़ामोरिन के दरवाज़े खटखटाए, लेकिन दुर्भाग्य से पुर्तगालियों ने उन्हें ऐसा नहीं करने दिया क्योंकि पुर्तगाली, सन 1498 में भारत में आने के बाद भारतीय प्रायद्वीप में ताक़तवर हो गए थे। इसके बाद डच पूर्वी तट की तरफ़ चले गए। हालैंड (डच) के व्यापारों को इजाज़त न देने का एक कारण ये भी था, कि पुर्तगालियों के, हालैंड के साथ पहले से ही संबंध ख़राब चल रहे थे क्योंकि स्पेन के राजा फिलिप-द्वितीय ( सन 1580-1598) ने पुर्तगाल पर कब्ज़ा कर रखा था, इसलिए दोनों के बीच युद्ध चल रहा था।
आख़िरकार डच को मछलीपट्टनम में व्यापार करने की इजाज़त मिल गई। व्यापार संबंधी यात्रा के दौरान सन 1606 में उनका एक जहाज़ स्थानीय लोगों से माल लेने पुलिकात (मौजूदा समय में तमिलनाडू) पहुंच गया। इनसे डच भी मलमल और मसाले लिया करते थे, जिसे वे पूर्वी देशों और स्वदेश में बेचते थे। पुर्तगालियों की तरह डच ने भी यहां सन 1608 में अपना व्यापार जमा लिया।
डच लोगों के व्यापार में आने से पुर्तगालियों के सामने एक नया प्रतिद्वंदी खड़ा हो गया, जो उनसे ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने लगा था, जिसकी वजह से दोनों में झड़पें होने लगी थीं। इसके बाद मदद के लिए डच ने राजा चंद्रागिरी वेंकट-द्वितीय ( सन 1586-1614) की पत्नी महारानी इरैव से गुहार लगाई । कहा जाता है कि महारानी ने पुर्तगालियों से चंद्रगिरी क्षेत्र से वापस जाने को कहा। अपने व्यापारिक हितों की रक्षा के लिए डच लोगों ने सन 1611 में महारानी से सरकारी अनुदान लिया और अपने कारख़ानों के लिए क़िला बनाया, जिसे बाद में गल्दरिया क़िले के नाम से जाना गया।
सदरास क़िले का निर्माण
क़िले में व्यापारिक गतिविधियां इतनी होने लगीं, कि डच लोगों को लगा कि एक और कारख़ाना खोलना चाहिए जिसमें राजनीतिक हस्तक्षेप न हो। डच लोगों की नज़र दक्षिण की तरफ़ सदरास पर पड़ी, जो मलमल के कपड़े, खाद्य तेल और उच्च क़िस्म की ईंटों के लिए मशहूर हो रहा था। इसके अलावा . मायलापुर (मौजूदा समय में चेन्नई) से क़रीब 80 कि.मी. दूर था ,जहां पुर्तगाली पुलिकाट हारने के बाद सक्रिय हुए थे। अच्छे व्यापार की संभावना देखते हुए वेंकट-द्वितीय से इजाज़त लेने के बाद डच लोगों ने यहां एक कारख़ाना लगाने का फ़ैसला किया। उन्होंने इस स्थान का नाम सदरै रखा। सन 1640 के आरंभिक वर्षों में जब व्यापार फलने-फूलने लगा, डच लोगों को इस स्थान की क़िलेबंदी की ज़रुरत महसूस हुई। इस तरह उन्होंने सदरास क़िला बनाया।
क़िले का निर्माण सन1648 से लेकर सन 1654 तक चला। इसके निर्माण में ईंट-भट्टे की ईंटों यानी पकी हुई की ईंटों का इस्तेमाल किया गया था। ये क़िला पूर्व से लेकर पश्चिम दिशा तक फैला हुआ था।क़िले के बाहर की दीवारें दोहरी थी, और उन्हें मज़बूत बनाने के लिए उनके भीतर धातु भरा हुआ था। निगरानी के लिए दो बुर्ज थे। एक बुर्ज मुख्य-द्वार पर था जबकि समुद्री गतिविधियों पर नज़र रखने के लिए दूसरा बुर्ज समंदर की तरफ़ बनवाया गया था।
सन 1503 में पुलिकाट में, एक सदी पहले हुई पुर्तगालियों से झड़प से सबक़ लेते हुए, डच लोगों ने क़िले की दीवारों पर तोपें लगा दी थीं। पुर्तगालियों के अलावा अन्य यूरोपीय देश भी भारत और अन्य एशियाई और अफ्रीकी देशों के व्यापारिक गतिविधियों में सक्रिय हो चुके थे। इसलिए सुरक्षा को और मज़बूती देने के लिए दो तोपों को अलग से लगया गया था, जिन्हें आज भी क़िले के मुख्य प्रवेश-द्वार पर देखा जा सकता है।
युद्ध की स्थिति में क़िले में आसानी से आवाजाही के लिए क़िले के अंदर की मुख्य दीवारों के बीच एक और दीवार बनाई गई थी, जिसकी ऊंचाई मुख्य दीवारों से कम थी। दीवारों की बीच की जगह को मिट्टी से भर दिया गया था। माना जाता है कि क़िले के अंदर गुप्त भूमिगत सुरंगे थीं, जिन्हें असलाह-गोलाबारुद के लिए ख़ासतौर पर बनाया गया था। सन 2000 से अब तक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा की गई खुदाई में जर्मनी और चीन जैसे देशों के चीनी मिट्टी के बर्तन तथा अन्य चीज़े मिली हैं, जिनका इस्तेमाल डच लोग करते थे।
अंग्रेज़ सदरास क़िले को ऑरेंज फ़ोर्ट कहते थे क्योंकि इसका रंग नारंगी था जो डच शाही परिवार का रंग हुआ करता था।
17वीं सदी के मध्य से लेकर 18वीं सदी की शुरुआत तक मलमल के कपड़े, खाद्य तेल, मोतियों और ईंटों का कारोबार ख़ूब फला-फूला, जिससे डच मालामाल हो गए थे। समय गुज़रने के साथ डच ने कोरोमंडल तट पर पुलिकाट और सदरास में अपने क़िले बनाए। अन्य वस्तुओं के व्यापार के अलावा छींट की छपाई वाले कपड़ों की भी बहुत मांग हो गई थी। सदरास ईंटों की सप्लाई का प्रमुख केंद्र था। इन ईंटों का इस्तेमाल कोरोमंडल तट, सीलोन में क़िलेबंदी या फिर इनकी मरम्मत के लिए किया जाता था। यहां की ईंटों से नगापट्टनम में विज्फ़ सिनन क़िला, गाले क़िला और मुलैतिवू क़िला (दोनों मौजूदा समय में श्रीलंका में) बनाए गए थे। सन 1661 तक आते आते डच लोगों ने भारतीय प्रायद्वीप से पुर्तगालियों को पूरी तरह खदेड़ दिया और इस तरह वे पुलिकाट, मछलीपट्टनम और नागापट्टनम में शक्तिशाली हो गए।
सन 1670 के दशक में सदरास क़िले में एक क़ब्रिस्तान बनाया गया जो आज भी क़िले के अंदर मौजूद है। यहां क़रीब नौ मक़बरे हैं, जिनमें सबसे पुराना मक़बरा सन 1670 का और सबसे नया सन 1790 का है। ये प्रवेश-द्वार पर ही बने हुए हैं। पुलिकाट में क़िले (गल्दरिया क़िला) और वित्तीय रुप से मज़बूत होने की वजह से डच कोरोमंडल तट पर बहुत शक्तिशाली हो गए थे और उनका दबदबा मध्य 18वीं सदी तक जारी रहा।
सदरास के युद्ध
अमेरिकी क्रांतिकारी युद्ध ( सन 1775-1783) के तहत ब्रिटेन और फ्रांस के बीच भी युद्ध शुरु हो गया, जिसका कर्नाटक युद्ध के रुप में भारत में असर देखा गया। डच और फ्रांस दोनों की ब्रिटेन से दुश्मनी थी, जिसकी वजह से दोनों एक दूसरे के क़रीब आ गए, जो ज़ाहिर है, ब्रिटेन को पसंद नहीं आया।
अपनी सैन्य शक्ति को बढ़ाने के लिए अंग्रेज़ों ने सन 1779 में माहे (केरल) पर कब्ज़ा किया। बदले की कार्रवाई में मैसूर के शासक हैदर अली ने सन 1780 में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला, जिसे द्वितीय मैसूर युद्ध ( सन 1780-1784) के नाम से जाना जाता है । यहां शुरुआत में हैदर अली की जीत हुई। युद्ध में हारे गए क्षेत्रों को फिर हासिल करने के लिए ब्रिटेन ने अपने देश से और सैनिक बुलवाए और दूसरी तरफ़ मैसूर के साथ देने वाले फ्रांस ने भी अपने देश से सैनिक बुलवाए।
दूसरी तरफ़ डच ने अमेरिका और फ़्रांस के साथ व्यापार न करने की ब्रिटेन की धमकी की परवाह न करते हुए युद्ध की घोषणा कर दी। इसे चौथा एंग्लो-डच युद्ध ( सन 1780-1784) कहा जाता है। सन 1781 के मध्य में ब्रिटेन ने कोरोमंडल तट पर फ़्रांस और डच की छावनियों पर कब्ज़ा कर लिया। सदरास क़िले का भी यही हश्र हुआ। क़िले पर अंग्रेज़ों ने जमकर बमबारी की, जिसकी वजह से मालगोदाम जैसे भवनों को बहुत नुकसान हुआ। हमले के बाद डच क़िले से भाग गए । अंग्रेज़ों से निपटने के लिए दक्षिण अफ़्रीका में केप ऑफ़ गुड होप में तैनात फ़्रांसीसी नौसेना को भेजा गया।
17 फ़रवरी सन 1782 को, क़िले के सामने ब्रिटिश और फ़्रांसीसी जंगी जहाज़ों के बीच सदरास का युद्ध हुआ। तीन घंटे तक चले युद्ध में ब्रिटेन को काफ़ी नुक़सान उठाना पड़ा और क़िला भी गंवाना पड़ा। फ़्रांस ने ये क़िला वापस डच को दे दिया। युद्ध की वजह से क़िले को भी बहुत नुक़सान हुआ | उसी समय, सन 1783 में फ़्रांस और ब्रिटेन के बीच शांति संधि की ख़बर भी आई। इस संधि के तहत फ़्रांस ने मैसूर से अपना समर्थन वापस ले लिया।
क़िले का हाथ से निकलना
क़िला वापस मिलने के बावजूद डच लोगों का दबदबा कम होने लगा था। सदरास युद्ध के पहले भी सन 1741 में कोलाचेल युद्ध में राजा मार्थंड वर्मा से हारने के बाद से ही भारतीय प्रायद्वीप में डच का सूरज अस्त होने लगा था। इसके अलावा व्यापार और विदेशी कालोनियों पर नियंत्रण तथा ख़राब वित्तीय नीतियों, युद्ध पर अधिक ख़र्चे और देश में माल की मांग कम होने जैसे मुद्दों पर एंग्लो-डच युद्ध (1652-1784) हो रहे थे जिसकी वजह से भी डच लोगों का वर्चस्व ख़त्म होने लगा था। उस समय पूर्वी क्षेत्र और भारतीय प्रायद्वीप में जीत के बाद अंग्रेज़ ताक़तवर होने लगे थे।
दिवालिया होने के बाद सन 1799 में डच ईस्ट इंडिया कंपनी (VOC) ने अपना सारा माल-असबाब डच शाही घराने को सौंप दिया। भारत में धीरे धीरे कई व्यापारिक केंद्र, कारख़ाने और अन्य चीज़े या तो बंद होने लगी थीं या फिर वहां की स्थिति बद से बदतर होने लगी थी।
अब सदरास क़िले पर धीरे-धीरे अंग्रेज़ों का कब्ज़ा होने लगा था और ज़्यादातर व्यापार वे ही कर रहे थे। इसमें डच लोगों की भागीदारी न के बराबर हो गई थी। इस बीच अंग्रेज़ों ने क़िले परिसर में मालगोदाम और अन्न भंडार जैसे भवनों की मरम्मत भी करवाई।
एक मार्च सन 1825 को हुई एंग्लो-डच संधि के तहत एक जून सन 1825 तक क़िला पूरी तरह अंग्रेज़ों के हाथों में आ गया। एक जून सन 1825 में डच ने अपनी सारी भारतीय बस्तियां अंग्रेज़ों को सौंप दी थीं। सन 1854 तक क़िले का इस्तेमाल एक छोटी सैन्य छावनी की तरह होता रहा, जहां ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने मालगोदाम और अन्न भंडार जैसे भवनों में मरम्मत का छोटा-मोटा काम करवाया था। इसके बाद पूर्वी भारतीय तट पर ब्रिटिश और फ़्रैंच कालोनियां (पुंडुचेरी और यानम) ही रह गईं थीं। सन 1858 के बाद क़िला वीरान हो गया और जर्जर हो गया।
सन 2000 से क़िले में खुदाई और मरम्मत का काम चल रहा है, जिससे क़िले और भारत में डच के इतिहास, उनके व्यापार और भवनों को बनाने में उनके द्वारा प्रयोग की गई वास्तुकला शैली के बारे में और जानकारियां मिल रही हैं। पास में ही प्रसिद्ध कालपक्कम एटॉमिक पॉवर स्टेशन और महाबलीपुरम मंदिर हैं लेकिन इसके बावजूद सदरास क़िले का अपना ही महत्व है, जो आपको यूरोपीय-सत्ता के दौर की एक और दुनिया में ले जाता है।
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