सन 1947 में पहला स्वतंत्रता दिवस समारोह भारत के इतिहास में महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक था। दिल्ली के ऐतिहासिक लाल क़िले में आयोजित इस समारोह में देश के नए युग की शुरुआत देखने के लिये देश की जानीमानी हस्तियां मौजूद थीं। इन लोगों में एक युवा शहनाई वादक भी मौजूद था जिसे देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने ख़ुद प्रदर्शन करने के लिए आमंत्रित किया था। ये शख़्स कोई और नहीं उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ां थे। बिस्मिल्लाह ख़ां देश के जानेमाने और चहेते संगीतकारों में माने जाते रहे हैं।
भारत में कोई भी पारंपरिक विवाह शहनाई की धुन के बिना अधूरा होता है। इतिहास पर नज़र डालें तो शहनाई वादक अमूमन ग़रीब पृष्ठभूमि से आते थे और इन्हें कोई ख़ास सम्मान भी नहीं मिलता था। राजा, महाराजाओं और ज़मींदारों की शादियों में शहनाई वादकों को हमेशा बुलाया जाता था। उनहें पहली या फिर दूसरी मंज़िल में बैठाया जाता था। वहीं बैठकर वह शहनाई बजाते थे ताकि शहनाई की आवाज़ से मेहमानों को परेशानी न हो। धीरे धीरे शहनाई वादकों को विवाह स्थल के प्रवेश द्वार पर बैठाया जाने लगा। लेकिन उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ां ने इस परंपरा की धारा मोड़ कर रख दी और देश भर में शहनाई वादकों को सम्मान दिलवाया।
उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ां का असली नाम क़मरुद्दीन ख़ां था। उनका नाम उनके दादा उस्ताद रसूल बक्श ख़ां ने रखा था। जब वह पैदा हुए थे तब उन्हें देखकर दादा ने धीरे से बिस्मिल्ला कहा था जिसका शाब्दिक अर्थ होता है अल्लाह के नाम पर। इस तरह उनका नाम बिस्मिल्लाह पड़ गया। बिस्मिल्लाह ख़ां का जन्म बिहार के दुमरांव में भीरुंग रावत की गली में, संगीतकारों के परिवार में, 21 मार्च सन 1916 को हुआ था। वह पिता पैग़म्बर ख़ां और मां मिठ्ठन की दूसरी औलाद थे। उन्हें प्यार से क़मरउद्दीन बुलाया जाता था जो उनके बड़े भाई शम्सउद्दीन से मिलता जुलता था।शम्सउद्दीन भी एक जाने माने शहनाई वादक थे।
बिस्मिल्लाह ख़ां के सभी पूर्वज भारत की रियासतों के दरबार में संगीतकार हुआ करते थे और उनके पिता पैग़म्बर ख़ां ख़ुद दुमरांव रियासत के महाराजा केशव प्रसाद सिंह के दरबारी संगीतकार थे। केशव प्रसाद कला और संस्कृति के बड़े संरक्षक थे। उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ां जब छह साल के थे तब उनका परिवार बनारस आ गया था, जहां उन्होंने अपने चचा स्वर्गीय उस्ताद अली बक्श “विलायत” से संगीत सीखा। अली बक्श “विलायत” शहनाई वादक थे जो बनारस के विश्वनाथ मंदिर से जुड़े हुए थे। उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ां अपने चचा के साथ मंदिर जाया करते थे और वहीं रियाज़ करते थे।
पारंपरिक रुप से शहनाई वादक बनारस शैली में कजरी, चैती, ठुमरी और दादरा जैसी हल्की धुन बजाया करते थे लेकिन बिस्मिल्लाह ख़ां ने शहनाई पर हल्की धुनों में राग बजाये। बिस्मिल्लाह ख़ां ने 14 साल की उम्र में पहली बार सन 1930 में, इलाहबाद में अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन में शहनाई बजाई। दूसरी बार उन्होंने लखनऊ में आयोजित संगीत समारोह में शहनाई बजाई जिसे बहुत सराहा गया और उन्हें स्वर्ण पदक भी मिला। लेकिन सन 1937 में कलकत्ता में अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन में जब उन्होंने शहनाई बजाई तब उन्हें एक प्रतिभाशाली संगीतकार के रुप में स्वीकार किया गया। इस सम्मेलन में उन्होंने तीन स्वर्ण हासिल किए थे । कलकत्ता में उनके शहनाई वादन ने लोगों का शहनाई वाद्य-यंत्र के प्रति नज़रिया बदल दिया।
इसके पहले शहनाई को एक लोक वाद्य-यंत्र माना जाता था लेकिन अचानक इसने भारतीय संगीत में अपनी जगह बना ली। दिलचस्प बात ये है कि बिस्मिल्लाह ख़ां मज़हब में आस्था रखने वाले मुसलमान थे लेकिन वह हिंदू और मुस्लिम दोनों समारोह में ख़ुशी ख़ुशी शहनाई बजाते थे। उन्हें धार्मिक सौहार्द या गंगा-जमुनी तहज़ीब का प्रतीक माना जाता था। उनका पक्का यक़ीन था कि ईश्वर तक पहुंचने का एक माध्यम संगीत भी है।
उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ां के संगीत मे कई रंग शामिल थे और वह जानते थे कि श्रोता क्या सुनना चाहते हैं। बहुत से लोगों को ये नहीं पता है कि उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ां को 15 अगस्त सन 1947 को पहले स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लाल क़िले पर शहनाई बजाने का गौरव प्राप्त हुआ था। इसके अलावा 26 जनवरी सन 1950 को भी उन्होंने भारत के पहले गणतंत्र दिवस समारोह में शहनाई वादन किया था। ख़ां साहब ने लाल क़िले की प्राचीर पर राग काफ़ी बजाया था जो स्वतंत्रता दिवस समारोह का अभिन्न अंग बन गया था और दूरदर्शन पर हर साल प्रसारित किया जाता है। लाल क़िले से प्रधानमंत्री के भाषण के बाद दूरदर्शन बिस्मिल्लाह ख़ां की शहनाई का प्रसारण करता आ रहा है।ये परंपरा पंडित नेहरु के समय में शुरु हुई थी।
कहा जाता है कि उनकी शहनाई में उस समय के देश के सभी महान गायकों की झलक मिलती थी। आकाशवाणी के लखनऊ केंद्र का शुभारंभ भी उनके शहनाई वादन से हुआ था और बहुत लंबे समय तक आकाशवाणी का हर केंद्र दिन की शुरुआत उनके शहनाई वादन से करता था। उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ां जानते थे कि उनकी शहनाई का श्रोताओं पर क्या असर पड़ता है। शहनाई वाद्य-यंत्र पर उनकी महारत की वजह से उन्हें विदेश से बुलावे आने लगे थे। उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान, ईरान, इराक़, कनाडा, अमेरिका, सोवियत संघ, जापान, हांगकांग और यूरोप के कई देशों की यात्रा कर वहां अपने शहनाई वादन से लोगों का मनोरंजन किया। उन्होंने विश्व के लगभग हर देश की राजधानी में शहनाई बजाई। ख़ां साहब ने एडिनबर्ग में कॉमनवेल्थ आर्ट्स फ़ेस्टिवल और कान्स में यूनेस्को सांस्कृतिक समारोह में भी शहनाई बजाई थी। भारत में ऐसा कोई संगीत महोत्सव या स्थान नहीं है जहां ख़ां साहब की शहनाई की गूंज नहीं सुनी गई हो।
सरोद वादक उस्ताद अमजद अली ख़ां ने अपनी किताब “मास्टर ऑन मास्टर्स” में भारतीय शास्त्रीय संगीत के कुछ महान संगीतकारों के जीवन और संगीत की दुनियां में उनके योगदान बारे में लिखा है। बिस्मिल्लाह ख़ां के बारे में वह लिखते हैं,“जिस तरह से उन्होंने अपने वाद्य-यंत्र, जो पहले सिर्फ़ शुभ अवसरों पर बजाया जाता था, की तकनीकी रैंज को बढ़ाया उस पर कुछ और कहने की ज़रुरत नहीं है। उन्हें शहनाई से इतना लगाव था कि उन्होंने इसके साथ बड़ी मेहनत की और नए नए प्रयोग भी किए। उन्होंने शहनाई से ऐसी चमत्कारी धुने निकालीं जिनके बारे में सोचा जाता था कि शहनाई में ये संभव नही है। उन्होंने मंदिरों में बजाये जाने वाले वाद्य-यंत्र को संगीत समारोह तक पहुंचा दिया।”
सन 1959 में उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ां ने हिंदी फ़िल्म गूंज उठी शहनाई के लिये शहनाई बजाई थी। उन्होंने सन 2004 में आई हिंदी फ़िल्म स्वदेस में भी शहनाई की मधुर तान बिखेरी थी। फ़िल्म इंडस्ट्री ने ख़ां साहब को ख़ूब प्रोमोट किया क्योंकि किसी भी फ़िल्म की सफलता में संगीत का बहुत महत्व होता है। जैसा कि हम जानते हैं कि शहनाई का संबंध विवाह से रहा है लेकिन फिल्म के संगीतकारों ने इस वाद्य-यंत्र का प्रयोग फ़िल्म के भावुक दृश्यों के लिये भी किया।
उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ां को सन 2001 में भारत रत्न के सम्मान से नवाज़ा गया था। इसके पहले उन्हें सन 1961 में पद्मश्री, सन 1968 में पद्म भूषण और सन 1980 में पद्म विभूषण भी मिल चुका था। वह उन चंद विशिष्ठ लोगों में से हैं जिन्हें इन सभी सर्वोच्च नागरिक सम्मान से सम्मानित किया गया। सन 1956 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी का भी अवार्ड मिला था। सन 1994 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी का सदस्य बनाया गया।
17 अगस्त सन 2006 को उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ां की तबीयत बिगड़ने लगी। उन्हें वाराणसी के अस्पताल में भर्ती कराया गया। इसके बाद दिल का दौरा पड़ने से उनका 90 साल की उम्र में 21 अगस्त सन 2006 में निधन हो गया।उन्हें पुराने वाराणसी शहर के फ़तेहमान क़ब्रिस्तान में उनकी शहनाई के साथ सुपुर्द-ए-ख़ाक किया गया। उन्हें सेना की तरफ़ से 21 तोपों की सलामी दी गई थी। उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ां न् बेहद सादगी से ज़िन्दगी गुज़ारी। उन्होंने अपनी शर्तों पर जीवन जिया। उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ां शहनाई युग के प्रतीक बन गए थे। उनका व्यक्तित्व और उनका संगीत उनके श्रोताओं के दिलों में हमेशा ज़िदा रहेगा।
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