वाजिद अली शाह (1847-1856) एक बहुत प्रतिभाशाली नवाब थे लेकिन उनकी किस्मत उतनी अच्छी नहीं थी । उन्हें विरासत में ऐसी रियासत मिली थी जिसे अंग्रेज़ों ने कमज़ोर कर दिया था। वाजिद अली शाह सही मायने में प्रशासक न होकर महज़ बराय नाम नवाब थे। वह बतौर शासक तो सफल नहीं हो सके लेकिन उन्होंने कला और संस्कृति को बहुत संरक्षण दिया। उन्होंने आज के लखनऊ के दिल में बसने वाले अवध में ऐसे सामाजिक और सांस्कृतिक सुधार को बढ़ावा दिया जिनके दूरगामी परिणाम निकले।
अवध के दसवें और आख़िरी नवाब वाजिद अली शाह ख़ुद एक शायर, नाटककार, लेखक और यहां तक कि कथक नृतक थे। नवाबी दौर के उनके शासनकाल में उनकी रियासत को उत्तर भारत की सांस्कृतिक राजधानी माना जाता था। लेकिन अन्य कलाकारों की तरह वाजिद अली शाह भी खुशमिजाज़ थे और सुंदरियों से घिरे रहते थे। लखनऊ में अगर आप भातखंडे संगीत विद्यालय के सभागारों में जाएं तो आपको आज भी वहां ठुमरी गाते हुए उनकी पसंदीदा परियों की झलक देखने को मिलेगी।
ध्यान रहे कि ये परियां काल्पनिक नहीं थीं। नवाब की परियां, युवतियां होती थीं जिन्हें गायिकाओं और नृतकियों के रुप में बड़ी मेहनत से तैयार किया जाता था और जो बाद में दरबार की तवायफ़ बन जाती थीं। भातखंडे संगीत विद्यालय उन्हीं की धरोहर है जो आज भारतीय शास्त्रीय संगीत में अपने योगदान के लिये विश्व में एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय माना जाता है। ये विद्यालय परीख़ाने में है जो नवाब की परियों के आलीशान घर और सभागार होते थे जहां परियां शाही मेहमानों के सामने नाच गाने के लिये अभ्यास करती थीं।
क़ैसरबाग़ – शहर के अंदर शहर
वाजिद अली शाह ने सन 1847 में सत्ता संभलने के बाद, शहर के भीतर ही एक और शहर क़ैसरबाग़ बनवाया था। यहां परीख़ाने के अलावा और भी कई भवन और संस्थान थे। क़ैसरबाग़ के निर्माण में 80 लाख रुपये ख़र्च हुए थे। इस लागत में फ़र्नीचर और साज सज्जा पर होने वाला ख़र्च भी शामिल था। क़ैसरबाग़ एक विशाल परिसर था जिसमें एक शानदार महल, सुंदर बाग़, बड़े पवैलियन, बड़े अहाते, रौनक़ वाला बाज़ार, बड़े प्रवेश द्वार, एक मस्जिद, गुंबद और परीख़ाना था।
सन 1857 के बग़ावत के बाद अंग्रेज़ों ने क़ैसरबाग़ को तहस नहस कर दिया था और अब इसके कुछ हिस्से ही बाक़ी रह गए हैं। इन इमारतों के बीच के इलाक़ों में अब बेतरतीब तरीक़े से आबादी हो गई है और नवाबी दौर के स्मारक उदासीनता, अनदेखी और अतिक्रमण के बीच अपने वजूद को बचाने की जद्दोजहद करते नज़र आते हैं। लेकिन चूंकि परीख़ाना को संगीत विद्यालय में बदल दिया गया था, इसलिये ये बचा रह गया।
नवाब वाजिद अली शाह के परीख़ाने की वास्तुकला बहुत बेहतरीन है। परीख़ाने का केंद्रीय सभागार फ़ानूस से जगमगाता है। संगमरमर के अहाते में मिट्टी के सुंदर गुलदान हैं। कुल मिलाकर ये खुले आसमान के नीचे नाचगाने के लिये एकदम माक़ूल जगह है जहां कभी नवाब का उनकी परियां मनोरंजन किया करती थीं।
परीख़ाने के बाहर संगमरुर पुल है जिसके नीचे एक नहर है। एक समय इस नहर का पानी क़ैसर बाग़ परिसर के बड़े बाग़ों के लिये इस्तेमाल किया जाता था। नहर के साथ साथ आदम-क़द मूर्तियां और ऊंचे लैंप पोस्ट हैं। शाम को जब नवाब यहां आते थे तब ये जगमगा उठते थे।
परीख़ाने का काम काज ख़ुद वाजिद अली शाह की देख रेख में होता था । उनकी जवान और ख़ूबसूरत परियां अमूमन तवायफ़ों के परिवार से आती थीं। इन परियों का संबंध लखनऊ के तीन समुदायों में से एक समुदाय से था। एक समुदाय पंजाब और दिल्ली के कंचन कबीले से था। इस समुदाय की तवायफ़ें जिस्मफ़रोशी का काम करती थीं। दूसरे समुदाय में चूनावालियां होती थी जो चूनामोर बेचा करती थीं। इस वर्ग में चूनावाली हैदर सबसे मशहूर तवायफ़ थी जिसकी बहुत सुरीली आवाज़ थी। तीसरा समुदाय गुजरात के नागरांत आदिवासियों का होता था।
परियों का काम ख़ासतौर पर नाचना गाना होता था और उनके गुरु भी यहां क्वार्टर में रहते थे। लेकिन परीख़ाना में सिर्फ़ नाचगाना ही नहीं होता था। यहां तवायफ़ बनने वाली लड़कियों को तमहीज़ तेहज़ीब भी सिखाई जाती थी ताकि वे न सिर्फ़ अपने गाने और नृत्य से बल्कि अपने तौर तरीक़ों से भी नवाबों को प्रभावित कर सकें।
तवायफ़ बनने वाली लड़कियां और उनके गुरु ज़नख़ों और महिला संतरियों के साथ रहते थे। ये महिला संतरी मार्शल आर्ट और हथियार चलाने में माहिर होती थीं। इनका काम परीख़ाने की हिफ़ाज़त करना होता था। अपनी किताब “ बन्नी “ में नवाब वाजिद अली शाह ने परीख़ाने में विभिन्न वर्गों में तैनात 192 महिला कलाकारों का उल्लेख किया है। अगर इन महिलाओं में से किसी महिला के साथ नवाब व्यक्तिगत सबंध बनाना चाहते थे तो वह उसके साथ मुताह (अस्थाई शादी) करते थे और अगर महिला उनसे गर्भवती हो जाती थी तो उससे निकाह कर लेते थे।
मारिस कॉलेज के रुप में परीख़ाना
अंग्रेज़ों ने जब अवध में क़ैसरबाग़ और अन्य महत्वपूर्ण स्मारकों को तहस नहस किया तो सौभाग्य से परीख़ाना बच गया। बाद में अंग्रेज़ अफ़सर सर लॉरेंस ने इसे म्यूज़िक स्कूल में बदल दिया। कैनिंग कॉलेज, जिसे बाद में लखनऊ विश्वविद्यालय के रूप में अपग्रेड किया गया था, मूल रूप से 1878 में परिखाने मे ही स्तिथ था।
सन 1926 में यहां पंडित विष्णु नारायण भातखंडे ने लखनऊ के संगीत के संरक्षक राय उमानाथ बाली, राय राजेश्वर बाली तथा अन्य लोगों की मदद से यहां संगीत विद्यालय की स्थापना की और इस तरह संगीत और नृत्य की परंपरा फिर शुरु हुई। कॉलेज का उद्घाटन तब अवध के गवर्नर सर विलियम मारिस ने किया था और इसका नाम मारिस कॉलेज ऑफ़ म्यूज़िक रखा गया था।
पंडित भातखंडे भारतीय संगीत वैज्ञानिक थे जिन्होंने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत पर पहली आधुनिक किताब लिखी थी। ये किताब भारतीय शास्त्रीय संगीत का उत्तर भारतीय रुप था। भारतीय शास्त्रीय संगीत एक ऐसी कला थी जो मौखिक परंपराओं के ज़रिये सदियों में विकसित हुई थी।सन 1966 में उत्तर प्रदेश सरकार ने इस कॉलेज को अपने अधिकार क्षेत्र में लेकर इसका नाम इसके संस्थापक के नाम पर भातखंडे कॉलेज ऑफ़ हिंदुस्तानी म्यूज़िक रख दिया। जब अकादमी एक मानद विश्वविद्यालय बन गया तो सन 2000 में इसका नाम भातखंडे संगीत विद्यालय रख दिया गया।
आज इस संस्थान में विश्वभर से छात्र आते हैं। यहां संगीत में डिप्लोमा, प्रदर्शन-कला में बैचलर और मास्टर्स डिग्री कोर्स होता है। इसके अलावा यहां से संगीत में डॉक्टर की उपाधी भी मिलती है। संस्थान से कई नामी गिरामी संगीतकार जुड़े हुए हैं। संस्थान ने भारतीय शास्त्रीय संगीत पढ़ाने का तरीक़ा ही बदलकर रख दिया है और यहां के प्रख्यात पूर्व छात्र पूरी दुनियां में फैले हुए हैं।
जिन संगीत परंपराओं पर ये संस्थान आधारित है उसकी बुनियाद एक ऐसे नवाब ने डाली थी जिसने उत्तर भारत में प्रदर्शन-कलाओं पर अमिट छाप छोड़ी । वाजिद अली शाह ख़ुद संगीतकार और शायर थे। उन्हें कथक के लखनऊ घराने का संस्थापक और संरक्षक माना जाता है। उन्होंने ख़ुद अपनी ठुमरियां तैयार कीं जो आज भी कथक का अहम हिस्सा हैं।
सन 1856 में अंग्रेज़ो ने वाजिद अली शाह को कलकत्ता निर्वासित कर दिया था । कलकत्ता में भी उन्होंने अपने प्रिय अवध का एक छोटा-सा रुप पैदा करने की कोशिश की।
अगले बीस वर्षों में वाजिद अली शाह का जीवन छिन्न भिन्न हो गया लेकिन सैंकड़ों मील दूर उस जगह जिसे वह कभी अपना घर कहते थे, वहां उनकी सांस्कृतिक विरासत ज़िंदा रही। जो काम भातखंडे संगीत संस्थान कर रहा है, उसे अगर वाजिद अली शाह ने देखा होता तो निश्चय ही उन्हें गर्व होता।
हम आपसे सुनने को उत्सुक हैं!
लिव हिस्ट्री इंडिया इस देश की अनमोल धरोहर की यादों को ताज़ा करने का एक प्रयत्न हैं। हम आपके विचारों और सुझावों का स्वागत करते हैं। हमारे साथ किसी भी तरह से जुड़े रहने के लिए यहाँ संपर्क कीजिये: contactus@livehistoryindia.com
Join our mailing list to receive the latest news and updates from our team.