50 के दशक में द्वतीय विश्व युद्ध और सन 1943 के बंगाल आकाल के बाद भारत में वनस्पति और कृषि क्षेत्र की हालत बहुत ख़राब हो गई थी और इसे फ़ौरन ठीक करने की ज़रुरत थी। ऐसे में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने बोटैनिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया को पुनर्जीवित करने के बारे में सोचा और वह चाहते थे इस संस्था की ज़िम्मेदारी सबसे श्रेष्ठ वनस्पति बैज्ञानिक को दी जाए। सो, जानकी अम्मल को संस्थान का नेतृत्व करने का निमंत्रण भेजा गया। जानकी वनस्पति विज्ञान के क्षेत्र में देश और विदेश में अपना लोहा पहले ही मनवा चुकी थीं। जानकी भारत की पहली वनस्पति वैज्ञानिक थीं। इस पद के लिये उनसे बेहतर कोई और हो ही नहीं सकता था।
20वीं शताब्दी में, जब भारत में शिक्षा और विवाह के क्षेत्र में महिलाओं के अधिकारों के लिये संघर्ष चल रहा था तब जानकी नाम की लड़की वनस्पति विज्ञान के क्षेत्र जुड़ चुकी थी। 30 के दशक में जानकी ने इस क्षेत्र में एक ज़बरदस्त खोज की जिसके लिये आज भी उन्हें याद किया जाता है। वह तमिलनाडु के कोयम्बतूर शहर में गन्ना उगाने वाले संस्थान के साथ काम कर रही थीं जो भारत में गन्ने की क़िस्म को बेहतर बनाने की दिशा में काम कर रहा था, उस समय गन्ना दक्षिण एशिया से आयात किया जाता था। जानकी ने गन्ने की एक ऐसी क़िस्म तैयार की जो न सिर्फ़ स्वाद में ज़्यादा मीठी थी बल्कि भारत के मौसम के अनुकूल भी थी। उनके शोध ने, भौगोलिक स्थितियों के अनुसार देश के अलग अलग क्षेत्रों में, गन्ना उत्पादन के बारे में जानकारी हासिल करने में महत्वपूर्ण मदद की।
जानकी केरल के एक छोटे से शहर से आईं थीं। उनका जन्म नवंबर सन 1897 में तेलीचेरी में हुआ था जो अंग्रेज़ शासन के दौरान मद्रास रियासत में हुआ करता था। उनके परिवार में 19 भाई-बहने थीं और उनका नंबर दसवां था। उनके पिता दीवान कृष्णन सब जज थे और उन्होंने प्रकृतिक विज्ञान में जानकी की रुचि पैदा करने में अहम भूमिका निभाई थी। उन्होंने अपने घर में एक बाग़ीचा लगाया था और अक्सर इस क्षेत्र की वनस्पतियों और जीवजंतुओं के बारे में जानकी से चर्चा करते थे और इस तरह जानकी की भी इनमें दिलचस्पी पैदा हो गई।
उस ज़माने में महिलाओं के लिये शिक्षा हासिल करना बहुत मुश्किल काम था। क्योंकि तब शिक्षा पाने का अधिकार कुछ ख़ास वर्ग के लोगों को ही था। लेकिन इस क्षेत्र में एक ईसाई स्कूल खुलने के बाद स्थिति में कुछ सुधार हुआ। जानकी ने सैकरेड हार्ट गर्ल्स स्कूल में पढ़ाई की जो सिर्फ़ लड़कियों के लिये था। इसी समय गवर्नर थॉमस मनरो की अगुवाई में मद्रास रियासत में शिक्षा के क्षेत्र में सुधार चल रहा था। इस सुधार की वजह से महिलाओं के लिये उच्च शिक्षा के दरवाज़े खुल गए थे।
जानकी ने इसके बाद मद्रास में क्वीन मेरी कॉलेज से स्नातक और 1921 में वनस्पति शास्त्र में प्रेसीडेंसी कॉलेज से ऑनर्स की डिग्री हासिल की। शायद यहीं उन्हें शिक्षकों से कोशिका जनन विषय पर अध्ययन करने की प्रेरणा मिली। ये ऐसा विषय था जिसमें उन्होंने बाद में महारत हासिल की।
ऑनर्स की डिग्री हासिल करने के बाद वह मद्रास के महिला क्रिश्चियन कॉलेज में पढ़ाने लगीं। सन
1921-1923 के दौरान उन्होंने वनस्पति प्रदर्शक के रुप में काम किया। पढ़ाने के दौरान ही उन्हें
प्रतिष्ठित बारबौर स्कॉलरशिप मिली जो अमेरिका में मिशिगन यूनिवर्सिटी में एशियाई देशों की महिलाओं के लिये स्नातक की पढ़ाई करने के उद्देश्य से शुरु की गई थी। यूनिवर्सिटी में उन्होंने पादप कोशिका विज्ञान पर भी ध्यान देना शुरु किया। सन 1925 में जानकी ने यूनिवर्सिटी से मास्टर्स की डिग्री हासिल की। सन 1931 में उन्हें डॉक्टरेट की उपाधि मिली और वह अमेरिका में वनस्पति विज्ञान में डिग्री हासिल करने वाली पहली भारतीय महिला बन गईं। यूनिवर्सिटी में जब वह डॉक्टरेट कर रही थीं तभी उन्होंने द्विजाति (क्रॉस-हाईब्रिड) विकसित की जो “जानकी ब्रेंजल” का नाम से जाना जाता है। ये बैंगन की एक क़िस्म होती है।
जानकी जब भारत वापस आईं तो उन्होंने सन 1932-1934 के बीच तिरुवानंतपुरम के हिज़ हाईनेस महाराजा कॉलेज में वनस्पति विज्ञान के प्रोफ़ेसर के रुप में काम किया। इसके बाद वह कोयम्बटूर के शुगरकेन ब्रीडिंग इंस्टीट्यूट में चली गईं, जहां उन्होंने सन 1939 तक काम किया। यहां उन्होंने गन्ना उत्पादन के क्षेत्र में भारत की आत्मनिर्भरता के लिये महत्वपूर्ण योगदान दिया।
अगले कुछ साल जानकी के जीवन के महत्वपूर्ण साल रहे । दूसरे विश्व युद्ध (1939-45) के दौरान उन्होंने लंदन के जॉन इन्स हॉर्टिकल्चर इंस्टीट्यूशन में बतौर सहायक कोशिका वैज्ञानी के काम किया। युद्ध की वजह से उन्हें लंदन में कुछ साल रुकना पड़ा जो उनके करिअर में बहुत महत्वपूर्ण साबित हआ। इस दौरान उन्हें वैज्ञानिक सैरिल डीन डार्लिंग्टन के साथ काम करने का मौक़ा मिला जिन्हें क्रोमोसोम और इनके रचनातंत्र के सूक्ष्म अध्ययन का श्रेय दिया जाता है। डार्लिंग्टन के साथ पांच साल मिल कर काम करने के बाद उन दोनों ने क्रोमोसोम एटलस ऑफ़ कल्टीवेटेड प्लांट्स नाम की किताब लिखी जो आज भी वनस्पतिशास्त्रियों के लिये एक महत्वपूर्ण किताब मानी जाती है।
प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु के आग्रह पर जानकी भारत वापस आ गईं और भारत सरकार के विकास कार्यों में जुट गईं जहां उनकी भूमिका प्रशासनिक होती थी। सन 1955 में वह लखनऊ में सेंट्रल बोटनिकल लेबोरैट्री की प्रमुख बन गईं। अगले कुछ सालों तक जानकी ने भारत में वनस्पति विज्ञान पर शोध को बेहतर बनाने पर काम किया। इस काम में उन्होंने भारतीय विश्विद्यालयों और अन्य संस्थानों के साथ सहयोग किया।
अपने जीवन के बाद के वर्षों में उन्होंने पर्यावरण और देसी पौधों के संरक्षण के लिये काम किया| वह
साइलेंट घाटी आंदोलन में भी सक्रिय रहीं। ये आंदोलन पनबिजली परियोजना के ख़िलाफ़ था क्योंकि लोगों को लगता था कि इससे केरल के साइलेंट घाटी के जंगलों में बाढ़ आ सकती थी। इन जंगलों में जैव विविधता की भरमार थी।
उस युग में किसी महिला के लिये जानकी जैसी उप्लब्धियां हासिल करना आसान नहीं था। जीवन के अलग अलग दौर में उन्हें लिंग और जातिगत भेदभाव का भी सामना करना पड़ा था लेकिन इससे वह हताश नहीं हुईं। वनस्पति विज्ञान के क्षेत्र में शोध और इसके विकास में उनके योगदान के अलावा उन्होंने कई अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में लेख लिखे । उन लेखों ने जानकी को उस समय के प्रतिष्ठित वनस्पति वैज्ञानिकों की क़तार में ला खड़ा किया। सन 1935 में इंडियन एकेडमी ऑफ़ साइंसेज़ ने उन्हें फ़ैलोशिप देकर सम्मानिक किया था। ये केंद्र सीवी रमण ने शुरु किया था। सन 1957 में नैशनल साइंसेज़ एकेडमी ने भी फ़ैलोशिप से सम्मानित किया था। सन 1956 में मिशिगन यूनिवर्सिटी ने उन्हें एल.एल.डी. की मानद उपाधि से सम्मानित किया था। सम्मानों का सिलसिला चलता रहा और सन 1957 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री की उपाधी से भई सम्मानित किया।
सन 2000 में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने उनके नाम पर नैशनल अवार्ड ऑफ़ टैक्सोनॉमी स्थापित किया जो बहुत प्रतिष्ठित माना जाता है। जम्मू में एक वनस्पति संग्रहालय भी उनके नाम पर है जहां देश भर के पौधों की क़रीब 25 हज़ार क़िस्में मौजूद हैं। उनके नाम पर दो फूलों के नाम भी रखे गए हैं- भारत में पैदा होने वाले पीले गुलाब की एक क़िस्म को ई.के.जानकी अम्मल और लंदन के विज़ले गार्डन में मैगनोलिया सफ़ेद फूल की एक क़िस्म को मैगनोलिया कोबुस ( हिम चम्पा ) जानकी अम्मल के नाम से जाना जाता है। इन फूलों में आज भी वनस्पति विज्ञान में जानकी के योगदान की ख़ुशबू आती है।
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