चांदी, सोने, कांसे और धातु पर क़लमकारी के लिए मशहूर बीदर धातुकला भारतीय धातुकला का एक प्राचीन रुप है। इसका नाम बहमनी सुल्तानों की राजधानी बीदर के ही नाम पर पड़ा है। इस धातुकला में फ़ारसी, तुर्की और इस्लामिक संस्कृति की झलक मिलती है। बिदरी धातुकला 14वीं शताब्दी की है और इसका संबंध उस जगह से है जहां बीदर क़िला है।
ऐसा माना जाता है कि ईरान के प्रसिद्ध शिल्पी अब्दुल्लाह बिन क़ैसर को सुल्तान अहमद शाह बहमनी (1422-1436) ने बीदर के शाही महलों और दरबारों को सजाने के लिये बुलाया था। इस काम के लिये अब्दुल्लाह ने एक स्थानीय सुनार की मदद ली और यहीं से बिदरी धातुकला का जन्म हुआ। सुल्तान अहमद शाह बहमनी के शासनकाल के दौरान बीदर विश्व के धातु कलाकारों पीढ़ियों तक बिदरी धातुकला बीदर और बाद में हैदराबाद के लोगों के लिये रोज़गार का ज़रिया रही है जहां आज भी कला की ये धरोहर जीवित है।
दक्कन में बहमनी पहले इस्लामिक शासक थे। सन 1347 में यहां बहमनी शासन की स्थापना के बाद दक्किनी संस्कृति के एक नये युग की शुरुआत हुई। इसका प्रभाव वास्तुकला, शिल्प और अन्य कलाओं में देखा जा सकता था।
बहमनी शासकों की राजधानी पहले गुलबर्गा हुआ करती थी। इसके बाद वे 15वीं ई. में बीदर आ गए और यहीं बिदरी धातुकला फली फूली। इसका नमूना आप बीदर क़िले में देख सकते हैं जहां तीस से ज़्यादा मदरसे, मस्जिदें और मेहराबदार पथ हैं। बिदरी धातुकला बीदर में, बीदर क़िले के भीतर और अन्य स्थानों में अंकित डिज़ायन से प्रभावित लगती है। अली वारिद शाह के बनवाये गये रंगीन महल में लकड़ी और खंबों पर ज्यामितीय और पुष्प रुपांकन देखे जा सकते हैं। रंगीन महल के अंदर फ़ारसी हस्तलिपी में मोतियों के जड़ाऊ-काम भी है।
मेहमूद गवां के मदरसे में बिदरी धातुकला के अनुसार ही क़ुरान की आयतें सुशोभित है।
बिदरी धातुकला, अश्तुर के बहमनी मक़बरों के भीतर वॉल पैंटिंग्स से प्रभावित लगती है, ख़ासकर सुल्तान अहमद वली शाह के मक़बरे की वॉल पैंटिंग्स से ऐसा ही लगता है। वली शाह के मक़बरे की दीवारें यूं लगती हैं जैसे ईरानी क़ालीन में लिपटी हों। मक़बरे की मेहराबों के किनारों पर काले पत्थर पर उंकेरी गई डिज़ाइन हैं जो बिदरी धातुकला में उंकेरे जानी वाली प्रक्रिया की याद दिलाती है। हज़रत ख़लील-उल्लाह का मक़बरा चौखंडी एक ताज के आकार का मक़बरा है। इसमें काले पत्थर पर फ़ारसी हस्तलिपि में सुंदर नक़्क़ाशी की हुई हैं जो बिदरी कला से मेल खाती हैं।
पुरस्कृत बिदरी कलाकार मॉ क़रीमुद्दीन से सुनिए बिदरी के इतिहास के बारे में
दरअसल धातुकला में बहुत कौशल की ज़रुत होती है और समय भी बहुत लगता है। बिदरी धातुकला से किसी धातु को रुप देने में आठ चरणों से गुज़रना होता है। पहले चरण में धातु को वैसा रुप दिया जाता है जैसी चीज़ बनाना है, जैसे बर्तन या डिब्बा। इसके बाद इसे चिकना किया जाता है और फिर छेनी से इस पर आकृति तराशी जाती है। आकृति जितनी पेचीदा होगी, उसी अनुसार इसमें समय लग सकता है। इसके बाद शुद्ध चांदी की चादर या तारों पर जड़ाई का काम होता है। इसके बाद फिर इसे चिकना किया जाता है। अंतिम चरण में काले रंग का प्रयोग किया जाता है। दिलचस्प बात ये है कि बिदरी धातुकला के कारीगर इसे बनाने में अम्लीय मिट्टी का इस्तेमाल करते हैं जो सिर्फ़ बीदर क़िले में ही मिलती है। ये मिट्टी बिदर में बनने वाली वस्तुओं के ऑक्सीकरण के लिये ज़रुरी होती है। इससे वस्तू को एक ख़ास तरह का काला रंग मिलता है। ये पूरी प्रक्रिया हाथों से ही की जाती है।
बिदरी-चीज़ों के लिये इस्तेमाल की जाने वाली सामग्री ख़ास होती है। बेस के लिये 90 प्रतिशत जस्ता और 10 प्रतिशत कांसा इस्तेमाल किया जाता है। फिर अंरडी के तेल और रेज़िन से बनाई गई बीदर मिट्टी से आकार बनाया जाता है। इसके बाद पिघले धातु को सांचें में ढ़ाला जाता है। फिर स्थाई काली कोटिंग के लिये इसमें कॉपर सल्फ़ेट भरकर चिकना किया जाता है। इसके बाद हाथ से इस पर डिज़ाइन बनाई जाती है।
बिदरी धातुकला दो तरह की होती है। पहली कला में धातु पर अंकित डिज़ाइन को भरने के लिये चांदी के तारों का इस्तेमाल किया जाता है। ये काम छेनी और हथोड़ी से किया जाता है। चांदी के तारों से भराई को ताराकशी और धातु की चादर पर भराई को तहनिशा कहते हैं। जटिल और पेचीदा काम को मेहताबी काम कहा जाता है। इसमें धातु की चादर पर डिज़ाइन बनाकर उस पर जड़ने का काम किया जाता है। गुलकारी के काम को मुन्नायतकारी कहा जाता है। इसके बाद आकृति को तब तक घिसा जाता है जब तक कि उसमें चमक पैदा न हो जाए। काली कोटिंग को गाढ़ा करने के लिये नारियल के तेल से पॉलिश की जाती है।
बीदर मिट्टी को लेकर कई कहानियां हैं। कहा जाता है कि ये मिट्टी बीदर क़िले के एक स्थान विशेष से ली जाती है। ये वो स्थान होता है जहां बरसों तक न तो सूरज की किरणें पड़ी होती हैं और न ही उस पर बारिश का पानी पड़ा होता है। इससे ये मिट्टी ऑक्सीकारक हो जाती है। कुछ कारीगरों का ये भी मानना है कि क़िले के जिस हिस्से की मिट्टी इस्तेमाल की जाती है वहां पहले खान हुआ करती थी इसलिये मिट्टी में धातु मिला होता है जिसकी वजह से ये मिट्टी उनूठी है। बीदर मिट्टी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसका परीक्षण कारीगरों ने किया है। इसे अमोनियमय क्लोराइड में मिलाकर पेस्ट बनाया जाता है जिसे नवसरम कहते हैं। नवसरम को बर्तन पर घिसा जाता है जिससे बर्तन के बेस का रंग चमकीला काला हो जाता है लेकिन अंदर का चांदी का काम एकदम अछूता और चमकदार बना रहता है।
अशर्फ़ी की बूटी, पत्तियां, बेल-बूटे, ज्यामितीय डिज़ाइन, फूल-पौधे आदि लोकप्रिय डिज़ाइन हैं। पूरे विश्व में ईरानी गुलाब और अरबी में हाथ से लिखी ( ख़त्ताती) क़ुरान की आयतों की डिज़ाइन की बहुत मांग होती है।
बिदरी कलाकृतियों में हुक़्का, आफ़्ताबा, सुराही, मुक़ाबस और क़ालीन के ऊपर रखे जाने वाले मीर-ए-फ़र्श जैसे उत्पाद पारंपरिक हैं। आधुनिक उत्पादों में चाबी रखने का गुच्छा, ऑफ़िस की स्टेशनरी, एश ट्रे, छोटी मूर्तियां, ज़ेवर रखने के बक्से और यहां तक कि यूएसबी ड्राइव के कवर भी शामिल हैं।
मोहम्मद शफियुद्दीन बिदरी धातुकला से 25-30 सालों से जुड़े हुए हैं जो उन्हें उनके पूर्वजों से विरासत में मिली है। उनके पूर्वज 70-80 साल पहले बिदरी धातुकला से बर्तन बनाते थे। वह बताते हैं कि आज बिदरी धातुकला के उत्पादों की मांगतो बहुत है लेकिन चूंकि इसमें बहुत मेहनत और समय लगता है इसलिये नयी पीढ़ि का रुझान इसमें कम है।
सन 1983 में विक्टोरिया एंड एल्बर्ट म्यूज़ियम ने लंदन में “कोर्ट लाइफ़ एंड आर्ट्स अंडर मुग़ल रुल” विषय पर बिदरी धातुकला की प्रदर्शनी लगाई थी। अफ़सोस की बात यह है कि भारतीय अतीत का यह महान चित्रण
ब्रिटेन को तो दिखाया गया लेकिन भारत में प्रदर्शित नहीं किया गया क्योंकि कुछ लोगों को लगा कि इस नुमाइश में दर्शाई गईं चीज़े भारत से लूटकर लाई गईं थीं।
सन 1656 में बीदर शहर और क़िले पर औरंगज़ेब के कब्ज़े के बाद, बीदर पर 18वीं शताब्दी के मध्य तक मुग़लों का दबदबा रहा। इसके बाद से बिदरी धातुकला पर मुग़लों का प्रभाव देखा जा सकता है। कहा जाता है कि मुग़ल के समय के अफ़ीम के फूलों की कला कृतियां बहुत सुंदर होती थीं और बिदरी धातुकला में इसका ख़ूब प्रयोग किया गया है।
बीदर सुबह के नक्शे में कारीगरों को हुक़्के पर फूलों की नक़्काशी करते दिखाया गया है। नक्शे में इसके अलावा बिदरी धातुकला के कई नमूने हैं जो 17वीं शताब्दी के हैं।
18वीं शताब्दी के आरंभ से लेकर 20वीं शताब्दी के मध्य तक असिफ़जाही शासकों के शासनकाल तक बिदरी उद्योग ख़ूब पनपा। तब तक हैदराबाद, दक्कन की नयी राजधानी बन चुका था और बीदर से कारीगर हैदराबाद चले गए थे। लेकिन 19वीं शताब्दी में एक ही तरह के पैटर्न और कलाकृतियों की वजह से बिदरी धातुकला में गिरावट आ गई।
आज इस कला को बमुश्किल 150 कारीगर आगे बढ़ा रहे हैं जिनमें ज़्यादार बीदर कालोनियों में रहते हैं। बीदर के अलावा हैदराबाद में 20-25 कारीगर इस कला से जुड़े हुए हैं। स्थानीय लोगों के लिये ये कला लगभग विलुप्त हो चुकी है क्योंकि नयी पीढ़ि की इसमें कोई दिलचस्पी नही है।
इस विलुप्त होती कला को को फिर जीवत करने के लिये कई सहकारी, सरकारी और ग़ैर-सरकारी संगठन काम कर रहे हैं लेकिन कारीगरों को इससे कोई मदद नहीं मिल रही है, उन्हें कोई रोज़गार नहीं मिल रहा है। आज बिदरी धातुकला के उत्पाद सिर्फ़ विदेशी सैलानी तोहफ़े देने के लिये ख़रीदते हैं।
आज बिदरी कला को दोबारा जीवित करने, उसके गौरवशाली अतीत को संरक्षण देने के और नई तक्नीकों के साथ जोड़कर आगे बढ़ाने की अवश्यकता है। साथ ही कलाकारों की होसला अफ़ज़ाई की भी सख़्त ज़रूरत है।
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