भारत के प्राचीन क़िलों में रोहतास गढ़ क़िले का नाम प्रमुखता से आता है जिसके साथ अयोध्या के पौराणिक राजा हरिश्चंद्र के पुत्र रोहिताश्व सहित गौड़ राजा शशांक, खरवार राजा प्रताप धवल, सूरी-वंश के संस्थापक शेरशाह सूरी और शहंशाह अकब़र के सेनापति राजा मान सिंह के नाम जुड़े हैं।
बिहार के रोहतास ज़िले की सोन-घाटी में कैमूर की पहाड़ी पर 1500 फ़ुट की ऊंचाई पर स्थित रोहतास गढ़ का क़िला सदियों से शक्ति, साहस और श्राष्ठता के प्रतीक के रूप में शान से खड़ा है। क़िले और दुर्ग सरीखे शब्दों को सार्थक करता हुआ, देश का यह प्राचीनतम व विशालतम यह क़िला अपने दुश्मनों के लिये हमेशा चुनौती बना रहा। इसको कोई भी सीधी लड़ाई करके नहीं जीत सका है। इतिहास गवाह है कि अफ़गान योद्धा शेरशाह ने भी छल से ही इस पर कब्ज़ा किया था।
ज़िला मुख्यालय रोहतास से रोहतास गढ़ की पहाड़ी की तलहटी तक पहुंचने में दो घंटे का समय लगता है। फिर यहां स्थित मेधा घाट से पहाड़ को काटकर बनी सीढ़ियों की चढ़ाई डेढ़ घंटे में पूरी कर क़िले की चहारदीवारी तक पहुंचा जा सकता है। एक-दो स्थानों से वाहन से भी जाने के भी रास्ते हैं।
दुर्गम है रोहतास गढ़ का क़िला
बुलंद प्रवेश-द्वारों, मज़बूत प्राचीरों, परकोटों, मीनारों, बुर्जों तथा तंग मार्गों की विशिष्ट संरचना व विस्तृत पहाड़ियों, दर्रों, घाटियों, खड़ी चट्टानों तथा घने जंगल एवं हिंसक पशुओं से घिरा यह क़िला सदैव अपराजेय रहा है।
रोहतास की सोन-घाटी से निकलकर सोनभद्र (उत्तर प्रदेश) होते हुए विंध्य पर्वतमाला तक तथा दक्षिण में छोटा नागपुर पठार तक फैली कैमूर की पहाड़ियां इस क्षेत्र में जटिल भौगोलिक परिवेश का निर्माण करती हैं। इसे सामरिक दृष्टि से विशिष्ट सुरक्षा प्रदान करती है।
आज सोनभद्र क्षेत्रफल की दृष्टि से उत्तर प्रदेश का दूसरा बड़ा ज़िला है और अत्यधिक पावर प्लांट के कारण इसकी प्रसिद्धि ‘इनर्जी कैपिटल आफ़ इंडिया’ के रूप में है। इसके विंध्य एवं कैमूर पर्वत श्रृंखलाओं के बीच स्थित होने के कारण, पुराने दिनों में सुरक्षा की दृष्टि से रोहतास की तुलना में यह उतना मुफ़ीद नहीं था। विंध्य पर्वत माला के पूर्वी भाग में 483 कि.मी. के विस्तार में फैली कैमूर पहाड़ी, जिसपर रोहतास गढ़ का क़िला मौजूद है, चारों ओर से पहाड़ियों, नदियों, दर्रों, घाटियों से घिरा होने के कारण ज़्यादा सुरक्षित था।
कई उतार-चढ़ावों का रहा है साक्षी
देश में ब्रिटिश युग की शुरुआत के पहले तक पूर्वोत्तर भारत में शक्ति के केंद्र के रूप में प्रतिष्ठित रहे रोहतास गढ़ के क़िले ने अपने लम्बे अतीत और इतिहास के दौर में जहां अयोध्या के पौराणिक राजा हरिश्चंद्र के पुत्र रोहिताश्व के प्रताप देखे हैं, तो वहीं अपने मित्र की कुटिल चाल की परवाह किये बिना उसके हरम की जवान और बूढ़ी औरतों और बच्चों को पनाह देने के लिये खुद बेदख़ल होकर क़िले के द्वार खोल देनेवाले एक हिंदू राजा की सदाशयता भी देखी है। इस क़िले ने अपने प्राचीरों से उठकर फ़रीद खां (शेरशाह) जैसे गुमनाम शख्स़ को दिल्ली की गद्दी पर बैठते देखा है, तो शहंशाह अकबर व उनके सिपहसालार मान सिंह के शासन-प्रशासन की धमकियां भी देखी हैं।
शाहमल जैसे विश्वासघाती दीवान को चंद सिक्कों के लिये क़िले की चाबी अंगरेज़ों को सौंपते हुए देखा है, तो इसी क़िले से आज़ादी के दीवाने अमर सिंह को प्राणों की बाज़ी लगाते भी देखा है। इसने अपने गढ़ में सन् 1857 के वीर बांकुरे बाबू कुंवर सिंह को विजय-पताका लहराते हुए देखा है, तो आज़ादी के बाद 62 वर्षों तक अपराधियों के चंगुल में गुमनाम रही इस ऐतिहासिक धरोहर को मुक्त कराकर एक जांबाज़ पुलिस अधिकारी को इस पर राष्ट्रीय ध्वज फहराते भी देखा है।
कई ग्रंथों में है रोहतास गढ़ का उल्लेख
यही कारण है कि हरिवंश, देवी भागवत, स्कंध और पद्म सरीखे पुराणों से लेकर आईन-ए-अकबरी, तारीख़-ए-शेरशाही, मख़जान-ए-अफ़गानी और वकीयत-इ-पुस्तकी में रोहतास गढ़ का वर्णन आया ही है, ईरानी इतिहासकार फ़ेहरिस्त में (1560-1620 ई.), फ़्रेंच ट्रेवलर ट्रेवेनियर (1605-1689 ई.) सहित ब्रिटिश विद्वान अधिकारी फ्रांसिस बुकानन, डॉ. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव, डॉ.डी.आर.पाटिल सरीखे इतिहासकारों-पुराविदों ने भी इसके उल्लेख किये हैं।
आईन-ए-अकबरी में लिखा है कि एक बुलंद पर्वत की चोटी पर 14 कोस (42कि.मी.) के दायरे में फैला रोहतास क़िला एक ऐसा गढ़ है जिसमें प्रवेश कर पाना दुष्कर है। यहां कई झरने और झील हैं। बरसात के मौसम में तो यहां कई अन्य झीलें और 200 से भी अधिक झरने बन जाते हैं।
सन 1812 में ब्रिटिश अधिकारी फ़्रांसिस बुकानन ने रोहतास दुर्ग एवं इसके सिंह-द्वार का भ्रमण किया था। यहां की दुर्गम खड़ी चट्टानों, दर्रों, घाटियों र गुफाओं तथा क़िले की सुरक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिये मान सिंह की निर्माण करायी गयी संरचनाओं का मुआयना करने के बाद बुकानन कहते हैं कि उन्होंने आज तक दोहरी प्राचीरों वाली सुरक्षात्मक व्यवस्था से युक्त जितने भी गढ़ों के अवशेष देखे हैं, उनमें रोहतास गढ़ सर्वश्रेष्ठ है।
इसी तरह अंगरेज़ पेंटर विलियम डेनियल के साथ रोहतास गढ़ की यात्रा करनेवाले होबार्ट काउंटर सन 1835 में लंदन से प्रकाशित पुस्तक ‘द ओरिएंटल एनुअल’ (सीन्स इन इंडिया) में बताते हैं कि जिस पर्वत पर यह क़िला मौजूद है, वह मूलतः किसी भी कोण से गमनीय नहीं है और इसके ऊपर जिस विशालता तथा मज़बूती से मीनार युक्त प्राचीरें, खड़ी चट्टानों को काटकर बनाई गई सीढ़ियां और प्रवेश-द्वार निर्मित हैं, वे किसी भी मानवीय आक्रमण को मात देने और किसी भी आक्रमणकारी के साहस को तोड़ने के लिये काफ़ी हैं।
होबार्ट काउंटर बताते हैं कि चट्टानों के बड़े-बड़े टुकड़ों को जिस मज़बूती के साथ जोड़कर क़िले की दीवारें बनाई गई हैं, उनमें आज भी कोई दरार नहीं दिखाई देती जो प्राचीन सैन्य वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना है। बिना किसी साज-सज्जा के बिना भी इसकी विशालता अत्यंत प्रभावशाली है। काउंटर के साथ गये पेंटर डेनियल ने रोहतास गढ़ के कई आकर्षक चित्र बनाये थे, जो आज ब्रिटिश म्यूज़ियम में संग्रहित हैं।
रोहतास गढ़ का पौराणिक संदर्भ
रोहतास गढ़ क़िले के निर्माण के इतिहास की बात की जाय तो इसके कई पौराणिक संदर्भ मिलते हैं। रोहतास का नाम पौराणिक सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र के पुत्र रोहिताश्व के नाम पर पड़ा है। रामायण के बाल-कांड में वर्णित है कि अयोध्या के राजा हरिश्चंद्र इक्ष्वाकुवंशी ( सूर्यवंशी ) थे। ‘जाति भाष्कर’ ग्रंथ के अनुसार हरिश्चंद्र पुत्र रोहिताश्व के वंश के राजा चम्प (जिन्होंने चम्पा नगरी की स्थापना की थी) की 31 वीं पीढ़ी में श्रीराम चंद्र हुए थे।
किंवदंतियों के आधार पर आर्कियोलॉजीकल सर्वे ऑफ़ इंडिया (इम्पीरियल सीरीज़) भी इसे अयोध्या के पौराणिक राजा हरिश्चंद्र के पुत्र रोहिताश्व के साथ जोड़ता है।
यही कारण है कि रोहित और रोहिताश्व नगर (रोहतास) के उल्लेख भागवत, हरिवंश, स्कंध, पद्म आदि पुराणों, देवी भागवत, ऐतरेय ब्राह्मण सहित रामायण, महाभारत आदि पौराणिक ग्रंथों में आये हैं जिनमें वर्णित है कि राजा हरिश्चंद्र के पुत्र रोहिताश्व ने वरूण के भय से किसी अज्ञात स्थान में शरण ली थी जिसकी पहचान कैमूर की पहाड़ी के रूप में की गयी है जो कालांतर में रोहिताश्व के नाम पर ‘रोहतास’ कहलाया।
पुराविद् डॉ.डी.आर.पाटिल भी उक्त पौराणिक कथा से इत्तेफ़ाक़ रखते हैं, पर इसके किसी पुरातात्त्विक प्रमाण नहीं होने की भी बात करते हैं। लेकिन क़िले के उत्तर-पूर्व भाग में स्थित ‘रोहतासन’ अथवा ‘चौरासन’ मंदिर के बारे में जनश्रुति है कि यह राजा हरिश्चंद्र के समय से स्थापित है। शाहाबाद ज़िला गज़ेटियर (1924) के अनुसार रोहतासन मंदिर में रोहिताश्व व उसके बग़ल में स्थित एक मंदिर में उनके पिता हरिश्चंद्र की मूर्तियों की पूजा होती थी जिन्हें औरंगजेब के समय में तोड़ डाला गया।
रोहतास गढ़ के हिंदू राजा
विभिन्न पुरातन ग्रंथों, शिला-लेखों और स्थानीय मान्यताओं के अनुसार रोहतास गढ़ के क़िले पर सन 1539 में शेरशाह के क़ब्ज़े से पहले हिंदू राजाओं का अधिकार था। यहां के प्रमुख हिंदू राजाओं में गौड़ के राजा शशांक, खरवार-वंश के राजा प्रताप धवल, राजा चन्द्र बन (जिनसे धोखे से शेरशाह ने रोहतास गढ़ का क़िला हथिया लिया था), परमार वंश के राजपूत राजा नारायण मल्ल तथा चेरो वंश के महाराता चेरो (जिनकी बहादुरी की चर्चा तारीख़-ए-शेरशाही में भी की गई है) के नाम लिये जा सकते हैं।
रोहतास गढ़ क़िले से जो सबसे पुरातन ऐतिहासिक अभिलेख मिला है, वो 7 वीं शताब्दी का है, जो इस क्षेत्र में राजा शशांक का शासन होने की पुष्टि करता है।
डॉ.डी.आर. पाटिल पुराविद् जॉन फ़ैथफ़ुल फ़्लीट के हवाले से बताते हैं कि यहां 4 1/4″ के वृत्ताकार में एक शिला-लेख मिला है (जो संभवतः सिक्के ढ़ालने के सांचे के रूप में इस्तेमाल होता होगा), जिसपर संस्कृत की दो पंक्तियों में ‘श्री-महा सामन्त शशांक देवस्य’ लिखा है। पुराविद् फ़्लीट शशांक की पहचान बंगाल के राजा के रूप में करते हैं जिन्होंने कन्नौज के राजा हर्ष के बड़े भाई राज्यवर्द्धन की हत्या की थी।
इसी तरह रोहतास गढ़ के विभिन्न स्थानों से चार अन्य शिला-लेख मिले हैं जो सन 1169 व सन1223 के हैं तथा तथा हिंदू राजा प्रताप धवल से संबंधित हैं जो ‘खयारवाला’ वंश के थे जिनके वंशज यहां निवास करनेवाले खरवार आदिवासी बताये जाते हैं। प्रताप धवल के उत्तराधिकारी उन्हें प्रताप कहकर संबोधित करते थे, जो शाहाबाद क्षेत्र (वर्तमान भोजपुर, बक्सर, कैमूर और रोहतास के क्षेत्र) के सर्वोच्च सत्ताधारी थे।
रोहतास गढ़ से प्राप्त शिला-लेखों के अनुसार यहां के हिंदू राजाओं ने जंगल से होकर कैमूर पहाड़ी की तलहटी तक सड़क निर्माण सहित मार्ग में क़िलेबंदी एवं चार घाटों पर चार प्रवेश-द्वार बनवाये थे। इनमें से राजाघाट और कठौतिया घाट में करायी गयी मुख्य क़िलेबंदी के अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं। ‘एपीग्राफ़िक इण्डिका’ भी इतिहासकार एफ. किलहोर्न के हवाले से प्रताप धवल के खरवार वंशीय राजा होने की पुष्टि करता है। शाहाबाद ज़िला गज़ेटियर के अनुसार खरवार जनजाति के लोग अपने को हरिश्चंद्र पुत्र रोहिताश्व की तरह सूर्यवंशी बताते हैं। लेखक जगन्नाथ सिंह अपनी पुस्तक ‘रोहतासगढ़’ में अनुमान व्यक्त करते हैं कि संभवतः रोहित (रोहिताश्व) ने यहां वैवाहिक संबंध बनाये हों और शोणभद्र व कौशल के संगम पर रोहित नगर (वर्तमान रोहतास) बसाया हो जो आगे चलकर ब्राह्मण और असुर दोनों के प्रतिनिधि सम्राट् बने हों।
खरवार के अलावा यहां भर, चेरो और उरांव आदि जनजातियों का भी बाहुल्य रहा है जिनके अपने इतिहास हैं।
शेरशाह अफ़गान का काल
शेरशाह अफ़गान भारत में जन्में पठान थे जिन्होंने सन 1540 में मुग़ल बादशाह हुमायूं को पराजित कर न सिर्फ़ शेर खां की उपाधि धारण कर उत्तर भारत में ‘सूरी साम्राज्य’ की स्थापना की, बल्कि हुमायूं को भारत छोड़ने पर भी मजबूर किया। शेरशाह अफ़गानों की सूर जाति के थे जो अफ़ग़ानिस्तान-पाकिस्तान के ऐतिहासिक पख़्तून समुदाय से आते हैं।
शेरशाह के शुरुआती दिन बड़े साधारण थे। अपने साहस और सामर्थ्य के बल पर बाबर की मुग़ल सेना में सेनापति और फिर बिहार के सूबेदार बनने के पूर्व वह साधारण-सी निजी नौकरी करता था। एक फ़ौजी अबियान में हुमांयू नहीं आ पाये थे तब अपनी राजनयिक सूझबूझ से उसने बंगाल पर कब्ज़ा जमा लिया जिसकी परिणति सूर साम्राज्य की स्थापना से हुई।
भारत के इतिहास में मुगलों की तरह अफ़ग़ानिस्तान से आने वाले अफ़गान शासकों का भी खास महत्त्व रहा है जिन्होंने मुग़लों के यहां आने के पूर्व 10 वीं शताब्दी के आस-पास से अपने साम्राज्य स्थापित करने शुरू कर दिये थे। इन अफ़गान साम्राज्यों में गजनवी, गोरी, ख़िलज़ी और लोदी वंशों के नाम प्रमुख हैं।
हुमांयू के भारत से पांव उखड़ने के बाद और दुबारा सत्ता प्राप्ति के बीच की अवधि में यानी सन 1539 से लेकर सन 1576 तक यहां अफ़ग़ानों का शासन रहा।
शेरशाह और मुग़ल बादशाह हुमायूं के बीच वर्चस्व की लड़ाई के दौर में, शेरशाह के चुनार का क़िला हारने के बाद, उसे अपने पांव जमाने के लिये एक सुरक्षित ठिकाने की आवश्यकता थी। साथ ही, आगे की लड़ाई जारी रखने के लिये उसे भरपूर धन की भी ज़रूरत थी। रोहतास का क़िला उसकी इन दोनों ज़रूरतों को पूरा करने में सक्षम था। पर इसे हासिल करने के लिये वह अलग से संघर्ष करने की स्थिति में नहीं था, क्योंकि मुग़लों के साथ उसकी पहले से ही लड़ाई चल रही थी। इसलिये शेरशाह ने एक चाल चली।
इस संबंध में ‘तारीख़-ए-शेरशाही’ में वर्णित है कि शेरशाह ने अपने दूत के माध्यम से रोहतास गढ़ के राजा से कहलवाया कि वह हुमायूं से युद्ध करने बंगाल जा रहा है । सुरक्षा की दृष्टि से वह अपने हरम की महिलाओं, बूढ़ी औरतों व बच्चों तथा ख़ज़ाने को क़िले में रखना चाहता है । राजा ने शेरशाह का अनुरोध स्विकार कर लिया। शेरशाह ने आगे की पालकियों में बूढ़ी औरतों-महिलाओं-बच्चों को बिठाया और चकमा देकर हज़ारों ख़ूंख़ार अफ़गान सैनिक को क़िले में प्रवेश दिलाकर राजा को बेदख़ल कर दिया और क़िले पर कब्ज़ा जमा लिया। फ़्रांसिस बुकानन ने उस हिंदू राजा की पहचान चन्द्रवन के रूप में की है।
शेरशाह के लिये रोहतास क़िले की इतनी अहमियत रही कि इसकी सुरक्षा में उसके 10,000 हज़ार सशस्त्र सैनिक बराबर तैनात रहते थे। इसी क़िले से अपनी विजय-यात्रा शुरू कर वह दिल्ली के तख़्त पर आसीन हुआ था।
शेरशाह अपनी ज़िंदगी में अहम भूमिका निभाने वाले इस रोहतास क़िले की भव्यता से इतना प्रभावित था कि उसने इसी के मॉडल व नाम पर पाकिस्तान में झेलम के किनारे एक क़िले का निर्माण करवाया जो आज यूनेस्को के विश्व विरासत स्थलों की सूची में शामिल है।
मुग़ल काल में रोहतास गढ़
बाबर द्वारा मुग़ल साम्राज्य की स्थापना के उपरांत हुमायूं जब अपने शासन के पहले दौर में शेरशाह अफ़गान से पराजित होकर भारत छोड़ने के बाद जब वह दूसरे दौर में यहां लौटा, तो उस समय भी कई हिस्सों में अफ़गानों का दबदबा ( खासकर सूबा बंगाल में) बरक़रार था।
बादशाह अकबर ने सन 1573 में गुजरात में निर्णायक विजय के बाद भारत के बचे-खुचे अधिकांश अफ़ग़ानों को तो पराजित कर डाला, किंतु अफ़गान सरदार सुलेमान खां कर्रानी के नेतृत्व में बंगाल अफ़गान शक्ति का केंद्र बना हुआ था। सुलेमान तो कूटनीति अपनाते हुए मुग़ल सत्ता की अधीनता मानता रहा, पर उसके बेटे दाऊद खां ने दिल्ली की सत्ता की नाफ़रमानी कर अपने नाम का ख़ुत्बा जारी कर दिया जो अकबर को नागवार गुज़रा। उसके हुक्म पर अंततः दाऊद को सन 1575 में ‘तुकारोई के युद्ध’ में कुचल डाला गया।
अकबर के सत्तासीन होने पर उसके कई अफ़गान शत्रु बिहार, बंगाल और ओडिशा भाग वहां के स्थानीय राजाओं के साथ मिलकर उपद्रव मचाने लगे थे जिन्हें सिपहसालार राजा मानसिंह द्वारा शिकस्त देकर उन्हें मुग़ल अधीनता स्वीकार करने पर मजबूर कर दिया गया।
तत्पश्चात 17 मार्च,सन 1594 को पूर्वी भारत पर मुग़ल शासन को मज़बूत करने क् लिये राजा मानसिंह को बिहार, बंगाल और ओडिशा का सूबेदार बनाकर भेजा गया। राजा मानसिंह ने रोहतास गढ़ को अपना मुख्यालय बनाया और इसे बंगाल-बिहार की राजधानी के रुप में प्रतिष्ठित किया। इस तरह शेरशाह की तरह अकबर के शासन-काल में भी रोहतास गढ़ क़िले की महत्ता बरकरार रही।
आईन-ए-अकबरी बताता है कि इसके बाद रोहतास सरकार बनाई गयी जिसका शासन रोहतास गढ़ क़िले में केंद्रित रहा। टोडरमल ने क़िले के अंदर 473,343 बीघा ज़मीन की पैमाईश करायी थी।मान सिंह ने अपने कार्यकाल में क़िले की पहले से मौजूद सुरक्षा व्यवस्था को और भी अधिक मज़बूती प्रदान करने के उद्देश्य से क़िले के उत्तर की तरफ़ संकरे मार्ग पर दो प्रवेश-द्वार बनवाये, वहीं तंग घुमावदार रास्तों को चहारदीवारी से घेरकर खाईयां खुदवाईं तथा इन्हें दोहरे प्रचीरों, दुर्गों व बूर्जों से नियंत्रित करने की व्यवस्था की। साथ ही, पठार के आगे की ओर अतिरिक्त सुरक्षा हेतु एक अन्य दीवार खड़ी की गई जिसकी गवाही आज़ भी लाल पत्थरों से निर्मित बुलंद ‘लाल दरवाज़ा’ के अवशेष दे रहे हैं।
सुरक्षा व्यवस्था सुदृढ़ करने के अलावा मान सिंह ने क़िला परिसर में कई नायाब़ निर्माण करवाये जिनमें ‘तख़्त-ए-बादशाही’, ‘आईना महल’, ‘बारादरी’ आदि वास्तुकला के बेजोड़ नमूने हैं।कालक्रम में मुग़ल शासन के पैर बंगाल में मज़बूत हो जाने के बाद रोहतास का महत्व कमतर होता गया। 9 नवम्बर,सन 1595 को मान सिंह ने रोहतास गढ़ से हटाकर राजमहल (झारखंड) को बंगाल की राजधानी बनाया।
अकबर के बाद जहांगीर के काल में यह क़िला वज़ीर के ज़िम्मे आ गया। सन 1621 में जब शहज़ादा ख़ुर्रम (शाहजहां) ने अपने पिता बादशाह जहांगीर के खिलाफ़ बगावत की थी, तो रोहतास क़िले के क़िलेदार सैय्यद मुबारक ने उसे पनाह देते हुए क़िले की चाबी सौंप दी थी। शाहजहां की बेगम मुमताज़ महल ने इसी क़िले में मुराद बख़्स को जन्म दिया था। शाहजहां के काल में दारा शिकोह यहां बहुत दिनों तक रहा था जिसके नाम पर यहां का ‘दारा नगर’ बसा है। शुजा के समय सन 1658 में रोहतास सरकार दो भागों में यानी भोजपुर सरकार और रोहतास सरकार, में बंट गयी।
औरंगजेब के शासन काल में इस क़िले का उपयोग विचाराधीन क़ैदियों के ‘डिटेंशन कैम्प’ व मृत्यु-दंड की सजा पाये अपराधियों को फांसी देने के लिये किया जाता था। क़िले के पश्चिमी हिस्से में स्थित ‘फांसी-घर’ के अवशेष आज भी इसकी गवाही दे रहे हैं जिसके बग़ल में 1500 फ़ुट गहरी खाई है।औरंगजेब के समय में क़िले में स्थित कई मंदिरों और उनकी मूर्त्तियों के तोड़े जाने की बात कही जाती है।
ब्रिटिश काल में रोहतास गढ़
सूबा बंगाल अर्थात् संयुक्त बिहार-बंगाल-ओडिसा की राजधानी के रोहतास गढ़ से स्थानांतरित होकर राजमहल और फिर मुर्शिदाबाद आ जाने से और तत्पश्चात अंगरेज़ों की प्रारंभिक व्यापारिक व सियासती गतिविधियों का केंद्र बंगाल के बन जाने के कारण अब रोहतास गढ़ सियासी घटनाओं का वैसा स्थल तो न रहा, पर इसका महत्व बरक़रार रहा।
मुग़ल शासन के अवसान और ब्रिटिश हुकूमत के दस्तक की बेला में जब सन 1763 में उधवानाला की लड़ाई (राजमहल के निकट) में अंगरेज़ों के हाथों बिहार-बंगाल के नवाब मीर क़ासिम की हार हो गई, तो वह अपने परिवार के साथ भागकर रोहतास चला आया, पर उसे क़िले में शरण न मिल सकी। उधर रोहतास के दीवान शामलाल ने विद्वेष व लालच में आकर क़िले को ब्रिटिश कैप्टन गोडार्ड को सौंप दिया। गोडार्ड ने क़िले में अपने दो महीनों के प्रवास के दौरान यहां की क़िलेबंदी तथा भंडार-गृह में रखे सैन्य आयुधों व बारुदों को तहस-नहस कर डाला। इसके बाद अंगरेज़ों ने दानापुर (पटना) में अपनी छावनी बना डाली।
उक्त घटना के तक़रीबन सौ वर्षों तक ख़ामोशी में डूबे रोहतास गढ़ के क़िले में सन् 1857 में आज़ादी की पहली लड़ाई के शंखनाद के साथ फिर से हलचल शुरू हो उठी जब इस संग्राम के नायक बाबू वीर कुंवर सिंह के भाई अमर सिंह ने क़िले को केंद्र बनाकर अपने साथियों के साथ अंगरेज़ों के छक्के छुड़ाये थे। बताते हैं कि वीर कुंवर सिंह ने कैमूर की पहाड़ियों को भी अपना अड्डा बनाकर अंगरेज़ों से मोर्चा लिया था और रोहतास क़िले पर विजय-पताका फहराई थी।
स्वतंत्र भारत में रोहतास गढ़ का क़िला
आज़ादी के बाद विडंबना यह रही कि शौर्य गाथाओं से युक्त यह ऐतिहासिक धरोहर पुनः गुमनामी के अंधेरे में डूब गयी तथा तक़रीबन 60 वर्षों तक पहले तो डकैतों, फिर बाद में माओवादियों के चंगुल में फंसकर उग्रवादियों के ‘सोन-गंगा-विंध्याचल ज़ोन’ के नाम से कुख्यात हो गया जहां आम आदमी व पर्यटक तो दूर पुलिस भी जाने से कतराने लगी।
किंतु इस विकट पृष्ठभूमि में अगस्त, सन 2008 में रोहतास एसपी के रूप में पदस्थापित एक युवा आईपीएस अधिकारी विकास वैभव, जो वर्तमान में बिहार एटीएस के डीआईजी हैं, ने रोहतास क़िले के वैभवशाली इतिहास को फिर से जगाकर इसे पर्यटन व विकास की मुख्यधारा में लाने का संकल्प लिया।अपराधग्रस्त सोन घाटी में ऐतिहासिक-सांस्कृतिक पुनर्जागरण तथा पुलिस-पब्लिक समन्वय स्थापित करने के उद्देश्य से रोहतास पुलिस ने संवेदनशील प्रशासन का अभिनव रूख अख़्यार करते हुए पुलिस कप्तान विकास वैभव के नेतृत्व में ‘सोन महोत्सव’ आयोजित करने की योजना बनाई जिसका आगाज़ दिसंबर,सन 2008 को रोहतास से किया गया। इसके बाद जनवरी, 2009 से दिसंबर, 2009 की अवधि में ज़िले के नवहट्टा, तिलौथू, आलमनगर सहित 6 दूरस्थ स्थानों में सोन महोत्सव के तहत खेलकूद, सांस्कृतिक व जनजागरण के कार्यक्रम आयोजित हुए जिसमें बड़ी संख्या में प्रशासनिक अधिकारियों सहित जन-प्रतिनिधियों, ग्रामीणों व आम लोगों ने भाग लिये। 26 जनवरी, 2009 को आज़ादी के बाद पहली बार रोहतास क़िले पर राष्ट्रीय ध्वज फहराया गया।
सोन महोत्सव और पुलिस प्रशासन की पहल के सकारात्मक परिणामस्वरूप जहां आम लोगों का पुलिस के प्रति विश्वास जागा, वहीं उनके अंदर से अपराधियों का ख़ौफ़ कम हुआ जिससे अपराधियों का मनोबल गिरा तथा उनपर मुख्य धारा से जुड़ने के दवाब बढ़े।नतीजे में 9 मई,सन 2009 को हुए लोकसभा चुनाव में आज़ादी के 25 वर्षों बाद पहली बार सोन घाटी के आदिवासियों ने, माओवादियों की, चुनाव बहिष्कार की धमकी के बावजूद बड़ी संख्या में अपने मताधिकार का उपयोग किया। ऐतिहासिक-सांस्कृतिक दृष्टि अपनाते हुए क्राईम कंट्रोल का यह एक अभिनव प्रयोग था।
रोहतास गढ़ के लिये दिसंबर, 2011 का महीना ऐतिहासिक रहा जब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने क़िले का भ्रमण किया और इसके विकास के लिये की कई योजनाओं की घोषणा की। कैमूर के इस दूरस्थ क्षेत्र में किसी मुख्यमंत्री का यह पहला दौरा था। मुख्यमंत्री के इस दौरे ने सिद्ध कर दिया कि रोहतास गढ़ में परिवर्तन की लहर अब एक सच्चाई बन गई है।
रोहतास गढ़ के पर्यटन आकर्षण
पर्वत की श्रृंखलाओं, दर्रों, घाटियों और हरे-भरे सघन वनों तथा झील-झरनों व नदियों से घिरा रोहतास गढ़ का क़िला यहां आनेवाले पर्यटकों को अपने नैसर्गिक प्राकृतिक दृश्यों से बरबस आकर्षित करता है।
प्राकृतिक पर्यटन के अलावा यहां ऐसे कई ऐतिहासिक-पुरातात्विक धरोहर भी हैं जो सदियों की मार झेलने के बावजूद महत्वपूर्ण हैं, जैसे:-
1. हथिया पोल: हथिया पोल रोहतास गढ़ क़िले का मुख्य द्वार है जिसका निर्माण सन 1597 में कराया गया था। क़िले का यह सबसे विशाल गेट हाथियों की आकर्षक मूर्तियों से अलंकृत है, इस कारण यह हथिया पोल कहलाता है।
2. आईना महल: इस भव्य और आकर्षक महल का निर्माण राजा मानसिंह ने अपनी मुख्य पत्नी के लिये करवाया था।
3. तख़्त-ए-बादशाही: क़िला परिसर की यह सबसे विशाल संरचना है जिसका निर्माण राजा मानसिंह ने खुदके आवासन के लिये करवाया था। छोटे-बड़े गुंबदों से युक्त नक़्क़ाशीदार खंभों वाला यह भवन चार-मंज़िला है जिसकी छत से पूरे क्षेत्र का नज़ारा किया जा सकता है।
4. बारादरी: मानसिंह का आवासीय परिसर प्रथम तल पर था जो कि जनानाख़ाने से सम्बद्ध था। बारादरी के पश्चिम में दीवाने ख़ास था जिस पर फूल-पत्तियों की नरक़्क़ाशियों है और सुसज्जित पायों पर खड़ा है।
5. जामी मस्जिद, हब्श खां की दरगाह व सूफ़ी सुलतान का मक़बरा: शेरशाह के काल में सन 1543 में बनी जामी मस्जिद तीन गुंबदों से युक्त सफ़ेद बलुआ पत्थर से निर्मित है। अन्य स्मारक छतरियों से युक्त हैं जो राजपुताना शैली से प्रभावित हैं और अत्यंत आकर्षक हैं।
6. गणेश मंदिर: यह मंदिर राजा मानसिंह के महल से आधा किलोमीटर पश्चिम मों है। 17 वीं सदी में चित्तौड़ में निर्मित मीराबाई मंदिर की शैली से साम्यता रखनेवाले इस मंदिर के गर्भगृह के समक्ष दो द्वार-मंडप हैं।
7. फांसी घर: क़िले के पश्चिम की ओर एक भवन स्थित है जिसे लोग फांसी घर कहते हैं जिसकी बग़ल में 1500 फ़ुट गहरी खाई है। यहीं पर एक फ़क़ीर का मज़ार है जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्हें तीन बार हाथ-पांव बांधकर खाई में फेंका गया, पर वे हर बार सलामत बच गये।
8. रोहतासन अथवा चौरासन मंदिर: महल के क़रीब डेढ़ किलो मीटर उत्तर-पूर्व में दो मंदिरों के अवशेष हैं जिनमें से एक रोहतासन कहलाता है जो भगवान शिव से संबंधित है। जिस मुख्य मंडप में शिवलिंग अवस था उसकी छत मूर्तिभंजकों के द्वारा तोड़ दी गयी थीं। अब इस मंदिर तक जाने के लिये सिर्फ़ 84 सीढ़ियां बची हैं जिसके कारण इसे चौरासन मंदिर भी कहते हैं। इसके बारे में लोक विश्वास है कि यह महान् पौराणिक राजा हरिश्चंद्र के समय का है। यहीं, थोड़ी दूरी पर एक देवी का आकर्षक प्राचीन मंदिर भी है।
मुख्य चित्र: ब्रिटिश लाइब्रेरी
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