काफिरकोट का प्राचीन मंदिर 

काफिरकोट का प्राचीन मंदिर 

ख़ैबर पख़्तूनख़्वा राज्य के ज़िले डेरा इस्माइल ख़ां में एक छोटा और अंजान सा गांव है बिलौट । यह सिंधू नदी के किनारे ठीक उस जगह स्थित है जहां हिंदू कुश और नमक के पहाड़ों का सिलसला मिलता है। इस जगह में ऐसा कुछ भी ख़ास नहीं है सिवाये उस पहाड़ के जहां से पुरा गांव दिखाई देता। स्थानीय लोग इसे काफ़िरकोट के नाम से जानते हैं। दरअसल वहां, एक ही इलाक़े में, पचास किलोमीटर के फ़ासले पर दो खंडहर हैं । दोनों को ही काफ़िरकोट के नाम से जाना जाता है। उनमें से एक है बिलौट काफ़िरकोट और दूसरा है तिलौट काफ़िरकोट। दोनों मंदिर परिसर, चारों तरफ़ से खंडहरों से घिरे हुए हैं। ऐसा लगता है कि जैसे यहां कोई भव्य क़िला रहा होगा , जहां से सिंधू नदी दिखती होगी।

बिलौट और तिलौट सहित नंदना से लेकर नमक के पहाड़ों के पुर्वी किनारे होते हुये सिंधू नदी तक मौजूद तमाम मंदिर हिंदू शाही मंदिर कहलाते हैं। एक अनुमान के अनुसार,11वीं सदी में हिंदू शाही शासकों की सत्ता के अंत तक यहां कुल मिला कर आठ भव्य मंदिर परिसर रहे होंगे।

हिंदू शाही राजाओं के दौर में उनकी राजधानियां गंधार और ऊपरी पंजाब क्षेत्र में रही थीं और उनके राज्य की उत्तरी-पूर्वी सीमायें कश्मीर के शक्तिशाली राज्य से लेकर पश्चिम में अफ़ग़ानिस्तान व पंजाब से जुड़ी थीं और सिंधू नदी, पूरे राज्य के केंद्र से होकर गुरज़रती थी। हिंदू शाही का सम्बंध काबुल शाही से था जो किसी ज़माने में बौद्ध थे । बाद में वह हिंदू बन गये और हिंदू शाही तथा तुर्कीशाही या पोटलाशाही में बंट गये। तुर्कीशाही या पोटलाशाही दाल्दिस्तान/ गिल्गिट बाल्तिस्तान पर राज करते थे।वे कट्टर बौद्ध थे।

शाही ख़ानदान की उत्पत्ती कहां से हुई है यह आज भी बहस का विषय बना हुआ है। शाही ख़िताब कुशान शाव से लिया गया था। जो बाद में शाह हुआ फिर शाही हो गया। अल बरुनी ने लिखा है कि उनका सम्बंध तिब्बत के राजकुमार से रहा है जबकि कुछ लोगों का कहना है और सुबूतों के धार पर ऐसा कहा जा सकता है कि उनका सम्बंध बाद के कुशान या हफ़्तालियों से रहा होगा। कुछ लोगों का कहना है कि यह लोग पहले तुरकी थे और मध्य एशिया से आये थे। यह भी माना जाता है कि इनका रिश्ता कम्बोज वंश से रहा होगा। क्योंकि इस इलाक़े में कम्बोज वंश का बड़ा दबदबा रहा था।

यहां के मंदिर परिसर काफ़ी बड़े, भव्य और क़िलों से घिरे हुये हैं। ख़ास बात यह भी है कि महमूद ग़ज़नवी के हमलों के बाद भी यहां पश्चिम की ओर से भी कई हमले हुये थे लेकिन उनमें इन मंदिरों को कोई नुक़सान नहीं पहुंचा। आश्चर्य की बात यह भी है कि काफ़िरकोट के मंदिर परसरों का भी कोई ज़िक्र नहीं है। जबकि उस दौर के राजवंशों में इनका बहुत ऐतिहासिक महत्व रहा होगा।

दिसचस्प बात यह भी है कि इस क्षेत्र के मंदिर परिसर, जो सिंधू भी कहलाते हैं, पर कश्मीर और गंघार का गहरा प्रभाव दिखाई देता है।यह भी सच है कि कश्मीर भी एक ज़माने में कुशान वंश की गंधार रियासत के अधीन रह चुका था । मतलब यह हआ कि हिंदू शाही और कश्मीर के राज वंशों के आपसी सम्बंध रहे थे ।

कल्हण ने अपनी किताब राजतरंगिणी में हिंदू शाही राजाओं का ज़िक्र किया है। आपस में शादी-ब्याह की वजह से उनके कश्मीरियों से भी रिर्श्ते थे। यह भी कहा जाता है कि कश्मीर की आख़िरी महारानी दिद्दा हिंदू शाही वंश के राजा कि पुत्री थीं। मंदिर के मुख्यप्रवेश द्वार के चौकोर खम्बों पर गहरा कश्मीरी असर देखने को मिलता है। ऊपर की छतें पिरामिड डिज़ाइन कि बजाय गोल हैं, इसीलिये इन पर गंधारी प्रभाव दिखता है। क्योंकि कश्मीरी में छतें पिरामिड की तरह होती हैं ताकि बर्फ़ आसानी से फिसल कर गिर जाये। सिंधु क्षेत्र के मंदिर क्योंकि पहाड़ों के निचले हिस्से में बने होते हैं इसलिये उन्हें बर्फ़ की चिंता नहीं थी जैसा आमतौर पर उत्तरी भारत के मैदानी इलाक़ों में होती है।

म्यांवली के, 1915 के गज़ट में काफ़िरकोट के मंदिर परिसरों के बारे में इस तरह लिखा है, ” काफ़िरकोट के खंडहरों में दो क़िलों के अवशेष मिलते हैं। जो खासोर पर्वत श्रृंखला की निचली पहाड़ियों पर बने थे । जहां से

सिंधू नदी दिखाई पड़ती है । एक क़िला कुंदल से चंद मिनट के फ़ासले पर है और दूसरा बिलौट के नज़दीक है। यह दोनों क़िले बहुत पुराने हैं और बेहद दिलचस्प भी हैं। ख़ास बात यह है कि इनकी सुरक्षा के लिये बनी दिवारें बड़े बड़े और छोटे छोटे पत्थरों से मिलाकर बनाई गई हैं। कई भवन छोटे हिंदू मंदिरों की तरह लगते हैं जिन पर नक़्क़ाशी की गई है। इनमें शहद के छत्तों जैसे एक ही रंग के पत्थरों का उपयोग किया गया है जो आमतौर पर इस इलाक़े के पहाड़ों में नहीं पाये जाते। बताया जाता है कि यह पत्थर ख़शालबाग़ से नदी के रास्ते यहां लाये गये थे। यह क़िले बहुत लम्बे-चौड़े क्षेत्र में फैले हैं, ज़ाहिर है यहां बहुत बड़ी सेना भी रही होगी। यहां एक ही कहानी मशहूर है कि इन क़िलों पर अंतिम हिंदू राजा तिल और बिल का अधिकार था लेकिन अब यहां न तो किसी राजा के निशान हैं और न ही जनता के ।“

जानेमाने इतिहास-यात्री और रायल जियोराग्फ़िक सोसायटी के सदस्य सर सलमान राशिद ने एक दिलचस्प बात और लिखी है, “ 19वां सदी में जान वुड्स , जब आक्सस नदी के स्त्रोत की खोज में, सिंधू नदी की यात्रा पर निकले थे तो वह एक और काफ़िरकोट, यानी काफ़िरकोट-तिलौट की तलाश में वहां रुक भी गये थे। यह जगह सिंधु क्षेत्र के उत्तरी बिलौट से 30 किलोमीटर दूर एक छोटी सी पहाड़ी के ऊपर है। बिलौट की तरह यहां भी क़िले की दीवीर के अलावा तीन मंदिर और दो मंज़िला टूटा-फूटा एक मकान है। जो बिलौट के ज़माने का ही लगता है । तिलौट का ज़िक्र वुड्स के समकालीन अलैक्ज़ेंडर बर्नस और रहस्यमयी चार्ल्स मैशन के यहां भी मिलता है। हैरानी की बात यह कि तीनों ने बिलौट के आलीशान काफ़िरकोट के बारे में सुना तक नहीं था।“

इन शानदार मंदिरों का रहस्य और असलियत क्या है, इन्हें किसने बनवाया था और यह इतिहास और समय के थपेड़े खाने के बावजूद कैसे बच गये ? यह साफ़ है कि इन्हें किसी मूर्तीभनजक हमलावर ने जानबूझ कर नहीं तोड़ा, बल्कि इनकी बरबादी वक़्त के हाथों हुई है।

पिक्चर क्रेडिट: सर सलमान रशीद / विकिपीडिया

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