“जाने किस दिन हिंदूस्तान,आज़ाद वतन कहलायगा“ शहीद अशफ़ाक़ उल्लाह ख़ान!
” ख़ाली हाथ जाऊँगा मगर, यह दर्द साथ ही जायेगा;
जाने किस दिन हिन्दूस्ता, आज़ाद वतन कहलायेगा।।
बिस्मिल हिन्दू हैं कहते हैं, फिर आऊँगा-फिर आऊँगा;
ले नया जन्म ऐ भारत माँ! तुझको आज़ाद कराऊँगा।।
मैं मुसलमान हूँ, पुर्नजन्म की बात नहीं कह पाता हूँ।
और जन्नत के बदले उससे, एक नया जन्म ही मागूँ गा।।
यह पंक्तियां भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अग्रिम क्रांतिकारियों की सूची में शामिल अशफ़ाक़ उल्लाह खां वारसी ‘हसरत’ की कविता से ली गयी हैं।
अशफ़ाक़ उल्लाह का जन्म उत्तर प्रदेश के शहीदगढ़ शाहजहाँपुर के मुहल्ला जलालनगर में 22 अक्तूबर 1900 को हुआ था
उनके पिता मोहम्मद शफ़ीक़ उल्लाह खां और मां महरूनिसा थीं। अशफ़ाक़ ने अपनीं डायरी में अपने ननिहाल का ज़िक्र करते हुए लिखा है कि उनके ननिहाल के सभी लोग आला दर्जे के पढ़े लिखे थे। उनमें से कुछ डिप्टी कलेक्टर तथा कुछ सब-जुडीशियल मैजिस्ट्रेट के ओहदों पर भी रहे। वे अपने ननिहाल के प्रति रंज व्यक्त करते हुए आगे लिखते हैं कि उनके ननिहाल के लोगों ने सन 1857 में हिन्दुस्तानियों का साथ न देकर अग्रेज़ों का साथ दिया था। उसी वजह से लोगों ने ग़ुस्से में उनकी कोठी को आग लगा दी थी, जो आज भी ‘जली कोठी’ के नाम से मशहूर है।
”सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है” के रचयिता पंडित राम प्रसाद ’बिस्मिल’ अशफ़ाक़ के बड़े भाई रियासत उल्लाह खां के सहपाठी थे और वे अक्सर अशफ़ाक़ के सामने बिस्मिल की शायरी और ज़िंदादिली की चर्चा किया करते थे। इसिलिये अशफ़ाक़ उनसे मिलने के लिए बेताब था। परन्तु बिस्मिल उन दिनों मैनपुरी कांड की वजह से जेल में थे। इसी लिये उनका मिलना संभव न हो पाया। बिस्मिल सन 1920 में जेल से रिहा हुये। उसके बाद लम्बी भाग दौड़ के बाद आख़िर अशफ़ाक़ ने उन्हें ढूंढ़ ही लिया। थोड़ी सी मुलाक़ातों के बाद ही दोनों में पक्की दोस्ती हो गई। इन दोनों में सबसे बड़ी समानता यह थी कि ये दोनों ही उर्दू ज़बान के बेहतरीन शायर होने के साथ-साथ भारत मां के ख़िदमतगार भी थे। इन दोनों की दोस्ती भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में हिन्दू-मुस्लिम एकता की एक अनूठी मिसाल है।
1 जनवरी 1925 को हिन्दूस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन (एच.आर.ए.) के अंग्रेज़ी में प्रकाशित ‘दी रिवोलूशनरी’ घोषणा-पत्र को उत्तर प्रदेश के प्रत्येक ज़िले तक पहुँचाने की ज़िम्मेदारी अशफ़ाक़ को सौंपी गई। इस काम में अशफ़ाक़ की सराहनीय भूमिका को देखते हुए एच.आर.ए. की केंद्रीय कार्यकारिणी ने अशफ़ाक़ को बिस्मिल का लेफ़्टिनेंट (सहायक) नियुक्त करते हुए प्रदेश की सारी ज़िम्मेदारी इन दोनों के कंधों पर डाल दी गई।
एच.आर.ए. की प्रदेश इकाई ने पार्टी के लिए पैसा इकट्ठा करने, हथियार ख़रीदने और अंग्रेज़ी हुकूमत के विरूद्ध जंग जारी रखने के लिए आयरलैंड के क्रांतिकारियों की तर्ज़ पर डकैतियां डालने की योजना बनाई। अशफ़ाक़ ने पैसे वाले लोगों के घरों-दुकानों में डाके डालकर धन लूटने के लिए अपने भाई रियासत उल्लाह की लाइसेंसी बंदूक़ और दो पेटी कारतूस ला कर बिस्मिल के सुपुर्द कर दिए। परन्तु बिस्मिल ने कहा कि वे लोगों को नहीं लूटना चाहते, वे तो सरकारी खज़ाना लूटेंगे। हालांकि अशफ़ाक़ का मानना था कि सरकारी खज़ाना लूटना ख़तरे से ख़ाली नहीं होगा, परन्तु बाक़ी सदस्यों की ज़िद्द की वजह से वे भी राज़ी हो गए। अगले दिन 1 अगस्त 1925 की शाम काकोरी स्टेशन से जैसे ही ट्रेन आगे बढ़ी, अशफ़ाक़ के एक साथी ने गाड़ी की चेन खींच दी और अशफ़ाक़ ने ड्राइवर की कनपटी पर पिस्तौल रख दी। तभी पलक झपकते ही बिस्मिल ने गार्ड को नीचे गिराकर ख़ज़ाने की भारी भरकम तिजोरी नीचे गिरा दी। सब कुछ प्लान के मुताबिक ही हुआ, परन्तु तिजोरी का ताला था कि टूटने का नाम ही नहीं ले रहा था। सभी चिंतित थे कि लखनऊ से सेना और पुलिस कभी भी वहां पहुँच सकती थी। आख़िर अशफ़ाक़ की फ़ौलादी ताक़त के आगे तिजोरी और ज़्यादा देर तक टिक न सकी और ये लोग पुलिस के वहां पहुँचने से पहले ही सारा खज़ाना लेकर रफ़ू-चक्कर हो गए।
इस के बाद जब गिरफ़्तारियों का सिलसिला शुरू हुआ तो अशफ़ाक़ पुलिस की आँखों में धूल झोंक कर वहां से भाग निकले। वे वहां से कानपुर, बनारस, राजस्थान, बिहार आदि शहरों में छिपते-छिपाते वापिस अपने शहर शाहजहाँपुर पहुँच गए। वह पासपोर्ट बनवाकर विदेश जाकर लाला हरदयाल से मिलने की योजना बना रहे थे । तभी किसी मुख़बिर ने पुलिस को सूचना दे दी और उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया।
हालांकि अदालत ने काकोरी कांड का फ़ैसला 6 अप्रैल 1926 को सुनाया था। परन्तु अशफ़ाक़ उल्लाह तथा सचिन्द्रनाथ बख़्शी पर 7 दिसम्बर 1926 को फिर मुक़द्दमा दायर किया गया। आख़िरकार 13 जुलाई 1927 को मामले का फ़ैसला सुनाते हुए अशफ़ाक़ उल्लाह को सज़ा-ए-मौत देदी गई। मुक़दमे की सुवाई के दौरान सी.आई.डी. के वरिष्ठ अधिकारी ख़ान बहादुर तसद्दुक़ हुसैन ने अशफ़ाक़ को समझाया, ”अशफ़ाक़ उल्लाह चूंकि तुम एक मुसलमान हो, इसलिए मैं तुम्हें आगाह करता हूँ कि राम प्रसाद बिस्मिल और उनके सभी साथी हिन्दू हैं और ये लोग यहां हिन्दू सल्तनत क़ायम करना चाहते हैं। तुम इन काफ़िरों के चक्कर में आकर अपनी ज़िंदगी ख़त्म न करो और समझदारी से सरकारी गवाह बन जाओ, हुकूमत तुम्हारी फांसी की सज़ा माफ़ कर देगी।“ तसद्दुक़ हुसैन के उक्त शब्द सुनते ही अशफ़ाक़ क्रोध में आ गए और उन्होंने कहा, ”ज़बान संभाल कर बात करो। पंडित जी (राम प्रसाद बिस्मिल) को आप से ज़्यादा मैं जानता हूँ। उनका यह मक़सद बिल्कुल नहीं है। और अगर है भी तो हिन्दू राज, तुम्हारे इस अंग्रेज़ी राज से बेहतर ही होगा। तुम ने मेरे हिन्दू साथियों को काफ़िर कहा है, इस लिए तुम्हारे लिए यही बेहतर होगा कि तुम जल्दी से यहां से तशरीफ़ ले जाओ वरना मेरे ऊपर दफ़ा 302 (क़त्ल) का एक केस और क़ायम हो जाएगा।”
अंतः भारत मां के इस बहादुर सपूत को 19 दिसम्बर 1927 को फ़ैज़ाबाद की जेल में फांसी पर चढ़ा दिया गया। जब अशफ़ाक़ का पार्थिव शरीर शाहजहाँपुर लाया जा रहा था तो लखनऊ रेलवे स्टेशन पर क्रांतिकारी गणेष शंकर विद्यार्थी ने उन के समक्ष नत्मस्तक होकर उन्हें श्रद्धांजली दी और पारसी शाह फ़ोटोग्राफ़र से, उस मौक़े की तस्वीर खिंचवा ली। फ़ैज़ाबाद की जिस जेल में अशफ़ाक़ उल्लाह को फांसी पर चढ़ाया गया, उसके प्रवेश द्वार पर ‘अमर शहीद अशफ़ाक़ उल्लाह द्वार’ लिख दिया गया है।
अशफ़ाक़ के शव को शाहजहाँपुर में, उनके पुश्तैनी घर के सामने एक बगीचे में दफ़नाया गया था। उनके मक़बरे पर उन्हीं ही कही पंक्तियां आज भी अंकित हैं।
”ज़िंदगी वादे-वफ़ा तुझको मिलेगी ‘हसरत’ तेरा जीना तेरे मरने की बदौलत होगा।“
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