भारतीय सैनिकों की वीरता पीढ़ी-दर-पीढ़ी देशसेवा के लिए एक प्रेरणा रही है I इनकी कुछ गाथाएं भारत में नहीं, बल्कि विदेशों में दर्ज की गईं थीं, जिनमें इज़रायल प्रमुख हैI क्या आप जानते हैं, कि कई भारतीय वीर सैनिक वहां मौजूद चार जगहों – येरुशलम, हाईफा, रामलेह और ख्यात में दफ़न हैं? मगर पश्चिमी एशिया के एक देश में भारतीय सैनिक दफ़न कैसे?
प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सेना के लिए भारतीय सैनिकों ने भारी तादाद में हिस्सा लियाI इन सैनिकों में से अनेक ने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान इज़रायल में येरूशलेम, मुघर रिज आदि इलाकों के युद्धों में अहम योगदान दिया, जहां इनमें से करीब हज़ार सैनिक लड़ते हुए मारे गए और यहीं दफ़न हुए I दिलचस्प बात ये है कि, उनके इस योगदान ने आगे चलकर भारत और इजराइल के राजनैतिक और सैन्य सम्बन्ध को भी मज़बूत बनाया I
गौरतलब है, कि इज़रायल दुनिया के उन चंद देशों में से एक है, जिसका भारतीय उपमहाद्वीप के साथ प्राचीन काल से ही बहुत गहरा रिश्ता रहा है, जब दोनों के बीच व्यापारिक सम्बन्ध अपने चरम पर थेI इसके अलावा पहली से लेकर सोलहवीं शताब्दी इसवी तक, इज़रायल और कई देशों से अनेक यहूदी भारत में आकर बसे और यहाँ उनका विस्तार हुआI उन्नीसवीं शताब्दी के आते-आते इनमें से अनेक भारत में कारोबार, और कला जैसे क्षेत्रों में सक्रिय रहेI ये वो दौर था, जब भारत पर अंग्रेजों का राज था, और ये देश तब अलग-अलग रियासतों में बंटा हुआ थाI
इस दौरान 1857 की क्रान्ति के बाद और अपने पड़ोसी मुल्कों में बढ़ते खतरे को देखते हए, अंग्रेजों ने अपनी सियासी और फौजी मुट्ठी को मज़बूत करने पर गौर कियाI इसके लिए उनका ध्यान भारतीय रियासतों की ओर गया, जो लड़ाकों और संसाधनों से लैस थेI सैन्य सहायता के तौर पर इस्तेमाल करने के बहाने अंग्रेजों ने सन 1885 में शाही सेवा सैनिक स्कीम (Imperial Service Troops Scheme) शुरू कीI इसके तहत, अंग्रेज़ सैन्य प्रशिक्षण और हथियार देते थे, और इसके लिए खर्चे और सैनिक रियासतें देती थींI इन्ही सैनिकों का ज़िम्मा एक भारतीय अधिकारी पर होता थाI इसके निर्माण के बाद, इन सैनिकों ने चितराल (वर्तमान पाकिस्तान में), चीन, सोमालिया और साउथ अफ्रीका में जंगें लड़ींI
मगर शाही सेवा सैनिक स्कीम और भारतीय सेना के अन्य रेजिमेंट के सिपाहियों की संयुक्त कुशलता बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक यानी 1910 के दशक के दौरान देखी गयी, जब प्रथम विश्व युद्ध छिड़ाI ये युद्ध दो शक्तियों – धुरी (Axis) और मित्र (Allies) देशों के बीच लड़ा गया था I धुरी शक्तियों में प्रमुख जर्मनी ने तुर्की के ओटोमन सल्तनत के साथ हाथ मिला लिया था, जिसके कारण दोनों ने अपने राज्य को पूर्व तक विस्तार करने की योजना बनाईI इसका मतलब ये था, सुएज कनाल जैसे कई ख़ास रास्तों और जगहों पर कब्ज़ा, जिसके माध्यम से अग्रेजों और भारत समेत उनके अन्य उपनिवेशों के बीच सम्पर्क, तेल आदि के रास्तों का काटकर, मिस्र (Egypt), इज़रायल आदि देशों पर क्ब्ज़ाI
खतरे को भांपते हुए अंग्रेजों समेत कई प्रभावशाली ताकतों ने अपने तहत औपनिवेशिक देशों से अपनीं सेनाएं बुलाई और इनमें लगभग 37 भारतीय थल सेना की रेजिमेंट थे, जिनमें से अधिकतर ने यूरोप में लड़ाई की थीI इन्ही में थी पांचवीं कैवेलरी डिवीज़न की 15 इम्पीरियल सर्विस कैवेलरी ब्रिगेड, जिसमें हैदराबाद, मैसूर, और जोधपुर रियासत के सैनिक मौजूद थेI इसमें पटियाला, अलवर, कश्मीर, कठियावाड, भावनगर, और इदर जैसे रियासतों से छोटी टुकड़ियां भी शामिल थीं I इनकी ख़ास बात ये थी, कि इनके सैनिक घोड़े पर सवार होकर भाले और तलवार के ज़रिये लड़ते थेI ये जत्था सन 1914 में मिस्र पहुंचा और ईजिप्ट एक्सपीडिशनरी फ़ोर्स का हिस्सा बनाI
सन 1917 से लेकर 1919 तक, जब यूरोप में युद्ध के बादल छंटने लगे थे और इसका आखिरी पड़ाव मध्य एशिया तक पहुंचा, कई भारतीय रेजिमेंट इस क्षेत्र में मेसोपोटामिया और गालिपोली आदि में सक्रिय रूप से युद्ध कर रहे थे, वहीँ 15 इम्पीरियल सर्विस कैवेलरी ब्रिगेड इज़रायल और उसके आसपास के क्षेत्रों में लड़ाई कर रही थी, जिसमें मुघर, येरूशलेम, गाज़ा, फलिस्तीन, डमस्कस, शेरोन, और मेगिड़ो गिने जाते हैं I
मगर इनमें एक ऐसा युद्ध है, जिसको विश्व युद्ध इतिहास में आखिरी ऐसा युद्ध माना जाता है, जिसमें एक घुड़सवार सेना शामिल थी और ये था हाईफा का युद्धI 23 सितम्बर 1918 को लड़े गए इस युद्ध में भारतीय घुड़सवार सिपाहियों ने ओटोमन और जर्मन सैनिकों के आधुनिक हथियारों के सामने बिना झुके, भाले और तलवारों से अपनी लड़ाई लड़ी थीI इस युद्ध में करीब 700 शत्रु के सैनिक गिरफ्तार किये गए थे और मशीन गन समेत कई भारी हथियार भी हाथ आये थेI वहीँ भारतीय घुड़सवार सैनिकों के लगभग 60 घोड़े मारे गए थे और 83 घायल हुए थे और सैनिकों में 44 मारे गए थे और 34 जख्मी हुए I ये युद्ध भारतीय सैन्य इतिहास में एक अहम स्थान रखता है, क्यूंकि इसने ना सिर्फ भारतीय सैनिकों की बहादुरी को दुनिया के नज़र में एक नयी पहचान दी, बल्कि अब इज़रायिली लोग भारतीयों को एक सुरक्षा कवच के तौर पर भी देखने लगे थेI ये इस बात से भी साबित होता है कि, हाईफा की लड़ाई के दौरान मैसूर के घुड़सवारों के एक दस्ते ने बहाई समुदाय के पैगम्बर अब्दुल बाहा को ओटोमन सिपाहियों की गिरफ्त से बचाया थाI ये वही बहाई समुदाय है, जिसके करीब दो लाख अनुयायी भारत में रहते हैं और दिल्ली का मशहूर बहाई मंदिर इस बात का प्रमाण हैI
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, इजराइल में कोई खासा युद्ध नहीं हुआI मगर सन 1939 से लेकर 1941 तक मिस्र और उत्तरी अफ्रीका के अन्य देशों में हो रहे युद्ध में चौथी इंडियन ब्रिगेड के कई जाबांज धुरी शक्तियों से लड़ते हुए मारे गए, और उनको मिस्र और इज़रायल में दफनाया गयाI ये विडम्बना है कि, धुरी शक्तियों के कई सिपाहियों को गिरफ्तार करके भारत के उन क्षेत्रों में नज़रबंद रखा गया था, जहां से उनके हाथों मारे गए कई भारतीय सैनिक ताल्लुक रखते थे!
सन 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद, सन 1951 में जब भारतीय रियासतों की सेना से स्वतंत्र भारत के थल सेना में शामिल किया गया, तो मणिपुर, त्रिपुरा और भोपाल जैसी रियासतों से सेनाओं को निलम्बित करके, अन्य रियासतों की सेनाओं को मिलाकर मद्रास रेजिमेंट, गढ़वाल राइफल्स और मराठा लाइट इन्फेंट्री जैसी रेजिमेंट बनाई गयींI ठीक वैसे ही, जिन घुड़सवार सैन्य दलों ने इजराइल में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान हिस्सा लिया था, उनमें से कईयों को मिलाकर 61 कैवेलरी की स्थापना की गयी, जो आज जयपुर में मौजूद है I भारत के कई युद्धों में हिस्सा ले चुका ये रेजिमेंट आज दुनिया के चंद घुड़सवार सैन्य दलों में से एक हैI
बहुत लोग नहीं जानते, कि हाईफा के युद्ध में भारतीय सैनिकों की वीरता इज़रायल के स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल है, जिसके कारण वहाँ हर बच्चा उनकी बहादुरी से वाक़िफ हैI दुर्भाग्यवश, इसकी जानकारी आज भी भारत में बहुत लोगों को नहीं हैI बात यहाँ खत्म नहीं होती I प्रथम विश्व युद्ध के दौरान मारे गए भारतीय सैनिकों को पहचान अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अधिक मिली, और इसका प्रमाण हमें सिर्फ इज़रायल और मिस्र ही नहीं, बल्कि बेल्जियम, ब्रिटेन, फ्रांस. जर्मनी और यहाँ तक माल्टा के भी युद्ध स्मारकों में मिलता है, जहां इनकी कब्रें मौजूद हैंI इनकी बागडोर आज राष्ट्रमंडल कब्र कमीशन (Commonwealth Graves Commission) के हाथों में हैI I वहीँ भारत में बहुत कम जगहों में इनको सम्बोधित स्मारक है, और वो हैं कर्नाटक में बेंगलूरू और तमिलनाडू में चेन्नई, और तिरुचिनाप्पल्लीI वहीँ दिल्ली में मौजूद शहीदों के चिन्ह कहे जाने वाला इंडिया गेट मूल रूप से तीसरे आंगल-अफ़गान युद्ध और प्रथम विश्व युद्ध में शहीद हुए भारतीय सैनिकों को समर्पित हैI साथ-ही-साथ मध्य दिल्ली के साउथ एवेन्यू में तीन मूर्ति-हाईफा चौक में स्थित स्मारक हाईफा के युद्ध में शहीद हुए भारतीय सैनिकों को समर्पित हैI दिल्ली छावनी में स्थित दिल्ली युद्ध स्मारक भी इनमें प्रमुख हैI सन 2018 में हाईफा के युद्ध के सौ वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य पर इज़रायली सरकार ने भारतीय सेना को समर्पित एक डाक टिकट जारी कियाI
आज लगभग हर वर्ष भारतीय राजनेताओं और सैन्य प्रमुखों का एक जत्था इज़रायल में अपने जाबांजों को श्रद्धांजलि देने ज़रूर आता है और ये परम्परा भारत में भी लागू है, जहां प्रतिवर्ष 23 सितम्बर भारतीय सेना हाईफा दिवस के तौर पर मनाती हैI
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