टाटा कैंसर मेमोरियल अस्पताल की कहानी

टाटा कैंसर मेमोरियल अस्पताल की कहानी

सन 1930 के दशक में एक दिन प्रशांत तट से रवाना हुए एक जहाज़ पर दो व्यक्ति सवार हुए। उनमें एक अमेरिकी और एक भारतीय था। वह दोनों, कोई ऐसा काम करने की बात कर रहे थे, जो भारतीय उपमहाद्वीप और एशिया में अपनी तरह का पहला अनूठा काम हो या उससे पहले कभी नहीं हुआ हो। ये दो व्यक्ति थे डॉ. जॉन स्पाइस और सर नौरोजी सकलतवाला,जो तब टाटा समुह के अध्यक्ष थे। उनकी बातचीत , बाद में टाटा मेमोरियल अस्पताल के रूप में सामने आई। 

मुम्बई के परेल में स्थित, टाटा मेमोरियल अस्पताल पिछले आठ दशक से मानवता की सेवा कर रहा है, और ये कैंसर पर शोध और इलाज में एक अव्वल दर्जे का नाम है। इसके निर्माण के पीछे संघर्ष और पक्के इरादे की कहानी है।

सर नौरोजी सक्लतवाला की कब्र | विकिमीडिया कॉमन्स

20वीं सदी की शुरुआत में, भारत की स्वास्थ के क्षेत्र में, धीमी रफ़्तार से ही सही, लेकिन कैंसर पर ध्यान दिया जाने लगा था, और इस पर शोध होने लगे थे। इम्पीरियल कैंसर रिसर्च फ़ंड ने कैंसर फैलने और इसकी प्रकृति को समझने के लिए अपना काम शुरु कर दिया था, वहीं रेडियम उपचार (कैंसर के इलाज के लिए उच्च-ऊर्जा विकिरण का उपयोग) के बारे में, रांची रेडियम संस्थान (1923 में स्थापित) जैसे संस्थानों ने इस दिशा में पहल शुरु कर दी गई थी। हालांकि जागरूकता तब भी सीमित थी और इस क्षेत्र में शोध कार्य भी नहीं के बराबर था।

लेकिन बॉम्बे (अब मुंबई) में कुछ ऐसा हुआ, जिसने इतिहास को हमेशा के लिए बदल दिया। 18 जून,सन 1931 को अपनी पत्नी मेहरबाई टाटा को एक दुर्लभ बीमारी, ल्यूकेमिया से खोने देने के बाद, मशहूर उद्योगपति और परोपकारी सर दोराबजी टाटा ने दो ट्रस्ट, लेडी टाटा मेमोरियल ट्रस्ट और सर दोराबजी टाटा ट्रस्ट कायम किए। लेडी टाटा मेमोरियल ट्रस्ट ने जहां मानव रोग समस्याओं के समाधान के लिए युवाओं को प्रोत्साहित किया, जबकि सर दोराबजी टाटा ट्रस्ट एक बहुउद्देश्यीय धर्मार्थ ट्रस्ट था। दिलचस्प बात यह है, कि सर दोराबजी टाटा ट्रस्ट को क़ायम करने में उन्होंने जो संपत्ति निवेश की थी, उसमें प्रसिद्ध जुबली हीरा भी शामिल था जो, आज दुनिया का छठा सबसे बड़ा हीरा माना जाता है! ये हीरा  सर दोराबजी टाटा ने अपनी पत्नी मेहरबाई को तोहफ़े में दिया था।

जुबिली डायमंड | पिनट्रस्ट

इसी दौरान, दोराबजी की मुलाक़ात बॉम्बे के तत्कालीन गवर्नर सर फ्रेडरिक साइक्स से हुई, जिन्होंने दोराबजी को बॉम्बे में कैंसर के इलाज के लिए रेडियम संस्थान की स्थापना करने का सुझाव दिया। हालांकि दोराबजी, बॉम्बे के एक अस्पताल (नाम पता नहीं) में रेडियम विंग स्थापित करने का अपना प्रयास शुरू चुके थे, लेकिन वे इसे आगे नहीं बढ़ा सके क्योंकि पत्नी की मौत के क़रीब एक साल बाद 3 जून, सन 1932 को उनका भी निधन हो गया।

लेकिन जिस जज़्बे के साथ दोराबजी ने अपनी यात्रा शुरू की थी, वह कम नहीं हुआ। दोराबजी के अधूरे सपने को पूरा करने के लिए नए अध्यक्ष सर नौरोजी सकलतवाला के नेतृत्व में ट्रस्टी एकजुट हो गए। हालांकि शुरुआत में ज़्यादा कामयाबी नहीं मिली, क्योंकि भारत में कैंसर और इसके उपचार के बारे में ज्ञान अभी भी अधूरा था, फिर 1920 के दशक के दौरान अमेरिका में इसके अधिक उपयोग से हुई मौतों के कारण रेडियम उपचार ने ट्रस्टियों में शक पैदा कर दिया था। इसके अलावा सन 1930 की आर्थिक मंदी से भी मिशन को आगे बढ़ाने में मुश्किलें पैदा हो गईं थीं।

लेकिन इस दौरान एक दिलचस्प धटना हुई। प्रशांत महासागर में एक यात्रा के दौरान सकलतवाला की मुलाक़ात डॉ. जॉन स्पाइस से हुई जो उस समय पेकिंग यूनियन मेडिकल कॉलेज की कैंसर सेवा के प्रमुख थे। बातचीत में दोनों भारत में एक कैंसर अस्पताल खोलने पर सहमत हुए। स्पाइस के ज्ञान से प्रभावित होकर, सकलतवाला ने उन्हें अपने साथ ले लिया, लेकिन जब विलक्षण प्रतिभा के धनी जेआरडी टाटा को इस बारे में पता चला, तो उन्होंने साफ़ कह दिया कि अस्पताल औपनिवेशिक सरकार की, किसी भी तरह की मदद के बिना ही काम करेगा। 

सर दोराबजी टाटा | विकिमीडिया कॉमन्स

सन 1935 से स्पाइस ने भारत में प्रचलित बीमारियों को समझने के साथ-साथ यूरोप और अमेरिका में कैंसर अस्पतालों का दौरा किया और सर्वेक्षण किया। व्यापक यात्रा और शोध के बाद स्पाइस इस नतीजे पर पहुंचे, कि भारत में मौजूदा कैंसर से जुड़ी समस्याओं के इलाज के लिए एक मात्र रेडियम संस्थान नाकाफ़ी होगा। उन्होंने यह भी कहा, कि रेडियम उपचार में त्वचा, मुंह, होंठ और गाल जैसे कई कैंसरों को ठीक करने की क्षमता होती है। कैंसर के इलाज में रेडियम की एहमियत को समझते हुए, ट्रस्टियों ने बॉम्बे में इस रोग के उपचार के लिए अस्पताल के निर्माण पर काम शुरू किया, जो अनुसंधान के लिए सुविधाओं से लैस होना था। इसके अलावा कुछ पश्चिमी देशों के प्रमुख कैंसर संस्थानों में प्रचलित नवीनतम परिपाटियों के आधार पर सलाह भी लेने का फ़ैसला किया गया।

सन 1937 तक, 30 लाख रुपये के अनुदान के साथ टाटा मेमोरियल अस्पताल पर काम शुरू हो गया था, और भारतीय चिकित्सा कर्मचारियों को कैंसर के प्रचलित इलाज की जानकारी लेने के लिए यूरोप और अमेरिका के विभिन्न क्लीनिकों में भेजा गया। लेकिन दूसरे विश्व युद्ध (1939-1945) के शुरू होने से अस्पताल का काम रुक गया और कुछ अमेरिकी विशेषज्ञों के साथ-साथ स्पाइस भी मिशन को बीच में ही छोड़कर चले गए।

इससे परेशान हुए बिना टाटा ने अपने मिशन को आगे बढ़ाया और आख़िरकार 28 फ़रवरी,सन 1941 को सात मंज़िला टाटा मेमोरियल अस्पताल के रुप में सपना साकार हुआ, जो अनुसंधान की नवीनतम अत्याधुनिक चिकित्सा सुविधाओं से लैस था। ये न सिर्फ़ भारत में बल्कि एशिया में भी अपनी तरह का पहला कैंसर अस्पताल था। इसका उद्घाटन करते हुए बॉम्बे के तत्कालीन गवर्नर सर रोजर लुमले ने कहा था, “यह अस्पताल कैंसर के ख़िलाफ़ अंतर्राष्ट्रीय लड़ाई में भारत का पहला बड़ा योगदानहै।”

टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल पर भारत सरकार द्वारा जारी किया डाक टिकट | विकिमीडिया कॉमन्स

लगभग कई दशकों तक, टाटा मेमोरियल अस्पताल एशिया में कैंसर के इलाज का एकमात्र केंद्र बना रहा, जहां भारत और एशिया के मरीज़ इलाज के लिए आने लगे थे। सन 1952 में यह अस्पताल भारतीय कैंसर अनुसंधान केंद्र (अब कैंसर अनुसंधान संस्थान) का जन्मस्थान भी बना। 

टाटा मेमोरियल अस्पताल अब परमाणु ऊर्जा विभाग के तहत काम करता है। यहां कैंसर से संबंधित जानकारियों और इलाज पर काम हो रहा है। यहां कैंसर के लिए बोन मैरो ट्रांस्प्लांट और रोबोटिक्स सर्जरी (भारत में पहली बार) जैसे उपचार के नए तरीक़े अपनाए जा रहे हैं। आज, यह कैंसर के इलाज का अत्याधुनिक अनुसंधान केंद्र है, जहां हर साल लगभग 65 हज़ार रोगी आते हैं जिनमें से 70 फ़ीसदी से अधिक रोगियों का मुफ़्त इलाज किया जाता है। अब देश भर में इस संस्थान की शाखाएं खोली जा रही हैं।

मुख्य चित्र: नाईसलोकल

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