लालन शाह: सांप्रदायिकता और कट्टरवाद से लड़ने वाला फ़क़ीर

लालन शाह: सांप्रदायिकता और कट्टरवाद से लड़ने वाला फ़क़ीर

सब लोग पूछें लालन की ज़ात जगत में,

लालन कहे जाति का रूप, देखा न इस नज़र से।

ये पंक्तियां एक संत ने लिखी और गाई थीं,  जो भारत और बांग्लादेश में समान रूप से पूजनीय है। लालन शाह फ़क़ीर के आदर्शवादी गीतों में एक ऐसा समाज दिखाई देता है, जहां सभी धर्मों और आस्थाओं के लोग आपसी सद्भाव के साथ रहते हैं। लालन शाह फ़कीर एक रहस्यवादी, दार्शनिक, गीतकार और संगीतकार के रूप में जाने जाते हैं, लेकिन कई विद्वान उन्हें एक समाज सुधारक के रूप में भी देखते हैं। उनकी मौजूदगी के बारे में चूंकि लिखित रुप में कुछ उपलब्ध नहीं है, इसलिए उनके जीवन के बारे में कुछ ख़ास जानकारी नहीं मिलती है। उनपर हुए व्यापक शोध में उनकी तुलना 15वीं शताब्दी के कवि-संत कबीर के साथ की गई है।

माना जाता है, कि लालन शाह फ़क़ीर का जन्म एक पिछड़ी जाति के हिंदू परिवार में 17 अक्टूबर, सन 1774 को कुश्तिया (मौजूदा समय में,खुलना ज़िला- बांग्लादेश) के भरारा गांव में हुआ था, लेकिन कुछ लोगों का यह भी मानना है, कि उनका जन्म पश्चिम बंगाल के नादिया ज़िले में हुआ था। पिता की असामयिक मृत्यु के बाद कम उम्र में ही लालन पर उनके परिवार की ज़िम्मेदारी आ गई थी ।

लालन-फ़कीर-के-जीवनकाल-में-बना-उन-का-रेखांकित-चित्र | विकी-कॉमन्स

वह फ़क़ीर कैसे बने ,इसके बारे में भी एक कहानी मशहूर है। मुर्शिदाबाद (अब पश्चिम बंगाल) में तीर्थयात्रा से लौटते समय (कुछ लोग जगन्नाथ पुरी, ओडिशा बताते हैं), उन्हें चेचक की बीमारी हो गई, और वह बेहोश हो गए। उनके साथी यात्रियों ने उन्हें मृत मानकर नदी में बहा दिया। होश आने पर उन्होंने ख़ुद को एक स्नान घाट (जो जेसोर, बांग्लादेश में माना जाता है) में पाया, और उन्होंने मदद के लिए पुकार लगाई। उनकी आवाज़ सुनकर एक मुस्लिम बुनकर मालम शाह ने उन्हें बचाया और उन्हें अपने घर ले गया। वहां उन्हें स्वस्थ होने में काफ़ी समय लगा। चेचक की वजह से उनके चेहरे पर स्थायी निशान पड़ गए थे, और उनकी एक आंख भी जाती रही थी।

जब लालन अपने गांव लौटे, तो लोग उन्हें ज़िंदा देखकर हैरान रह गए। ये मानकर कि लालन मर चुके हैं, गांव के लोगों ने उनका अंतिम संस्कार कर दिया था। गांव वाले इस बात से भी नाराज़ थे, कि वह कई दिनों तक मुस्लिम परिवार के साथ रहे थे। इस वजह से उन्हें ज़ात बाहर कर दिया गया। इससे निराश होकर लालन को संस्थागत धर्मों, और जाति व्यवस्था से नफ़रत हो गई। आगे चलकर उन्होंने भौतिक जीवन को त्यागने का निश्चय किया। कथाओं के अनुसार इस दौरान उनकी एक स्थानीय सूफ़ी फ़क़ीर सिराज सेन से मुलाकात हुई और वह उनके शिष्य बन गए। इसके बाद उनका जीवन ही बदल गया और उन्होंने “बाउल दर्शन” की खोज की।

लालन फकीर का नाम उनके शिष्य भलायी शाह द्वारा लिखित | विकी कॉमन्स

कहा जाता है, कि बाउल दर्शन का विकास 15वीं शताब्दी के दौरान हुआ था। बाउल दर्शन सृष्टि के रहस्यों के आधार पर सरल भक्ति की नुमाइंदगी करता है, जो सृष्टि के निर्माण और निर्माता के रहस्य पर आधारित है, और जो हर धर्म के सत्य को जोड़ता है। इस संप्रदाय के अनुयायी ग़ैर-रूढ़िवादी थे। दिन के समय  वे अपने एकतारा (एक तार वाला लोक वाद्य) के साथ भिक्षा मांगते थे, आम लोगों के सामने अपने गीतों की रचना करते थे और गाते हुए घूमते थे। रात में वे सामूहिक चर्चा और गायन के लिए अपने अखाड़े (बाउल समुदाय की बस्ती) लौट जाते थे। उन्होंने कभी अपने गीत नहीं लिखे, बस घूम घूमकर गाते रहे। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जब उनके गाने लिखे गये,तब उनके गीतों में कई लोगों ने उत्तर भारतीय संत-कवियों के गीतों के सार, मुहावरे, शैली, स्पष्टता और छिपे हुए अर्थों के बीच समानता पाई।

लालन फकीर की मजार में बौल गीत गाते श्रद्धालु | विकी कॉमन्स

जैसे-जैसे समय बीतता गया, सेन के निधन (1823) के बाद, लालन ने चेउरिया, (कुश्तिया जिला, बांग्लादेश ) में अपना ख़ुद का अखाड़ा स्थापित किया। यहां उन्होंने गांवों के वंचित लोगों के बीच धर्मनिरपेक्षता और ग़ैर-रूढिवादी विचारों का प्रचार किया। सादा जीवन जीते हुए उन्होंने भक्ति गीतों की रचना की और गायन जारी रखा।

लालन बौद्धिक और भावनात्मक स्थिति को बदलने के लिए संगीत की शक्ति में विश्वास करते थे। उनका मानना था, कि यह जीवन को समझने और उसकी सराहना करने के लिए ज़रुरी है। विषयगत रूप से, उनके गीतों ने ‘शरीर सभी सत्यों का स्थान है’ की अवधारणा का अनुसरण किया। उनके गीतों में दोहराव होता था, और वे बिखरे हुए होते थे। उनके गीतों में संवाद होते थे, और जो कभी-कभी अति-नाटकीय भी हो जाते थे, जहां वे रसूल, नबी, निरंकार, कलाम या ख़ुदी जैसी अवधारणाओं को भी संबोधित करते थे। उनके गीतों में बौद्ध धर्म, वैश्यवाद और सूफ़ीवाद का प्रभाव साफ़ दिखाई पड़ता था। उन्होंने मानवीय उदार धार्मिक अवधारणाओं को अपने गीतों में पिरोया और एक ऐसा समाज बनाने की तरफ़ इशारा किया जो धार्मिक, नस्लीय और जाति-आधारित भेदभाव से मुक्त हो।

दिलचस्प बात यह है, कि बाउल दर्शन में महिलाओं को एक विशेष स्थान दिया गया है। लालन के गीतों में महिलाओं को इस हद तक अधिकार, सम्मान और समानता दी गई है, जिसकी कल्पना हम आज भी नहीं कर सकते। इन गीतों के आधार पर “लालनगीत शैली” ईजाद हो गई है,जो वर्षों से बंगाली लोक संगीतों में, सबसे मशहूर लोक शैली के रूप में उभरी है।

कहा जाता है, कि लालन ने लगभग दस हज़ार गीतों की रचना की, जिनमें से आठ सौ प्रामाणिक गीत माने जाते हैं। बाक़ी में से कई या तो मौखिक रूप से लोगों के सामने आए या फ़क़ीर मनीरउद्दीन शाह जैसे उनके शागिर्दों द्वारा लिखे गए थे।

कहानियों और क़िस्सों के अनुसार, वह कई प्रभावशाली ज़मींदार परिवारों सहित गांव के लोगों में बहुत लोकप्रिय थे। उनको पसंद करनेवालों में मशहूर टैगोर परवार भी शामिल था। ऐसा कहा जाता है, कि उनके गीतों ने बचपन में रवींद्रनाथ टैगोर को भी प्रेरित किया था, जिसका प्रभाव बाद में उनके गीतों में दिखाई पड़ा।

17 अक्टूबर,सन 1890 को लालन फ़क़ीर का, 116 वर्ष की उम्र में, उनके अखाड़े में निधन हो गया। कहा जाता है, कि उस समय तक उनके लगभग दस हज़ार शिष्य बन चुके थे, जो उन्हें सेन यानी ‘भगवान’ मानते थे। बाद में उन्हें ‘शाह’ कहकर संबोधित किया गया, क्योंकि वह सहज पथ (मनुष्य में परमात्मा को देखना या पहचानना) से प्रभावित थे। लालन को ‘मोनर मानुष’ के नाम से जाना जाता था। इसी नाम से सन 2010 में उनके जीवन पर आधारित एक फिल्म भी बनी थी।

उनकी मृत्यु के बाद, कंगल हरिनाथ, क़ाज़ी नज़रूल इस्लाम जैसे कई समाज सुधारकों और कवियों ने लालन के विचारों को अपने विचारों और लेखन में शामिल किया। रवींद्रनाथ टैगोर ने उन्हें जनता के बीच लोकप्रिय बना दिया और वह उनके अखाड़े से लालन के गीतों की एक पांडुलिपि लेकर आए। 298 गीतों की प्रतिलिपि बनाई गई, जिनमें से 20 गीत उनकी पत्रिका “प्रवासी” में प्रकाशित हुए। अपने कुछ भाषणों और पुस्तकों में, टैगोर ने लालन के गीतों का हवाला देते हुए धर्म और दर्शन पर बात की। इस प्रकार, रहस्यवादी संत को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शौहरत मिल गई।

लालन फकीर की दरगाह , कुश्तिया, बांग्लादेश | विकी कॉमन्स

सन 1963 में, कुश्तिया के अखाड़े में एक मज़ार और अनुसंधान केंद्र बनाया गया जहां वसंत और शरद ऋतु (17 अक्टूबर को) के दौरान साल में दो बार मेला लगता है, जहां लोगों की भीड़ उमड़ती है। उनके नाम पर पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश में कुछ इमारतों और पुलों के नाम रखे गए हैं। उनके जीवन पर लगभग चार फ़िल्में बन चुकी हैं। प्रसिद्ध लेखक एलन गिन्सबर्ग ने सन 1992 में “आफ़्टर लालन” शीर्षक से एक कविता लिखी थी  जिसमें लोगों को शौहरत और सांसारिक चीज़ों से लगाव के ख़तरों से आगाह किया था। सन 2004 में बीबीसी के एक सर्वेक्षण में सर्वकालिक महान बंगालियों की सूची में लालन फ़क़ीर को 12वॉ स्थान मिला था।

लालन फकीर की मजार | विकी कॉमन्स

लालन की मृत्यु हुए 131 वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन उनका संगीत और संदेश, आज के सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक संदर्भ और भी ज़्यादा प्रासंगिक हो गया है। ख़ासतौर पर इसलिए भी, कि साम्प्रदायिकता और कट्टरपंथ अपनी चरम सीमा पर पहुंच चुके हैं।

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