भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में अरुणा आसिफ़ अली और भीकाजी कामा जैसी कई निडर महिला स्वतंत्रता सेनानियों ने हिस्सा लिया था। ऐसी ही एक स्वतंत्रता सेनानी थीं मातंगिनी हाज़रा, जिन्होंने बंगाल में स्वतंत्रता आंदोलन में अहम भूमिका निभाई थी। वह पहली महिला थीं, जिनके सम्मान में कोलकाता में प्रतिमा लगाई गई थी।
सन 1869 में मौजूदा पश्चिम बंगाल में तामलुक के पास होगला गांव में जन्मीं हाज़रा का बचपन बहुत कठिन दौर से गुज़रा था। उनका जन्म एक ग़रीब किसान परिवार में हुआ था, जो उनको पढ़ा नहीं सका। इस वजह से हाज़रा ने कभी औपचारिक शिक्षा नहीं ली। 12 साल की उम्र में उनकी शादी, 60 साल के त्रिलोचन हाज़रा से कर दी गई थी। 18 साल की उम्र में विधवा होने के बाद उन्होंने ख़ुद को पूरी तरह से सामाजिक कार्यों में लगा दिया।
यह 1900 के दशक की शुरुआत का समय था, जब उपनिवेशवाद-विरोधी भावना पूरे देश में पनप रही थी। नतीजे में, राष्ट्रवादी आंदोलन देश के विभिन्न हिस्सों में फ़ैलने लगा था। यह वह समय भी था, जब महात्मा गांधी ने जागरूकता बढ़ाने और स्वतंत्रता आंदोलन के लिए जन-समर्थन जुटाने के लिए पूरे देश का दौरा करना शुरू कर दिया था।
मातंगिनी हाज़रा भी सन 1905 के आसपास राजनीति में सक्रिय हो गईं। उनपर गांधी के विचारों और सिद्धांतो का गहरा प्रभाव पड़ा था। वह उनकी विचारधारा से इतनी प्रभावित थीं, कि उनकी समर्पित अनुयायी बन गईं थीं। उन्होंने सूत कातना, अपने हाथ से बनी खादी के कपड़े पहनना और ज़रूरतमंदों की सेवा करनी शुरु कर दी। दरअसल इन वर्षों में उनकी गांधीवादी मान्यताओं में उनके गहरे विश्वास के कारण, लोग उन्हें प्यार से गांधी बूढ़ी या बूढ़ी-महिला गांधी कहने लगे थे।
मातंगिनी हाज़रा की उम्र कभी उनके रास्ते की रुकावट नहीं बना। 62 साल की उम्र में उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन में सक्रिय रूप से हिस्सा लिया, और अलीना नमक केंद्र में नमक भी बनाया, जिसके लिए उन्हें गिरफ़्तार किया गया था। लेकिन कहा जाता है, कि उनकी उम्र को देखते हुए उन्हें फ़ौरन रिहा भी कर दिया गया था।
रिहाई के बा दवह स्वतंत्रता आंदोलन में और भी सक्रिय हो गईं। लेखक भौमिक मणि ने अपनी किताब ‘कोड नेम गॉड‘ में एक दिलचस्प क़िस्से का ज़िक्र किया है। एक बार डिस्ट्रिक्ट कैपिटल में एक स्वतंत्रता जुलूस निकाला गया था। जुलूस राज्यपाल के आवास की ओर बढ़ रहा था। भौमिक लिखते हैं, “मतांगिनी स्वतंत्रता आंदोलन का झंडा ऊंचा उठाकर जुलूस के आगे-आगे चल रहीं थीं। जैसे ही जुलूस गवर्नर की बालकनी के सामने पहुंचा, उन्होंने अचानक संगीनों का घेरा तोड़ दिया और बालकनी पर चढ़ गई। इससे पहले कि स्तब्ध सैनिक उन्हें नीचे उतार पाते, वह अपना बैनर लहराने लगीं और चीख़ने लगीं, “वापस जाओ, लाट साहब!” इस घटना के बाद उन्हें गिरफ़्तार कर छह महीने के लिए जेल में डाल दिया गया।
रिहाई के बाद वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सक्रिय सदस्य बन गईं। उन्होंने सेरामपुर में उप-मंडल कांग्रेस सम्मेलन में भाग भी लिया। कहा जाता था वहां हुए पुलिस लाठीचार्ज में वह घायल हो गईं थीं।
सन 1942 में उनके जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया। दूसरे विश्व युद्ध के लिए भारतीय का पूर्ण समर्थन हासिल करने के लिए क्रिप्स मिशन की नाकामी के बाद 8 अगस्त,सन 1942 को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी में ‘भारत छोड़ो आंदोलन‘ या “अगस्त आंदोलन” शुरु करने की घोषणा हुई। यहां महात्मा गांधी ने अपने भाषण में “करो या मरो” का नारा दिया था।
इस घोषणा के अगले ही दिन पूरे भारत में सभी बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। नतीजन भारत के स्थानीय नेताओं ने आंदोलन को आगे बढ़ाया। बंगाल में, मिदनापुर ज़िले के तामलुक उपमंडल ने आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यहां एक समानांतर नागरिक प्रशासनिक व्यवस्था का गठन किया गया था, जिसे “ताम्रलिप्ति जातीय सरकार” के रूप में जाना जाता था। ये नागरिक प्रशासनिक व्यवस्था ब्रिटिश शासन के जवाब में थी।
इस सरकार से सतीश चंद्र सामंत, सुशील कुमार धारा, अजय मुखर्जी और मातंगिनी हाज़रा जैसे प्रमुख लोग जुड़े हुए थे। इस सरकार ने सैन्य विभाग और पुलिस थाने बनाए तथा राजस्व जमा करने के लिए एक प्रणाली स्थापित की, और स्कूलों के लिए अनुदान भी किया। इसका अपना अख़बार “बिप्लबी” भी था। जिस साल इस सरकार की स्थापना हुई थी, उसी साल मिदनापुर में एक विनाशकारी चक्रवात आया जिसमें जान-माल का भारी नुक़सान हुआ। सरकार ने प्रभावित क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर बाढ़ राहत कार्य किए।
मिदनापुर में स्वतंत्रता आंदोलन में बड़े पैमाने पर महिलाओं की भागीदारी भी आकर्षण का मुख्य कारण बन गई थी। “विद्युत वाहिनी” नाम की एक सेना का गठन करने के बाद जातीयसरकार ने महिला प्रतिनिधियों को प्रशिक्षण देने के लिए एक “सिस्टर्स आर्मी कैंप” का आयोजन किया।
इस दौरान भारत छोड़ो आंदोलन के एक हिस्से के रूप में कांग्रेस के सदस्यों ने ब्रिटिश सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए मिदनापुर के विभिन्न पुलिस स्टेशनों और अन्य सरकारी कार्यालयों पर कब्ज़ा करने की योजना बनाई। हाज़रा उस समय 72 साल की हो चुकी थीं, लेकिन उन्होंने तामलुक पुलिस थाने पर क़ब्ज़ा करने के लिए छह हज़ार लोगों के एक जुलूस का नेतृत्व किया, जिनमें ज़्यादातर महिलाएं थीं। जैसे ही जुलूस शहर के बाहरी इलाक़े में पहुंचा, धारा 144 लगा दी गई और पुलिस ने भीड़ को तुरंत चले जाने को कहा।
पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच संघर्ष के दौरान मातंगिनी हाज़रा ने अपने हाथ में स्वतंत्रता आंदोलन का झंडा लेकर पुलिस से प्रदर्शनकारियों पर गोली न चलाने का अनुरोध किया। लेकिन पुलिस ने दो बार उनकी बाहों में गोली मारी। इसके बावजूद वह वंदे मातरम का नारा लगाते हुए आगे बढ़ती गईं। इस बीच उनके माथे पर गोली मारी गई। वह ज़ख्मी हो कर गिर पड़ीं, और उन्होंने वहीं दम तोड़ दिया।
उनके देहांत के ठीक पांच साल बाद भारत को आज़ादी मिल गई। मातंगिनी हाज़रा के सम्मान में पश्चिम बंगाल में कई कॉलोनियों, स्कूलों और सड़कों के नाम रखे गए। सन 1977 में, कोलकाता में उनकी प्रतिमा भी स्थापित की गई थी। दिलचस्प बात यह है, कि स्वतंत्र भारत में, कोलकाता में लगाई गई ये किसी महिला की पहली प्रतिमा थी।
सन 2002 में भारत सरकार के डाक विभाग ने ताम्रलिप्ति जातीय सरकार का एक स्मारक डाक टिकट जारी किया, जिस पर मातंगिनी हाजरा की तस्वीर छपी थी।
आज जहां मातंगिनी हाज़रा पश्चिम बंगाल में एक जानी-मानी शख़्सियत हैं, लेकिन वह उन भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों में से एक हैं, जिन्हें लोग कम ही जानते हैं।
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