भारत का सर्वोच्च वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र किसी भी सैनिक के लिये उसके जीवन का ख़्वाब होता है। इन वर्षों में जिन्हें भी ये पुरस्कार मिला है, वे कई भारतीयों के नायक रहे हैं, जो इससे प्रेरित होकर वे सेना में शामिल हुए हैं देश और बहादुरी की विरासत को आगे बढ़ाया है। इन वीरों की बहादुरी के कारण उनके नाम पर कई संस्थानों के नाम भी रखे गये हैं।
इस पुरस्कार से सम्मानित लेफ़्टिनेंट अरुण खेत्रपाल और कैप्टन विक्रम बत्रा जैसे युवा सैनिक अपनी बहादुरी से युवाओं को प्रेरित करते रहते हैं, वहीं पुराने योद्धा ब्रिगेडियर होशियार सिंह दहिया, कर्नल धान सिंह थापा, और होनोरेरी कैप्टेन बाना सिंह ने समाज की मुख्यधारा से जुड़कर अपनी अदम्य भावना से इसके विकास में योगदान किया।
इसकी स्थापना के बाद से ये पदक यह थल, जल या वायु क्षेत्र में दुश्मनों के ख़िलाफ़ बहादुरी, साहस, वीरता या फिर आत्म-बलिदान के लिए सैनिकों को दिया जाता रहा है। दिलचस्प बात ये है कि इसकी स्थापना और इससे सम्मानित होने वाले पहले व्यक्ति की कहानी का सम्बंध, इस पदक को डिज़ायन करने वाले व्यक्ति से है!
कांसे का बना परमवीर चक्र गोलाकार है, और इसका व्यास 1.375 इंच है। मध्य सतह पर एक उभरे हुए घेरे पर भारत का राष्ट्रीय प्रतीक सत्यमेव जयते मौजूद है, जो चारों तरफ़ से वज्र से घिरा हुआ है, जिसे भगवान इंद्र का हथियार माना जाता है। इसके पीछे हिन्दी और अंग्रेज़ी में लिखे ‘परमवीर चक्र’ के नाम के चारों ओर कमल के फूल हैं। यह पदक 1.3 इंच के बैंगनी रंग रिबन के साथ सीधी-घुमावदार पट्टी से लटका हुआ है।
पिछले समय में, भारत में सबसे बहादुर सैनिकों को राजा/महाराजा सोने के बैंड या पट्टिका से सम्मानित करते थे। किसी को लगान-मुक्त भूमि, सम्मान, उपाधियां, वस्त्र दिए जाते थे और कुछ के नाम पर स्मारक भी बनाये जाते थे। मुग़ल शासन में ‘अतहर ख़ां’ (विजय के सरदार) या शुजाअत ख़ां (बहादुरी के सरदार) जैसे ख़िताबों से नवाज़ा जाता था।
वीरता पुरस्कारों की परंपरा की शुरूआत अंग्रेज़ों ने की थी। उन्होंने सन 1795 में अपने भारतीय सैनिकों को स्वर्ण पदक देने शुरु किये थे। इसके बाद सन 1834 में ऑर्डर ऑफ़ मेरिट पुरस्कार की शुरुआत हुई। सन 1902 में इसका नाम इंडियन ऑर्डर ऑफ़ मेरिट (आईओएम) कर दिया गया। क्रीमिया युद्ध (1855) के बाद बहादुर सैनिकों को विक्टोरिया क्रॉस दिया जाने लगा। ये सम्मान पहले विश्व युद्ध (1914-1919) के बाद भारतीय सैनिकों को दिया जाता था।
दूसरे विश्व युद्ध (1939-1945) के बाद जब भारत एक स्वतंत्र देश बनने वाला था, सैन्य प्रतिष्ठान में बदलाव आने लगे, जिसके बाद सैन्य पुरस्कारों में भी बदलाव हुये। सन 1947 में आज़ादी मिलने के बाद भी भारत पर सन 1950 तक ब्रिटिश प्रभुत्व था, जिसके प्रमुख इंग्लैंड का सम्राट होता था।
एक तरफ़ जहां रियासतें भारतीय संघ का हिस्सा बन रही थीं, वहीं हैदराबाद और जम्मू- कश्मीर रियासतें विलय का विरोध कर रहीं थीं। भौगोलिक और सांप्रदायिक स्थिति की वजह से कश्मीर पर पाकिस्तान का ख़तरा मंडरा रहा था। पाकिस्तान ने हमला करके कश्मीर को घेर भी लिया था। हालांकि तब तक कश्मीर के महाराजा हरि सिंह भारत में विलय की संधि पर हस्ताक्षर कर चुके थे। बहरहाल, इसी वजह से कश्मीर युद्ध (1947-48) हुआ।
जैसे-जैसे युद्ध आगे बढ़ा, भारत के पहले प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने युद्ध लड़ रहे सैनिकों के लिए वीरता पुरस्कारों का मामला उठाया। कई लोगों का मानना था, कि राष्ट्रमंडल सम्मान इसके के लिये मुनासिब हो सकते हैं। लेकिन क्योंकि यह पुरस्कार या सम्मान,भारतीय सैनिकों को भारत की अपनी लड़ाई के लिए, भारत सरकार की तरफ़ से दिये जाने थे, इसलिए यह फैसला किया गया, कि पदक पूरी तरह से भारतीय होंने चाहिये। नेहरू ने नये पदक को डिज़ाइन करने के लिये के पहले भारतीय एडजुटेंट जनरल, मेजर जनरल हीरा लाल अटल (1905-1985) से बात की। इस काम के लिये अटल ने अपने क़रीबी सहयोगी और सेना के वरिष्ठ अधिकारियों में से एक विक्रम खानोलकर से उनकी पत्नी सावित्रीबाई खानोलकर की मदद के लिये से संपर्क किया।
सावित्रीबाई खानोलकर का नाम पहले इवा योन्ने लिंडा माडे-डे-मारोज़ था। उनका जन्म 20 जुलाई, सन 1913 को स्विट्ज़रलैंड में हुआ था। उनकी मां रूस और पिता हंगरी के रहनेवाले थे। सावित्रीबाई की विक्रम से पहली मुलाक़ात, सन 1929 में, शैमॉनिक्स (फड्रांस) में स्कीइंग अवकाश के दौरान हुई थी। उस समय विक्रम एक कैडेट थे, जो सैंडहर्स्ट के रॉयल मिलिट्री कॉलेज में सैन्य प्रशिक्षण ले रहे थे। उम्र में आठ साल का अंतर होने के बावजूद सावित्रीबाई ने पत्र लिखने के लिए विक्रम का पता ले लिया। विक्रम की भारत वापसी और औरंगाबाद में 5/11 सिख रेजीमेंट में अधिकारी बनने के बावजूद दोनों के बीच संपर्क बना रहा, और इस दौरान दोनों में प्रेम हो गया।
अपने परिवार वालों की इच्छा के ख़िलाफ़ सन 1932 में सावित्रीबाई बंबई आईं और उन्होंने विक्रम से शादी कर ली। शादी के बाद वह हिंदू धर्मग्रंथ और पौराणिक कहानियां पढ़ने लगीं। उन्होंने पटना विश्वविद्यालय में दाख़िला ले लिया, जहां उन्होंने हिंदी, मराठी, संस्कृत भाषा, शास्त्रीय भारतीय संगीत और नृत्य भी सीखा। उन्होंने एक पौराणिक चरित्र के आधार पर ख़ुद का नाम बदलकर सावित्रीबाई रख लिया। सावित्री वो पौराणिक चरित्र था, जिसने यमराज को भी अपने फ़ैसले को बदलने, और अपने पति सत्यवान को दोबारा जीवित करने के लिए मजबूर कर दिया था।
मेडल के डिज़ायन को सही मायने में भारतीय रुप देने के लिये सावित्रीबाई ने ऋषि दधीचि की कहानी का अध्ययन किया।
पौराणिक कथाओं के अनुसार जब एक राक्षस वृत्रा ने दुनिया के पानी पर कब्ज़ा कर लिया और भयानक सूखा पैदा कर दिया। तब इंद्र ने भगवान विष्णु से सलाह मांगी। विष्णु ने सलाह दी, कि ऋषि दधीचि की हड्डियां लाई जाएं और उनसे एक हथियार बनाया जाए, उसी हथियार से वृत्रा को मारा जा सकता है। जब ऋषि दधीचि को यह बात बताई गई, तो उन्होंने अपनी हड्डियों का बलिदान कर दिया। फिर इंद्र ने उन्हीं हड्डियों से वज्र( बिजली/गर्जन) बनाया गया। फिर राक्षस वृत्र को मारने और पृथ्वी को बचाने के लिये वज्र का उपयोग किया गया।
ऋषि दधाचि की कहानी से प्रेरणा लेते हुए सावित्री बाई ने वज्र को मुख्य डिज़ायन के रूप में इस्तेमाल किया और इसमें शिवाजी की तलवार ‘भवानी’ को जोड़ा। डिज़ायन के उभरे हुये घेरे पर सत्यमेव जयते का राष्ट्रीय चिन्ह लगाया। इसे परमवीर चक्र का नाम दिया गया, जो ‘बहादुर से भी सबसे बहादुर’ को सम्मानित करने के लिये था। रंग बैंगनी चुना गया था, जो कि ब्रिटेन की सर्वोच्च सैन्य सम्मान विक्टोरिया क्रॉस का भी रंग है। परमवीर चक्र के बाद महावीर चक्र और वीर चक्र जैसे पदकों की भी रचना की गयी।
सन 1948 की गर्मियों में भारतीय वीरता पदकों की ज़रूरत को अंतिम रूप दिया गया, और मंज़ूरी के लिये इसे किंग जॉर्ज छठे को लंदन भेजा गया, क्योंकि भारत पर तब भी अंग्रेज़ों का प्रभुत्व था। इंतज़ार का समय गुज़रता गया, लेकिन कोई फ़ायदा नहीं हुआ। हालांकि पदक की डिज़ायन में राजा का नाम-ओ-निशान भी नहीं था। जब संयुक्त राष्ट्र ने 1 जनवरी, सन 1949 से जम्मू-कश्मीर में युद्धविराम की घोषणा की, तो युद्ध के बहादुरों को सम्मानित करने का काम तेज़ हो गया। स्थिति का जायज़ा लेने के बाद देश के पहले गवर्नर-जनरल सी. राजगोपालाचारी ने प्रधानमंत्री पंडित नेहरू को, 26 जनवरी, सन 1950 को पदकों की स्थापना की घोषणा करने और उनका सम्मान करने का सुझाव दिया, क्योंकि 26 जनवरी, सन 1950 को भारत को गणराज्य बनना था।
आख़िरकार सन 1949 के अंत तक भारत सरकार की राजपत्र अधिसूचना में, निर्धारित पुरस्कार से संबंधित विस्तृत नियमों की घोषणा कर दी गई। उसके बाद 26 जनवरी सन 1950 को, जब भारत ने अपना पहला गणतंत्र दिवस मनाया, तब भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने पदक की स्थापना की घोषणा की। पहला परमवीर चक्र मेजर सोमनाथ शर्मा (4 कुमाऊं) को दिया गया था, जो कश्मीर युद्ध में श्रीनगर हवाई अड्डे की लड़ाई में शहीद हुये थे। वह सावित्री बाई की बड़ी बेटी कुमुदिनी शर्मा के बहनोई थे।
पदक बनाने के बाद सावित्रीबाई सामाजिक कार्यों में जुट गईं और युद्ध में शहीद हुए सैनिकों के परिवारों की मदद करने लगीं। बाद में वह रामकृष्ण मठ से जुड़ गईं। उन्होंने दो किताबें भी लिखीं- ‘संस्कृत डिक्शनरी ऑफ नेम्स’ और ‘सेंट्स ऑफ़ महाराष्ट्र”। उल्लेखनीय ज़िंदगी गुज़ारने के बाद 26 नवंबर, सन 1990 में सावित्रीबाई ने अंतिम सांस ली।
शुरुआत से लेकर अब तक 21 बहादुर सैनिकों को परमवीर चक्र से सम्मानित किया जा चुका है, जिनमें से केवल एक पदक भारतीय वायु सेना के हिस्से में आया है। सन 1976 में पदक की स्मृति में एक विशेष डाक टिकट भी जारी किया गया था। उसके बाद सन 1980 के दशक में प्रसिद्ध फ़िल्म निर्माता-निर्देशक चेतन आनंद ने दूरदर्शन के लिये क प्रोग्राम बनाया था। वह प्रोग्राम सन 1947 से लेकर सन 1971 तक के युद्धों के शीर्ष पदक विजेताओं के बारे में था। उस प्रोग्राम का मक़सद, युवाओं को सेना में शामिल होने और सर्वोच्च सैनिक सम्मान हासिल के लिए प्रेरित करना भी था।
किसको पता था, कि उस प्रोग्राम से प्रेरणा लेने वालों से एक नौजवान आगे चलकर कारगिल युद्ध में अपनी वीरता का सर्वोच्च उदाहरण पेश करके, ये पदक अपने नाम करेगा। वो थे… शेरशाह उर्फ़ कैप्टेन विक्रम बत्रा!
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