यदि पूरे भारत और विश्व के स्तर पर पुरातत्त्व के क्षेत्र में बिहार के विशेष योगदान की बात की जाय, तो पटना की दीदारगंज यक्षिणी के साथ सुल्तानगंज (ज़िला भागलपुर) की बुद्ध मूर्ति का नाम आता है। बुद्ध की यह मूर्ती कांस्य की बनी है । यह साढ़े सात फ़ुट ऊंची और 5 क्विंटल वज़नी । बुद्ध की यह मूर्ति सन 1858 में पटना-हावड़ा लूप रेल लाईन पर सुल्तानगंज स्टेशन के निर्माण के लिये करायी जा रही खुदाई के दौरान रेलवे इंजीनियर ई.बी. हैरिस को मिली थी।
यह मूर्ति देखने में सारनाथ के प्रस्तर बुद्ध मूर्ति के एकदम हूबहू थी । इसका शिल्प अत्यंत आकर्षकऔर उत्कृष्ट था। पूरी दुनिया में बुद्ध की अबतक प्राप्त विशालाकार धातु (मेटल) निर्मित मूर्तियों में यह अकेली मानी जाती है। आज बुद्ध की यह नायाब मूर्ति बर्मिंघम (इंग्लैंड) के ब्रिटिश म्यूज़ियम एण्ड आर्ट गैलरी की शोभा बढ़ा रही है।
रेलवे इंजीनियर हैरिस लंदन से प्रकाशित अपनी पुस्तिक में बताते हैं कि जब ये मूर्ति मिली, तो इसके सौंदर्य से प्रभावित होकर बर्मिंघम के पूर्व मेयर सेमुएल थोनेटन ने उन्हें इसे बर्मिंघम भेजने का अनुरोध किया जिसका परिवहन व्यय उन्होंने ही उठाया था। थोनेटन ने इस मूर्ति को बर्मिंघम के ब्रिटिश म्यूज़ियम एण्ड आर्ट गैलरी को प्रर्दशन भेंट कर दिया।
शांत-सौम्य मुद्रा में खड़ी यह बुद्ध-मूर्ति बायें हाथ से अपने परिधान के किनारे को पकड़े हुए है, जबकि इसका दाहिना हाथ उपदेश की मुद्रा में उठा हुआ है। इस मूर्ति के शिल्प के बारे में इतिहासकार ए.एल.बाशम ‘द् वंडर दैट वाज़ इंडिया’ में कहते हैं कि ताम्र तथा पीतल की अब तक प्राप्त गुप्तकालीन मूर्तियों में सुल्तानगंज की बुद्ध-मूर्ति सबसे अधिक प्रभावशाली है। पारदर्शी परिधान के प्रभाव से युक्त यह सुंदर मूर्ति अपनी अन्य समकालीन कलाकृतियों की तरह जीवंतता का भाव लिये है जिसे शरीर की झुकी हुई मुद्रा गत्यात्मकता प्रदान करती है।
सारनाथ की प्रस्तर बुद्ध-मूर्ति के साथ सुल्तानगंज की कांस्य बुद्ध प्रतिमा की साम्यता के बारे में भारत में पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग के संस्थापक रहे प्रख्यात पुराविद जनरल कनिंघम अपने ‘आर्कयोलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया रिपोर्ट’ में कहते हैं कि सन 1835-36 में बनारस के सारनाथ में उन्होंने जो खुदाई करवाई थी, उसमें मिली बुद्ध-मूर्ति का शिल्प बिल्कुल सुल्तानगंज में मिली मूर्ति जैसा ही है। गुप्त-कला का केन्द्र रहे सारनाथ का देश के अन्य भागों पर प्रभाव पड़ा था। उसका उल्लेख करते हुए इतिहासकार आर.सी. मजूमदार ‘द् हिस्ट्री ऑफ़ बंगाल: हिन्दू पीरियड’ में कहते हैं कि इसका विस्तार उत्तर भारत के साथ पूरब में असम के तेजपुर तक हुआ था। साथ ही भागलपुर के सुल्तानगंज की खड़ी बुद्ध-मूर्ति अपने संवेगात्मक गुणों के उदात्तीकरण (sublimation of emotional traits) के साथ सारनाथ मूर्ति-कला के साथ सम्बद्धता का जीवंत उदाहरण है सुल्तानगंज बुद्ध-मूर्ति की इन्हीं ख़ासियतों के कारण इसकी चर्चा कनिंघम, ए.एल. बाशम और आर.सी. मजूमदार जैसे विद्वानों के अलावा बेंजामिन रावलैंड (गुप्ता पीरियड स्कल्पचर), फ्रेडरिक ऐशर (द आर्ट ऑफ़ इस्टर्न इंडिया) आदि ने भी की है।
सुल्तानगंज, पटना-हावड़ा लूप रेल लाईन पर पटना से 195 कि.मी. पश्चिम गंगा के तट पर स्थित है। आज इसकी प्रसिद्धि प्रत्येक वर्ष श्रावण के महीने में यहां लगने वाले ‘श्रावणी मेला’ के कारण है। उस वसर पर पूरे देश और विदेशों से भी हज़ारों-लाखों शिव-भक्त यहां आते हैं । वह उत्तर वाहिनी गंगा का पवित्र जल अपने कावरों में भरकर, उसे देवघर (झारखंड) स्थित वैद्यनाथ द्वादश ज्योतिर्लिंग पर अर्पित करते हैं। किंतु प्राचीन काल में सुल्तानगंज की प्रसिद्धि एक महत्वपूर्ण बौद्ध केन्द्र के रूप में थी जिसकी गवाही यहां से समय-समय पर मिले पुरातात्विक अवशेष दे रहे हैं।
रेलवे इंजीनियर ई. बी. हैरिस को सुल्तानगंज में खुदाई के दौरान बुद्ध की उक्त खड़ी कांस्य मूर्ति के अलावा तीन अन्य महत्वपूर्ण बुद्ध-मूर्तियां और भी मिली थीं। इनमें से दो बैसाल्ट पत्थर से निर्मित खड़ी मुद्रा (आकार क्रमशः 1′ 5″ और 1’10/2″) में हैं। इन दो खड़ी मूर्तियों में से एक कमल पुष्प पर अग्नि-शिखा प्रभामंडल से युक्त है जिसका दाहिना हाथ वरद् मुद्रा में और बांया हाथ घुटने टेके मैत्रयी के सिर पर है। यह मूर्ति ब्रिटिश आर्ट म्यूज़ियम में संग्रहित है। बुद्ध की दूसरी खड़ी मूर्ति के पिछले हिस्से में एक स्तूप का रेखांकन है जिसके नीचे बौद्ध संदेश उकेरे गये हैं जो गुप्त लिपि की विशिष्टताओं से युक्त है। यह मूर्ति सेन फ़्रासिस्को के एशियन आर्ट म्यूजियम की शोभा बढ़ा रही है।
सुल्तानगंज की कांस्य बुद्ध-मूर्ति के साथ मिली तीसरी मूर्ति बुद्ध के सिर की है जिसका शिल्प सारनाथ बुद्ध के समरुप है। इसके बाल घुंघराले हैं तथा ललाट पर बालों का गुच्छा बना है जो अत्यंत आकर्षक है। यह मूर्ति लंदन के विक्टोरिया एण्ड अलबर्ट म्यूज़ियम में संग्रहित है। इन महत्वपूर्ण सामग्रियों के अलावा यहां से बौद्ध मान्यताओं में अति पवित्र माना जानेवाला सात रत्नों से भरा घड़ा, बुद्ध व विष्णु की टेराकोटा मूर्तियां, टूटे बर्तन, चैत्य की लघु आकृतियां, बौद्ध सील आदि भी मिले है।
रेलवे इंजीनियर हैरिस द्वारा सन 1858 में बुद्ध-मूर्ति की प्राप्ति के 21 वर्षों बाद सन 1879 में अलेक्ज़ेंडर कनिंघम सुल्तानगंज आये थे तथा उन्होंने यहां पुरातात्विक सर्वेक्षण और खुदाई के काम करवाये थे जो उनकी आर्कियोलॉजिकल रिपोर्ट में प्रकाशित भी हुये हैं। अपनी रिपोर्ट में कनिंघम कहते हैं कि सुल्तानगंज स्टेशन के निकट स्थित जिस टीले की हैरिस ने खुदाई करवाई थी, उसकी ऊंचाई 10 से लेकर 30 गज़ तक की है जिसकी सबसे ऊंची चोटी पर हैरिस ने अपना बंगला बनवाया था। इसी बंगलेवाले टीले के आसपास रेल के निर्माण कार्य के लिये गिट्टी निकालने के दौरान हैरिस को प्राचीन दिवारों के अवशेष दिखाई दिये थे तथा बुद्ध की उक्त नायाब मूर्ति मिली थी।
कनिंघम जब सन 1879 में सुल्तानगंज आये थे, तो उस समय तक हैरिस द्वारा करवाये गये खुदाई-स्थल का एक हिस्सा मौजूद था जिसका उन्होंने अपने सहयोगी पुराविद बेगलर के साथ अन्वेषण और उत्खनन किया था।
कनिंघम बताते हैं कि हैरिस ने सुल्तानगंज में जो खुदाई करवाई थी उसका एकमात्र विवरण बाबू राजेंद्र लाल के आलेख में मिलता है जो उस खुदाई के ठीक बाद सुल्तानगंज आये थे। हैरिस द्वारा करवाई गयी खुदाई संबंधी जानकारी बाबू राजेंद्र लाल की रपट सन 1864 में ‘बंगाल एशियाटिक सोसाइटी जर्नल’ में प्रकाशित हुई थी जिसका संदर्भ देते हुए कनिंघम बताते हैं कि सुल्तानगंज रेलवे स्टेशन के सामने और बाज़ार के बीच 1200′ X 80′ का एक चतुष्कोणीय क्षेत्र है जो पुराने भवनों के अवशेषों से ढ़का है। यहीं पर हैरिस को पुराने भवनों की नींव के अवशेष मिले थे जिसके दक्षिण-पश्चिम कोने में एक सीध में छह चेम्बर बने थे। इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि यह स्थल विभिन्न कोर्ट-यार्ड में बंटा होगा जिनमें छोटे-छोटे उपासना-गृह बने होंगे। हैरिस को यहीं पर बुद्ध की उक्त अद्भुत कांस्य मूर्ति मिली थी जो यहां स्थित संरचना के मुख्य प्रशाल हाल में स्थापित होगी । यहां पर हैरिस को इस विशाल संरचना के मुख्य प्रवेश-द्वार के दोनों ओर लगनेवाले दो विशाल स्तंभ भी मिले थे।
हैरिस द्वारा करवाई गयी खुदाई में मिली संरचना के जिस भाग की पहचान मुख्य हाल के रुप में की गयी है, उसके मध्य में ग्रेनाइट का 6′.1″X 3′.9″ के आकार का एक मंच मिला है जिस पर दो बोल्ट से कसकर उक्त कांस्य बुद्ध मूर्ति को खड़ा किया गया होगा। हैरिस को यह बुद्ध-मूर्ति इस मंच से थोड़ी दूरी पर मिली थी जो यह संकेत देता है कि यहां हाल आदि की संरचना को नष्ट करने से पूर्व हमलावरों ने उक्त बुद्ध-मूर्ति को पहली जगह से हटाने के प्रयास किये होंगे। किंतु यह भी संतोष की बात है कि हमलावरों द्वारा मचायी गयी इस अफ़रा-तफ़री में उक्त बुद्ध-मूर्ति के बायें पैर के टख़ने में हल्की खरोंच लगने के अलावा किसी भी प्रकार की क्षति मूर्ति को नहीं पहुंची।
बाबू राजेंद्र लाल के लेख के हवाले से कनिंघम बताते हैं कि हैरिस द्वारा करवाई गयी खुदाई में निकली बृहत संरचना एवं प्राप्त महत्वपूर्ण अवशेषों के आधार पर विश्वास पूर्वक कहा जा सकता है कि यहां सारनाथ, सांची, बोधगया सरीखे विशिष्ट स्थानों की तरह निश्चित रूप से एक विशाल बौद्ध विहार रहा होगा जिसके चारों ओर यहां रहनेवाले भिक्षुओं के लिये उपासना-गृह बने होंगे।
बाबू राजेंद्र लाल का अनुमान है कि सुल्तानगंज एक समय में अति प्रसिद्ध बौद्ध स्थल रहा होगा जहां बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते होंगे। लेकिन बदलते समय के साथ इसका प्राचीन गौरव इस हद तक समाप्त हो गया कि इसका अपना असली नाम तक बुला दिया गया और यह आज मुस्लि-युग में रखे गये नाम से यानी सुल्तानगंज के रूप में जाना जाने लगा।
बाबू राजेंद्र लाल के अनुसार सुल्तानगंज में बुद्ध की बृहत मूर्ति के साथ मिली अन्य छोटी बुद्ध-मूर्तियों पर उकेरी गयी, गुप्तकालीन लिपियों के आधार पर यह स्थापित होता है कि यहां ईसवी सन प्रारंभ होने के पूर्व महाविहार की स्थापना हुई होगी। उस अवधि में चम्पा (प्राचीन अंग जनपद की राजधानी, आधुनिक भागलपुर जिसके अंतर्गत सुल्तानगंज आता है) की महत्ता के कारण बौद्ध धर्म को माननेवालों के बीच इसकी मान्यता पूर्वी भारत की राजधानी के रूप में थी जहां उन्होंने कई बौद्ध विहार तथा चैत्यों की स्थापना की थी। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि चीनी यात्री ह्वेनसांग के इस क्षेत्र में भ्रमण के पूर्व की अवधि में ही सुल्तानगंज के बौद्ध विहार-चैत्य आदि नष्ट हो गये होंगे। इस कारण ह्वेनसांग ने ‘चेन- पो’ (चम्पा, आधुनिक भागलपुर) के बौद्ध विहारों की तो चर्चा अपनी यात्रा-विवरणी की है, परसुल्तानगंज के बौद्ध विहारों का ज़िक्र नहीं किया है।
सन 1864 में बाबू राजेंद्र लाल के ‘बंगाल एशियाटिक सोसाइटी जर्नल’ में प्रकाशित आर्टिकल के हवाले से सुल्तानगंज में रेलवे इंजीनियर ई.बी. हैरिस द्वारा करवाई गयी खुदाई का विस्तृत विवरण देने के बाद कनिंघम बताते हैं कि उनके सुल्तानगंज आने तक हैरिस का बंगला तो धराशायी हो चुका था, लेकिन उनके द्वारा करवाई गई खुदाई के टीले के अवशेष बचे हुए थे जो निश्चित रूप से किसी किसी स्तूप के अवशेष थे। हैरिस की खुदाई में मिले बौद्ध महाविहार के अवशेष स्थल से 28′ की ऊंचाई पर कनिंघम को 48′ X43′ आकार के एक ईंट से बने स्तूप के अवशेष मिले।इस स्तूप के नीचे की ओर अपने सहयोगी पुराविद बेगलर के सहयोग से खुदाई करने पर उन्हें जल-स्तर से उपर इस स्तूप का ‘स्मृति-चिन्ह कक्ष’ मिल गया था।
कनिंघम के अनुमान के अनुसार इस स्तूप का व्यास कम से कम 90′ रहा होगा। कारण, जिस अष्टकोणीय (आठ कोनों वाले) आधार पर यह बृहत स्तूप खड़ा था, उसका एक भाग 39′ का था जिसका व्यास 94.146′ था।
इस स्तूप के नीचे भी एक चौकोर कक्ष के बीच कनिंघम ने एक 8′ व्यासवाले ईंट से निर्मित छोटा-सा स्तूप देखा था जहां उन्हें एक घड़ा मिला था। इस घड़े में सोना, चांदी, माणिक, गोमेद सरीखे सप्त-रत्न संग्रहित थे जो बौद्ध मान्यताओं के अनुसार अत्यंत पवित्र माने जाते हैं।
जिस ईंट पर यह घड़ा रखा था, उसके नीचे खुदाई करने पर कनिंघम को परिष्कृत लाल मिट्टी से आवृत्त हड्डी का एक छोटा टुकड़ा मिला था। इसके बारे में कनिंघम बताते हैं कि यही वो मूल स्मृति-चिन्ह (veritable relic) था जिसके लिये इस विशाल स्तूप का निर्माण कराया गया था।
उक्त पुरातात्विक अवशेषों के अलावा कनिंघम को यहां दो अत्यंत महत्वपूर्ण सिक्के भी मिले थे। इनमें से एक चांदी का था जो महाक्षत्रप सत्य अथवा सूर्यसेन के पुत्र महाक्षत्रप स्वामी रूद्र सेन के ज़माने का था। दूसरा सिक्का चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य अथवा चन्द्रगुप्त द्वितीय (248-259) का था।
इस तरह सुल्तानगंज की कांस्य (ब्रौंज) बुद्ध-मूर्ति जहां पूरी दुनिया में अपने आप में अनूठी है, वहीं वहां पर मिले पुरातात्विक धरोहर भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। आज सुल्तानगंज बुद्ध-मूर्ति बर्मिंघम म्यूज़ियम एण्ड आर्ट गैलरी की शोभा बढ़ा रही है जो वहां का एक विशिष्ट प्रदर्श माना जाता है और उसे ‘फ़ैथ गैलरी’ नामक विशेष स्थान पर रखा गया है। सुल्तानगंज बुद्ध-मूर्ति के सम्मान में बर्मिंघम में सलाना उत्सव आयोजित किया जाता है। लेकिन यह भी एक विडंबना है कि जिस देश में यह अनूठी मूर्ति मिली थी, वो देश उससे आज भी मेहरूम है । साथ ही, कनिंघम जैसे पुरावेत्ता ने जिस देश को स्तूपों और विहारों के रूप में जो धरोहर मिट्टी के गर्भ से निकालकर दिये थे , वो उन्हें भी सहेजकर नहीं रख सका।
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