राजमहल, झारखंड राज्य के पूर्वी क्षेत्र के साहेबगंज ज़िले में स्थित है जो कोलकाता से 388 और पटना से 348 किमी की दूरी पर है। आज भले ही इसकी पहचान पुराने स्मारकों के एक उजड़े शहर के रूप में बनकर रह गयी है, पर एक समय ऐसा भी था जब इसे बंगाल (जिसमें बिहार व ओड़िशा के प्रांत शामिल थे) की राजधानी बनने का गौरव प्राप्त हुआ था। राजमहल मुग़ल बादशाहों, शाहज़ादों और उनके सिपहसालारों व बंगाल के नवाबों की पसंदीदा जगह रही है जहां उन्होंने शानदार महल, मस्जिदें, बारादरी तथा हम्माम आदि की तामीर करवाये और आकर्षक फ़व्वारों सहित ख़ुबसूरत बाग़-बग़ीचे तैयार करवाये और सिक्के ढ़ालने के टकसाल भी बनवाये जिसकी चर्चा ऐतिहासिक पुस्तकों और विदेशी यात्रियों के विवरणों में दर्ज है।
यह ऐतिहासिक शहर,गंगा के किनारे राजमहल पर्वत-श्रृंखला की गोद में स्थित है जिसके कारण इसे ‘दामन-ए-कोह’ की की संज्ञा भी दी गई है। गंगा नदी के किनारे होने के कारण जहां यह व्यापारिक और सामरिक दृष्टि से मुफ़ीद था, वहीं दूसरी ओर 660 से 980 फ़ीट की औसत ऊंचाई वाली उत्तर से दक्षिण की ओर 26 हज़ार वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैली राजमहल पर्वत माला अपनी दुर्भेद्यता के कारण इसे विशेष सुरक्षा प्रदान करती थी।
अपने शानदार इतिहास के साथ भूवैज्ञानिक ( जियोलॉजिकल) कारणों से भी राजमहल की राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय ख्याति रही है। भू-वैज्ञानिकों के अनुसार इस पर्वत-श्रृंखला का निर्माण जूरासिक-युग में 6.2 करोड़ से लेकर 14.5 करोड़ वर्ष के बीच ज्वालामुखी विस्फोट से हुआ था जिसके आग़ोश में बहुतायत से विरल ‘प्लांट फ़ासिल’ पाये गये हैं जिसके कई अनूठे नमूने लखनऊ के ‘बीरबल साहनी इंस्टीट्यूट ऑफ़ पेलियोबाटनी ‘ में संग्रहित हैं। प्लांट फ़ासिल के इन अनूठे नमूनों के कारण ही भारत सरकार के भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण विभाग (जियोलॉजिकल सर्वे आफ़ इंडिया-जी.एस.आई.) ने यहां ‘जियो-टूरिज़्म ‘ की अपार संभावनाएं देखते हुए इस पर्वतमाला को ‘नेशनल जियोलॉजिकल मोन्यूमेंट्स’ के रूप में घोषित किया है।
राजमहल के इतिहास पर नज़र डालें तो ‘अकबरनामा’ हमें बताता है कि इसकी बुनियाद बंगाल के सूबेदार राजा मानसिंह ने रखी थी । उस समय इसका नाम ‘अकबरनगर’ पड़ा। इसे बंगाल की नयी राजधानी बनाया गया क्योंकि यह बंगाल की तत्कालीन राजधानी गौड़ की तुलना में नदियों के रास्ते किये जानेवाले हमलों से ज़्यादा सुरक्षित थी। इतिहासकार सर जदुनाथ सरकार ‘द् हिस्ट्री ऑफ़ बंगाल-मुस्लिम-काल’ में बताते हैं कि 7 नवम्बर, सन 1594 को राजा मानसिंह ने राजमहल में बंगाल की नयी राजधानी की बुनियाद अपने आक़ा के नाम पर रखी जो कि नदी के रास्ते आक्रमण से बहुत महफ़ूज़ था। देखते ही देखते यह एक पसंदीदा शहर के रूप मे विकसित होता गया क्योंकि यहां का माहौल, गौड़ और ढ़ाका के बनिस्बत ज़्यादा स्वास्थ्यप्रद था तथा यह बिहार के नज़दीक भी था। राजमहल का सामरिक महत्व शेरशाह के समय में भी था क्योंकि बिहार होकर गौड़ जानेवाली सेना का पुराना रास्ता इसी तरफ़ से होकर गुज़रता था।
मध्य-काल में राजमहल की सैर करनेवाले अब्दुल लतीफ़ ने इसे ‘आगमहल’ कहकर पुकारा है क्योंकि उन दिनों यहां के अधिकांश घरों की छतें घास-फूस की होती थीं जिसमें आसानी से आग लग जाया करती थी।
जहांगीर के शासनकाल के प्रारंभिक दौर तक राजमहल को बंगाल की राजधानी का दर्जा प्राप्त रहा, पर सन 1622 में, इसने बग़ावत का एक ऐसा दौर भी देखा जो बादशाह जहांगीर की मल्लिका नूरजहां की महत्त्वाकांक्षाओं का परिणाम था, जिसकी वजह से उसका सौतेला बेटा ख़ुर्रम,बग़ावत पर उतर आया, जो बाद में शाहजहां के नाम से गद्दीनशीं हुआ। मुग़ल इतिहास में इस घटना का बड़े ही रोचकपूर्ण ढंग से जिक़्र किया गया है।
शाहज़ादा ख़ुर्रम, जिसकी बीवी, नूरजहां की भतीजी और आसफ़ खां की बेटी अर्जुमंद बानो बेगम थी, पहले तो उस पर नूरजहां यानी मलिका-ए-हिंदुस्तान की नज़रें इनायत रहती थी, लेकिन जब उसकी ख़ुद की बेटी (शेर अफ़ग़न की बेटी) लाडली बेगम का निकाह शहरयार के साथ हो गया तो वो उसका ज़्यादा पक्ष लेने लगी। नौबत यहां तक आ गयी कि वह ख़ुर्रम के वजूद को धूल में मिलाने पर उतर आईं। जिसकी वजह से शहज़ादा ख़ुर्रम बग़ावत पर मजबूर हो गया।
बाग़ी शहज़ादा ख़ुर्रम, दक्कन से बंगाल की ओर कूच कर गया और बर्दमान होते हुए सन 1634 की शुरुआत में अकबरनगर अर्थात राजमहल आ धमका। उन दिनों राजमहल का सूबेदार इब्राहीम खां फ़तेहगंज था, जिसे ख़ुर्रम का मुक़ाबला करने की ज़िम्मेदारी दी गई थी। लड़ाई के पहले दौर में गंगा के उत्तरी तट पर स्थित आलमनगर में तो फ़तेहगंज की जीत हुई, पर इसके बाद नूरपुर की लड़ाई में उसे ख़ुर्रम की फौज के हाथों शिकस्त खानी पड़ी और उसका सर क़लम कर बाग़ी शहज़ादे के पास भेज दिया गया। इस तरह राजमहल पर ख़ुर्रम का कब्ज़ा हो गया।
सन 1639 में बादशाह शाहजहां के शहज़ादे शाह मुहम्मद शुजा को बंगाल का मनसबदार बनाया गया जिसने राजमहल को अपनी राजधानी बनाया। कुशल प्रशासक शुजा के दौर में जहां राजमहल के राजस्व में वृध्दि हुई, वहीं उसने यहां अपने लिये एक ख़ूबसूरत महल बनवाया तथा कई अन्य इमारतों की तामीर करवाई और बाग़-बग़ीचे-फ़व्वारे लगाये। साथ ही उसने राजा मानसिंह द्वारा तैयार की गई क़िलाबन्दी को भी पुख़्ता करवा दिया।
दिल्ली के तख़्त की लड़ाई में शुजा, ने नवम्बर सन 1657 में, राजमहल से ख़ुद को शहंशाह घोषित कर दिया था। लेकिन अपने भाई औरंगज़ैब के साथ हुई सियासी जंग में वह परास्त हो गया। उसने 4 अप्रैल, सन 1659 को राजमहल छोड़ा, तो फिर यहां कभी वापस नहीं आ सका। बताया जाता है कि इन आपसी लड़ाईयों में गोला-बारूद का ख़ूब उपयोग हुआ,आगज़नी भी की गई। जिससे शुजा के महल की अच्छी-खासी तबाही हुई। इस तबाही में शुजा का यह महल भले ही मलबे में तब्दील हो गया, लेकिन इसकी ख़ूबसूरती के निशां ख़त्म न हो सके।
इस घटना के ठीक 11वर्ष बाद अंग्रेज़ अधिकारी जान मार्शल के साथ राजमहल की यात्रा करनेवाले डच सर्जन निकोलस ने यहां बड़े-बड़े भवन, दीवान-ए-ख़ास, ज़नान ख़ाना, हम्माम, ऐशगाह, फ़व्वारों से सजे शाही बाग़, पानी के मीनार आदि देखे थे। निकोलस ने शुजा के महल का एक नक़्शा भी बनाया था, जो हेमिल्टन बुकानन की डायरी में संग्रहित है।
सन 1781 के जुलाई-अगस्त महीने में वारेन हैस्टिंग्ज़ के साथ राजमहल की यात्रा करनेवाले ब्रिटिश पेंटर विलियम होजेज़ अपनी ट्रेवल रिपोर्ट में बताते हैं कि शुजा के महल के कुछ हिस्से आज भी मौजूद हैं। महल के विशाल कमरे और मुख्य द्वार, मलबों के बीच खड़े हैं, पर ज़नान ख़ाना पूरी तरह से ध्वस्त हो चुका है। बाद में ब्रिटिश अधिकारियों ने इसमें कई परिवर्तन किये। फिर इसका उपयोग अनुमंडल कार्यालय के रूप में करने लगे, जिससे इसका ऐतिहासिक और पुरातात्विक महत्व लगभग समाप्त हो गया।
शाह शुजा के बाद बंगाल के नये गवर्नर मीर जुमला ने राजमहल के बजाय ढ़ाका को अपनी नयी राजधानी बना लिया, जिससे राजमहल का शाही दर्जा ख़त्म हो गया। इसके बावजूद बाद के दौर में भी राजमहल कई सियासी घटनाओं का चश्मदीद बना।
सन 1712 में बहादुर शाह की मौत के बाद फ़र्रूख़ सियार ने पटना से और शहज़ादा इज्जुद्दौला ने राजमहल से ख़ुद को दिल्ली के तख़्त का हक़दार घोषित कर दिया। लेकिन फ़र्रूख़ सियार, इज्जुद्दौला को धता बताते हुए बिना किसी ख़ास विरोध के बरास्ता राजमहल और पटना से मुर्शिदाबाद पहुंच गया। सन 1740 में राजमहल के निकट गिरिया में हुए युद्ध में अलीवर्दी ख़ां ने सरफ़राज़ ख़ां की हत्या कर डाली और ख़ुद बंगाल का नवाब बन बैठा। इस घटना के पहले सन 1750 में राजमहल, मराठा आक्रमण के ख़ौफ़ से भी रुबरु हो चुका था।
कभी शाही शानो-शौकत से लबरेज़, पूरे बंगाल के साथ बिहार और ओड़िसा पर हुकूमत करनेवाले राजमहल को, परवर्ती-काल में एक ऐसी घटना देखनी पड़ी, जिसने हिन्दुस्तान के माथे पर दासता की लकीरें खींच दी। पलासी की लड़ाई में हारने के बाद, गंगा के मार्ग से पलायन के दौरान, सन 1757 में बंगाल के नबाव सिराजुद्दौला की गिरफ़्तारी राजमहल में ही, मीर जाफ़र के बेटे मीरन के भेदिये की शिनाख़्त पर हुई थी। सिराजुद्दौला को राजमहल से बंदी बनाकर मुर्शिदाबाद लाया गया जहां मीरन ने ख़ंजर से क़ैदख़ाने में ही उसकी हत्या कर डाली। बाद में गंगा से यात्रा के दौरान राजमहल के निकट बिजली गिरने से झुलसकर मीरन की मौत हो गयी। राजमहल में मीरन की क़ब्र इस नमक हराम के कुकर्मों की मानों गवाही दे रही है।
सिराजुद्दौला के बाद मीर क़ासिम ने राजमहल की शानो-शौकत को बहाल करने की कोशिश की, पर अंग्रेज़ों के सात तनाव होने के बाद उसने मुंगेर को अपनी राजधानी बना लिया। मुंगेर में भी दिनों-दिन मीर क़ासिम का अंग्रेज़ों के साथ मनमुटाव बढ़ता गया। उसी वजह से सन 1763 में राजमहल से दस किमी. दूर स्थित उधवानाला की लड़ाई हुई। उधवा में मज़बूत घेराबंदी के बावजूद अपने सेनापति की साज़िश के कारण अंग्रेज़ी सेना का नेतृत्व कर रहे मेजर आदम के हाथों मीर क़ासिम की हार हो गई। अगर इतिहास में उधवा के युध्द का आकलन सही ढ़ंग से किया गया होता है तो यह सच्चाई सामने आती कि यदि मीर क़ासिम को फ़तह हासिल हो जाती तो शायद बक्सर की लड़ाई की नौबत ही नहीं आती।
परवर्ती-काल में मुग़लों और बंगाल के नवाबों के हातों से निकलकर राजमहल अपनी शाही शानशौकत खोकर, यूरोपीय अधिकारियों का सैरगाह और व्यापार केन्द्र बनकर रह गया। वक़्त की मार झेलता हुआ राजमहल आज ‘ख़ाकमहल’ में तब्दील हो गया है, लेकिन यहां, इधर-उधर बिखरी पुरानी इमारतों के खंडहर और पुरातात्विक अवशेष इसकी पुरानी शानों-शौकत की दास्तान बयां करते-से नज़र आते हैं।
*राजमहल की जामा मस्जिद*
राजमहल के शाही अवशेषों में सबसे महत्वपूर्ण, राजमहल-तालझारी मार्ग पर स्थित जामा मस्जिद है जिसका निर्माण बंगाल के सूबेदार राजा मानसिंह ने करवाया था। इस भव्य मस्जिद के पश्चिम में एक बड़ा हाल था जिसके सामने एक बहुत बड़ा चबूतरा था। यह चारों तरफ़ से दीवारों से घिरा था जिसका मुख्य प्रवेश पूरब की ओर से था। इसका प्रवेश-द्वार कलात्मक ढंग से मेहराबदार है और इसके गुम्बद प्रारंभिक मुग़ल शैली में बने हैं। मस्जिद के विशाल आंगन के बीच वज़ू के लिये बहुत बड़ा रिवायती टैंक बना हुआ है। मस्जिद को पश्चिमी की ओर से देखने पर यह इमारत किसी क़िले के अंदर स्थित महल की तरह लगती है। यह इमारत पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित घोषित है।
*अकबरी मस्जिद*
राजमहल की अकबरी मस्जिद का निर्माण भी बंगाल के सूबेदार राजा मानसिंह ने बादशाह अकबर के राजमहल आने के अवसर पर करवाया था। राजमहल स्टेशन के क़रीब, गंगा के किनारे स्थित यह मस्जिद मुग़लकालीन स्थापत्य कला का नायाब नमूना प्रतीत होती है। शीर्ष पर कमल के फूलों से सजे इसके तीन विशाल गुम्बद दूर से ही आकर्षित करते हैं। मस्जिद के चारों तरफ़ छह मीनार और इसकी छत पर बने तीन छोटे-छोटे मीनार, इसकी ख़ास पहचान हैं। इतिहासकार क़यामुद्दीन अहमद ने ‘कारपस आफ़ अरेबिक एण्ड पर्शियन इंस्क्रिप्शंस इन बिहार’ में यहां के एक पुराने शिला-लेख की चर्चा की है जो टूटकर नष्ट हो गया था उसके स्थान पर दूसरा शिला-लेख लगा दिया गया है। यह मस्जिद आज भी दुरुस्त अवस्था में है और यहां नियमित रूप से नमाज़ पढ़ी जाती है।
*सिंघी दालान*
राजमहल के पुराने स्मारकों में सिंघी दालान को भी अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है जिसकी तामीर भी राजा मानसिंह ने करा वायी थी। राजमहल की कचहरी के क़रीब गंगा के किनारे खड़े इस दालान को संग दालान अथवा पत्थर का दालान के नामों से भी जाना जाता है। राजा मानसिंह की वजह से ही इसका नाम सिंघी दालान पड़ा था। इसके नक़्क़ाशीदार अर्धगोलाकार प्रवेश-द्वार मुग़लकालीन स्थापत्य कला के जीवंत नमूने लगते हैं जिसके बारे में ब्रिटिश विद्वान फ़्रांसिस बुकानन ने विस्तार से चर्चा की है। 30 मीटर लम्बा और 6 मीटर चौड़ा यह दालान अन्दर से 7.8 मीटर गुणे 3.6 मीटर आकार का है जिसमें काले तराशे हुए पत्थरों से बने तीन मेहराबदार प्रवेश मार्ग हैं जो बारह कोनों वाले खंभों पर टिके हुए हैं। तीन तरफ़ से ईंट की दीवारों से घिरे इस दालान का उपयोग बंगाल के सूबेदार दीवाने ख़ास के रूप में करते थे।
*बारादरी*
राजमहल की नवाब ड्योढ़ी में, जगत सेठ के भवन के निकट स्थित बारादरी के अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं। इसका निर्माण बंगाल के एक अमीर ज़मींदार फ़तेहगंज ख़ां ने करवाया था। इस बारादरी को राजा मानसिंह ने तोप से उड़वा दिया था। कहते हैं कि जब राजा मानसिंह राजमहल में महलों, भवनों और क़िलों के निर्माण करवा रहा था तो इसकी शिकायत इसी ज़मींदार ने बादशाह अकबर तक पहुंचा दी थी। शिकायत में कहा गया था कि मानसिंह बंगाल में अपना प्रभुत्व बढ़ा रहा है। इसकी भनक लगते ही अकबर ने राजमहल के लिये रवाना हो गया। चर्चा थी कि अकबर के कोप से बचने के लिये मानसिंह ने अपने तथाकथित क़िले को जामा मस्जिद में तब्दील करवा दिया और शहंशाह के लिये अकबरी मस्जिद का निर्माण करवा दिया। बाद में फ़तेहगंज ख़ां से नाराज़ राजा मानसिंह ने उसकी बारादरी को बारुद के हमलों से ढ़ेर करवा डाला।
*मैना बीबी का मक़बरा*
यह मक़बरा राजमहल के फ़क़ीर टोला में स्थित है। ‘बंगाल लिस्ट’ में इसे मनिया तालाब के रूप में जाना जाता है, जबकि संताल परगना गज़ेटियर इसे मैना तालाब कहता है। 720 वर्गमीटर के चौकोर आकार के इस मक़बरे के उपर गुम्बद और चारों कोनों पर गोलाकार मीनारे बने हुये हैं। पश्चिमी भाग को छोड़ इसकी दीवारें तीन-तीन मेहराबों से चुनी हुई हैं जिसके उपर शीर्ष भाग का गुम्बद टिका हुआ है। पूर्व में गुम्बद का भीतरी भाग रंग बिरंगी नक़्क़ाशियों से सजा था जो अब नष्ट हो गया है। इतिहासकार एच.एम.कुरैशी ने इस मक़बरे की पहचान मुन्नी बेगम के साथ की है जो बंगाल के नवाब मीर जाफ़र के हरम की एक बेगम थीं। मक़बरे की पश्चिमी दीवार पर अरबी भाषा में, तुघरा लिपि में लिखा एक शिला-लेख लगा है जिसे इतिहासकार कुरैशी 15 वीं शताब्दी का बताते हैं उसपर क़ुरान की आयतें लिखी हैं। लेकिन स्थानीय लोगों के अनुसार इस शिला-लेख में किसी ख़ज़ाने का राज़ छिपा है जिसकी तलाश में कई लोगों ने समय-समय पर इसकी खुदाई करके इसकी सूरत और सीरत दोनों बदल डाली हैं।
हम आपसे सुनने को उत्सुक हैं!
लिव हिस्ट्री इंडिया इस देश की अनमोल धरोहर की यादों को ताज़ा करने का एक प्रयत्न हैं। हम आपके विचारों और सुझावों का स्वागत करते हैं। हमारे साथ किसी भी तरह से जुड़े रहने के लिए यहाँ संपर्क कीजिये: contactus@livehistoryindia.com