कोहिनूर हीरा लंबे समय तक मुग़ल बादशाहों के तख़्त का श्रृंगार बना रहा था । लेकिन पूरी दुनीया में मशहूर कोहिनूर हीरा, शेरे-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह के पास पहुंचने के बाद क़रीब 36 वर्ष तक सिख राज्य के तोषाखाना को चार चाँद लगाता रहा। उन 36 वर्षों में कोहिनूर हीरे ने कई बार भारी सुरक्षा के बीच लाहौर से अमृतसर और अमृतसर से लाहौर का सफ़र तय किया और अंतः सन 1850 में यह हीरा अंग्रेज़ शासकों की सरपरस्ती में लाहौर से अमृतसर होते हुए विदेशी धरती पर पहुँच गया। जिसकी वापसी का आज भी पूरे देश को बेसब्री से इंतज़ार है।
कोहिनूर हीरा, जिस का असल नाम ‘सामंतक मणी’ है, ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार 13वीं सदी में आंध्र प्रदेश के मौजूदा शहर गुंटूर की, गोलकुंडा कोयला खान की खुदाई के दौरान काकतिया राजवंश को प्राप्त हुआ था। सन 1323 में राजा प्रताप रुद्र को हरा कर यह मणी ग़्यासउद्दीन तुग़लक के पुत्र उलूग़ ख़ान के कब्ज़े में चली गई । इसके पश्चात अलाउद्दीन ख़िलजी, मुहम्मद बिन तुग़लक, सुल्तान इब्राहीम लोधी, बाबर, अकबर, शाहजहां, औरंगज़ेब और मुहम्मद शाह रंगीला के पास लम्बे समय तक रहने के बाद ,सन 1739 में यह मणी फ़ारस से आए हमलावर नादर शाह के पास चली गई । नादर शाह ने पहली बार इस मणी को ‘कोहिनूर’ (रौशनी के पहाड़) का नाम दिया। सन 1747 में यह हीरा नादिर शाह के क़ब्ज़े से, अहमद शाह दुर्रानी के पास पहुंच गया और उसकी मृत्यु के बाद कोहिनूर तैमूर शाह, शाह ज़मां और महमूद शाह के पश्चात शाह शुजा-उल मुल्क के पास पहुंच गया।
सन 1812 में काबुल के दो बादशाह, शाह ज़मां तथा शाह शुजा काबुल से अपनी और अपने परिवारों की जान बचाते हुए लाहौर के लिए निकले। लाहौर उस समय तक महाराजा रणजीत सिंह के सिख राज्य में शामिल किया जा चुका था। रास्ते में अटक के गवर्नर जहांदाद ने इन लोगों को गिरफ़्तार कर लिया। काबुल के हाकिम शाह महमूद के आदेश पर शाह शुजा को गिरफ़्तार कर पहले तो अटक क़िले में क़ैद रखा और बाद में उसे कश्मीर के गवर्नर अता मोहम्मद खान के पास भेज दिया गया। कुछ समय बाद शाह महमूद ने, शाह ज़मां की दोनों आँखें फुड़वाकर उसे तथा शेष सभी लोगों को आज़ाद किया ।
जब शाह जमां अपने हरम की सभी रानियों, बच्चों, वफ़ादार नौकरों तथा शाह शुजा की पत्नी वफ़ा बेगम सहित लाहौर पहुँचा तो महाराजा रणजीत सिंह के आदेश पर इन सब के निवास का प्रबंध मुबारक हवेली में किया गया। लाहौर शहर के मोची गेट के अंदर आबाद कूचा चाबुकसवारां में मौजूद यह महलनुमा आलीशान हवेली विश्व प्रसिद्ध कोहेनूर हीरे के सिख साम्राज्य में शामिल होने की गवाह है। यह हवेली मुग़ल बादशाह मोहम्मद शाह के शासनकाल में उसके प्रसिद्ध हकीम के बेटों.. मीर बहादुर अली, मीर नादिर अली और मीर बाबर अली ने बनवाई थी। इस हवेली का निर्माण तीन वर्षों में पूरा हुआ। जब हवेली पूरी तरह तैयार हो गई तो उन तीनों भाईयों ने इस हवेली को अपनी रिहायशगाह बनाया। उसी दौरान मीर बहादुर अली की पत्नी ने पुत्र को जन्म दिया। इसीलिये हवेली का नाम ‘मुबारक हवेली’ रख दिया गया। कोहेनूर हीरे की बदौलत यह हवेली इतिहास के पन्नों में एक विशेष मुक़ाम बनाए हुए है और इसीलिये लाहौर की विरासत में शामिल होने का सम्मान भी प्राप्त कर चुकी है।
ख़ैर, शाह जमां की रानियों, बच्चों तथा वफ़ा बेगम सहित अन्य सब की ख़ातिरदारी की ज़िम्मेदारी फ़क़ीर अज़ीजउद्दीन को सौंपी गई। कुछ दिनों बाद वफ़ा बेगम ने अपने कर्मचारियों, मीर अब्दुल हुसैन, मुल्ला जाफ़र तथा शेर मोहम्मद की उपस्थिति में फ़क़ीर अज़ीज़ उद्दीन, दीवान भवानी दास तथा मोहकम चंद से कहा कि अगर महाराजा रणजीत सिंह उसके पति शाह शुजा को कश्मीर के हाकिम मोहम्मद ख़ान की क़ैद से आज़ाद करवा देंगे तो वो बहुमूल्य कोहिनूर हीरा महाराजा को उपहार के रूप में भेंट कर देंगी।
महाराजा के जरनैलों ने महाराज को वफ़ा बेगम के इस प्रस्ताव के बारे में बताया तो महाराजा ने तुरंत उनकी पेशकश स्वीकार कर ली। महाराजा अभी कश्मीर पर चढ़ाई करने की तैयारी कर ही रहे थे कि कश्मीर के सूबेदार के वज़ीर फ़तह खां तथा उसके ऐलची दीवान गोदड़ मल ने महाराजा के दरबार में पेश होकर ,उन्हें कश्मीर के सूबेदार की, काबुल के हाकिम के विरूद्ध शुरू की गई बग़ावत की जानकारी दी और साथ ही सूबेदार से मुक़ाबला करने के लिए मदद भी मांगी।
महाराजा ने इस युद्ध में आने वाले खर्च के संबंध में उन से स्पष्ट बातचीत करके दीवान मोहकम चंद, निहाल सिंह अटारीवाला तथा जोध सिंह कलसिया के नेतृत्व में एक बड़ी फौज लाहौर से रवाना कर दी। कश्मीर के पास शेरपुर तथा हरी पर्वत के मुक़ाम पर दोनों फ़ौजों में बहुत भयंकर युद्ध हुआ। अंतः लाहौर दरबार की फ़ौजें, कश्मीरी सूबेदार की फ़ौज को वहां से खदेड़ने तथा शाह शुजा को ज़िंदा बचाने में कामयाब हो गईं। हालांकि वज़ीर फ़तह खां तथा उसकी फ़ौज ने युद्ध समाप्ति के बाद भी, बहुत कोशिश की कि दीवान मोहकम चंद तथा निहाल सिंह, शाह शुजा को लाहौर न लेजा पायें। उन्हें रोकने के हर मुमकिन प्रयास किये गये, परन्तु वह कामयाब न हो सके।
लाहौर पहुँचने पर शाही जुलूस के रूप में शाह शुजा को सही सलामत वफ़ा बेगम के पास मुबारक हवेली में ले जाया गया। कुछ महीने बीत जाने के बाद भी जब वफ़ा बेगम ने अपने वादे के अनुसार कोहिनूर हीरा महाराजा को भेंट नहीं किया, तो फ़क़ीर अज़ीज़ उद्दीन ने शाह शुजा को वफ़ा बेगम का वादा याद दिलाया। इस पर शुजा ने बहाना बनाते हुए पहले कहा कि जब उसने हीरा अफ़ग़ानिस्तान भेजा था, तब जल्दबाज़ी में वह कहीं गिर गया। फिर कुछ दिनों बाद कहा कि हीरा उसने कंधार के एक धनी के पास छः करोड़ रूपए में गिरवी रख दिया है तथा अंत में उसने पीले रंग का बड़ा सा पुख़राज फ़क़ीर अज़ीज़उद्दीन के हाथ में थमाते हुए कहा कि यही कोहिनूर हीरा है। इस पर महाराजा ख़ुद मुबारक हवेली में शाह शुजा के पास आए और उन्होंने वफ़ा बेगम का वादा याद दिलाते हुए कहा कि कोहिनूर हीरे के बदले में उन्हें तीन लाख रूपए नक़द तथा 50 हज़ार रूपए की वार्षिक जागीर भी दी जाएगी। शाह शुजा ने महाराजा का प्रस्ताव मान लिया। उसके बाद 1 जून 1813 को महाराजा ने जागीर का पटा लिखकर, कोट कमालिया, झंग तथा सियाल और कलानौर के कुछ गांवों की जागीर शाह शुजा के नाम कर दी । फिर उसी दिन इसके एवज़ में उससे कोहनूर हीरा प्राप्त कर लिया गया।
कन्हैया लाल ‘तवारीख़-ए-पंजाब’ के पृष्ठ 216 पर और सैय्यद मोहम्मद लतीफ़ ‘लाहौर’ के पृष्ठ 380 पर लिखते हैं कि शाह शुजा से कोहेनूर हीरा प्राप्त करने के बाद महाराजा ने शाह शुजा से पूछा कि इस हीरे की क्या क़ीमत होगी? इस पर शाह ने उत्तर दिया,“महाराजा इसकी क़ीमत लाठी है। मेरे पूर्वजों की लाठी में दम था और उन्होंने उसी लाठी की धौंस पर किसी और से यह हीरा छीन लिया था और अब आपकी लाठी में दम है इसीलिये आपने यह हीरा मुझसे छीन लिया, कल कोई और बड़ा शक्तिशाली राजा आएगा तो वह इसी लाठी के दम पर आप से यह हीरा छीन लेगा।”
कोहिनूर: दी स्टोरी आफ़ द् इनफ़ेमस डायमंड’ पुस्तक के अनुसार कोहिनूर को सिख सल्तनत के तोषाख़ाना में शामिल किए जाने के बाद महाराजा रणजीत सिंह इसे बाज़ूबंद में जड़वाकर अपने बाज़ू पर बाँधते थे।
‘अमृतसरः पास्ट एंड प्रज़ेंट’ के अनुसार कोहिनूर हासिल करने के बाद महाराजा अमृतसर पधारे और उसकी प्रदर्शनी के लिए हाथी पर बैठकर पूरे शहर में विशाल जुलूस निकाला गया। मारक्यूस आफ़ डल्हौज़ी के व्यक्तिगत पत्रों के पन्ना नं. 395 के अनुसार जब यह हीरा अमृतसर के जौहरियों के पास मूल्यांकन के लिए भेजा गया, तो उन्होंने इसमें अपनी असमर्था ज़ाहिर करते हुए कहा कि इस हीरे की क़ीमत का अनुमान लगाना उनके बस की बात नहीं है। महाराजा कहीं भी जाते थे तो सफ़र के दौरान कोहिनूर अपने पास ही रखते थे। शुरू-शुरू में सुरक्षा के लिए लाहौर में वे यह हीरा मोची दरवाज़े के नज़दीक बनी मुबारक हवेली में रखवाते थे और अमृतसर आने पर कोहिनूर हीरा क़िला गोबिंदगढ़ में अपने खजांची मिसर बस्ती राम के पास रखवाते थे। वे बाक़ायदा मिसर बस्ती राम से हीरा रखने की रसीद भी लेते थे।
कोहिनूर हीरे की एक ख़ासियत यह भी रही है कि यह हीरा कई सल्तनतों और शाही तख़्तों की शान बना, पर यह न कभी बिका और न ही कभी किसी बादशाह ने इसे ख़रीदा । यह हीरा हमेशा ताक़त के बल पर,एक बादशाह से दूसरे ताक़तवर बादशाह या हुक्मरान के हाथों में घूमता रहा । सिर्फ़ एक महाराजा रणजीत सिंह ही थे, जिन्होंने शाह शुजा दुर्रानी से एक समझौते के तहत, बड़ी रक़म और जागीर के बदले में कोहेनूर हीरा हासिल किया था। कन्हैया लाल भी “तवारीख़-ए-पंजाब” के पृष्ठ 349 पर लिखते हैं कि महाराजा रणजीत सिंह के अंतिम संस्कार के समय ध्यान सिंह डोगरा ने कहा था कि महाराजा कई बार यह इच्छा व्यक्त किया करते थे कि कोहिनूर हीरा किसी बादशाह के पास ज़्यादा समय टिका नहीं, इसलिए अच्छा हो कि पुण्य कार्य करते हुए कोहेनूर को या तो जगन्नाथ जी के मंदिर या गुरु रामदास जी के दरबार में भेंट कर दिया जाए। ..परंतु जब हीरा तोषाख़ाना में से मँगवाया गया तो तोषाख़ाना के अधिकारी मिसर बेली राम ने हीरा देने से मना कर दिया। उनका कहना था कि यह माल-धन राज्य के उत्तराधिकारी का है और उनकी अनुमति के बिना यह हीरा किसी को भी नहीं दिया जा सकता। महाराजा खड़क सिंह के देहांत के बाद जब गुलाब सिंह डोगरा लाहौर क़िले में लूट-खसोट कर भागने की तैयारी कर रहा था तो मिसर बेली राम ने होशियारी से, उसके कब्ज़े से हीरा छीन कर महाराजा शेर सिंह के हवाले कर दिया था। सिख दरबार और ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया ट्रेडिंग कंपनी की फ़ौज के दरमियान हुए ऐंगलो-सिख युद्धों में सिख दरबार की पराजय हो गई थी। उसके बाद पंजाब पर अंग्रेज़ों का क़ब्ज़ा हो गया । लार्ड डल्हौज़ी ने लाहौर दरबार के शाही ज़ैवरों के साथ ही यह हीरा 6 अप्रैल 1850 को मुम्बई की बंदरगाह से समुद्री जहाज़ के ज़रिये इंग्लैंड भिजवा दिया था। इसके बाद नाबालिग़ महाराजा दलीप सिंह को इंग्लैंड भिजवाया गया और छल और फरेब से कोहिनूर हीरा महारानी को उपहार के रूप में भेंट करवा दिया गया।
‘कोहिनूर: दी स्टोरी आफ़ द् इनफ़ेमस डायमंड’ में दर्ज है कि लाहौर से ले जाए जाने के बाद, सुरक्षित जहाज़ के इंतजार में कोहेनूर क़रीब आठ माह तक कलकत्ता में रहा। महाराजा दलीप सिंह और उनके पश्चात उनकी पुत्री शहज़ादी बंबा सोफ़िया की ओर से भारत के सुप्रीम कोर्ट में कोहेनूर हीरे के लिए मुक़द्दमा दायर किया गया। परंतु उन्हें कोई सफलता नहीं मिल सकी। सन् 1953 में यह हीरा महारानी एलिज़ाबैथ( द्वितीय) के ताज में जड़ा गया था। फ़िलहाल यह टावर आफ़ लंदन की शान बना हुआ है।
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