कंकाली टीला : मथुरा का जैन स्तूप

यमुना के तट पर स्थित मथुरा नगरी , भारत के सबसे ऐतिहासिक और प्राचीन शहरो में से एक है | हिन्दू धर्म में मथुरा को भगवन श्री कृष्ण की नगरी होने के कारन महत्व प्राप्त है | गरुड़ पुराण में मथुरा का, भारत के सात सबसे पावन शहरो में से एक, ऐसा उल्लेख है | पर क्या आप जानते हैं , जितना हिन्दू धर्म में मथुरा का महत्व है उतना ही महत्व जैन धर्म में भी है | पर ज़्यादातर लोग मथुरा की जैन विरासत से अनजान है |

मथुरा का इतिहास तीन हज़ार साल से भी पुराना है | यहाँ पर पेंटेड ग्रे वेयर कल्चर के अवशेष मिले है जो हमे ये बताते है की यहाँ पर ११०० इसा पूर्व से मानवी आबादी रहा करती थी | समय के साथ, पंजाब से दक्षिण भारत जाने वाले व्यापारी मार्ग पर स्तित होने के कारण , मथुरा को महत्व प्राप्त हुआ | ४थि शताब्दी इसा पूर्व से मथुरा व्यापार का एक बड़ा केंद्र बना | दूर दूर से बड़े व्यापारी यहाँ आकर बसने लगे जिनमें जैन व्यापारी भी शामिल थे| यही से शुरू हुआ मथुरा नगरी और जैन धर्मियों का एक गहरा रिश्ता जो आज भी कायम है |

मथुरा की ऐतिहासिक जैन विरासत की ज्यादा तर जानकारी हमें एक छोटे से टीले में मिले अवशेषों से मिलती है , जिसे कंकाली टीला कहा जाता है | मथुरा के आज़ाद नगर परिसर में स्थित इस टीले का नाम, पास के कंकाली देवी मंदिर से मिला है |

इस ऐतिहासिक टीले के बारे में बहुत कम लोग जानते है , जिसका उत्खनन सं १८७० से लेकर १८९० तक हुआ | उत्खनन में मिले अवशेषों ने मथुरा के जैन कालीन इतिहास पर एक नया प्रकाश डाला | प्रख्यात पुरातत्त्ववेत्ता सर अलेक्जेंडर कन्निन्घम ने सं १८७१ में कंकाली टीले के पश्चिमी भाग का उत्खनन किया | खुदाई के दौरान उन्हे शिल्प , ख़ाब , रेलिंग , गेटवे आदि के अवशेष मिले जो कुषाण साम्राज्य के काल से थे | कुषाण साम्राज्य के काल में (लगभग सं ३० से सं ३७५ तक) मथुरा नगरी कुषाण सम्राटो की दक्षिणी राजधानी हुआ करती थी | कंकाली टीले की खुदाई में बड़ी तादाद में दानपात्र मिले जिनमें दाताओ के नाम लिखे हुए थे | ये दाता समाज के हर टपके से थे , एक लोहार की पत्नी , इत्तर के व्यापारी , एक तवाइफ़ , इत्यादि | इससे हमें मथुरा का जैन समाज कितना बड़ा और विभिन्न था ये पता चलता है |

कंकाली टीले का अगला उत्खनन सं १८८८ और १८९१ के बीच , प्रख्यात जर्मन पुरातत्त्ववेत्ता डॉ आंतों फुहरेर की अगवानी में हुआ |खुदाई के नतीजों ने भारतीय पुरातात्विक जगत को हिला दिया | यहाँ पर, भारत में पहली बार एक जैन स्तूप के अवशेष मिले थे , जो साबित करते थे की एक काल में जैन धर्मिय भी बौद्ध धर्मियो की तरह स्तूप की पूजा करते थे |हलाकि जैन स्तूप पूजा का सन्दर्भ , पुरातन जैन साहित्य में मिलता है , पर पहली पार इस तथ्य को पुरातात्विक सबूत के साथ साबित किया गया था | टीले की खुदाई में , स्तूप के आलावा , दो जैन मंदिर भी मिले जो दिगंबर और श्वेताम्बर संप्रदाय के थे |

कंकाली टीले के इस जैन स्तूप का सन्दर्भ हमें १४वी सदी के एक जैन ग्रन्थ ‘विविध तीर्थ कल्प’’ में मिलता है| कल्प में सन्दर्भ है की एक समय दो जैन भिक्षु मथुरा आये और उन्होने एक बाग़ में आसरा लिया | उनसे प्रभावित होकर उस बाग़ की मालकिन, जो एक देवी थी, ने जैन धर्म अपना लिया | इस महिला ने पवित्र मेरु पर्वत के स्मरणार्थ , ये स्तूप बनवाया , जो ‘देवनिर्मित स्तूप ‘’के नाम से जाना जाता था |

विविध तीर्थ कल्प में हमे ,मथुरा में जैन धर्म उपासना के अधिक संदर्भ मिलते है |कल्प में लिखा है की भगवान कुबेर ने खुद मथुरा वासियो को जैन तीर्थंकरो की उपासना करने की नसीयत दी और इसी कारण हर घर के द्वार पर तीर्थंकरो की प्रतिमा लगाने का रिवाज शुरू हुआ |  जैन तीर्थंकर के मथुरा से गहरे सम्बन्ध थे | मान्यता के अनुसार २१वे जैन तीर्थंकर नमिनाथ का जन्म मथुरा में ही हुआ| इस के अलावा, महावीर, २४वे और आखरी तीर्थंकर, भी मथुरा आए थे |

कंकाली टीले की खुदाई में  ८०० से ज्यादा जैन अवशेष मिले| एक देवी सरवती की मूर्ति भी मिली , जो १९०० साल पुरानी है | ये भारत की सबसे पुराणी देवी सरस्वती की मूर्ती मानी जाती है , जिसे एक जैन लोहार ने स्तूप को दान की थी | यह सिर रहित है, जिसके बाएं हाथ में पुस्तक है और दाहिने हाथ में एक माला है।

हम नहीं जानते की इस जैन स्तूप की तबाही कब और कैसे हुई | ११वी सदी में सुल्तान महमूद ग़ज़नवी ने मथुरा पर हमला कर यहाँ पर बड़ी तबाही मचाई | इस भीषण हमले से मथुरा कभी उभर नहीं पायी | यहाँ के जैन मंदिर समय के साथ विलुप्त हो गए | १९ शताब्दी में जैन व्यापारी फिर से मथुरा में बसने लगे और यहाँ का जैन समाज फिर से फूलने लगा |

आज कंकाली टीले से मिले अवशेष आप मथुरा म्यूजियम में देख सकते है , जो मथुरा की पुरातन जैन विरासत के गवाह है |