दक्षिण मुंबई के गहन सुरक्षा वाले सैनिक क्षेत्र कोलाबा में अफ़्रीका मूल का एक ग्रुप नितांत ख़ामोशी से रहता है, हैरानी की बात ये है कि ये ग्रुप यहां सैंकड़ों सालों से रह रहा है। आप इन्हें सिद्दी यानी हब्शी समझने की ग़लती न करें क्योंकि ये इंसान ही नही हैं। ये दरअसल बाओबाब पेड़ की नस्लें हैं। लेकिन उष्णकटिबंधीय( [ट्रापिकल) मुंबई में इनका क्या काम…? इसके पहले कि हम इस बारे में कुछ बताएं, चलिये बात करते हैं इस पेड़ से जुड़ी कुछ रोचक क़िस्सों की!
वनस्पति विज्ञान में इन विशाल पेड़ों को एडंसोनिया डिजिटा कहा जाता है । एडंसोनिया वंश के तहत इनकी 9 नस्लें होती हैं । एडंसोनिया नाम फ़्रांस के मशहूर वनस्पति शास्त्री माइकल एडोंसन के नाम पर रखा गया है । एडोंसन ने ही सन 1750 में सेनेगल में ‘बाओबाब’ की खोज की थी । इस पेड़ की नौ उप जातियों (नस्ल) में से छह का मेडागास्कर, दो का अफ़्रिका और एक का ऑस्ट्रेलिया से संबंध है ।
बाओबाब एक दिलचस्प पेड़ है जिसे लेकर कई मिथक और कहानियां हैं । इसे ‘उल्टा पेड़’ भी कहा जाता है । एक अरब कहानी के अनुसार एक बार इस पेड़ का सामना एक राक्षस से हो गया जिसने इसे ज़मीन से उखाड़कर सिर के बल ज़मीन पर पटक दिया । इस उठापटक में पेड़ का सिर नीचे और जड़ें ऊपर हवा में रह गईं । दरअसल, पेड़ देखने में लगता है मानों उल्टा हो । इसका तना बहुत मोटा होता है जिसमें से कई शाखाएं निकली होती हैं । अफ़्रीक़ी मिथक में भी इसके उल्टे होने का उल्लेख है । इन मिथकों के अनुसार सभी जानवरों को एक पेड़ लगाने के लिए दिया गया था लेकिन लकड़बग्घे ने ये पेड़ उल्टा लगा दिया । इस पेड़ की सबसे बड़ी ख़ासियत ये है कि ये उन स्थानों में भी अपने भीतर ख़ूब पानी समा लेता हैं जहां पानी की कमी होती है । इसकी फलियों में प्रचुर मात्रा में विटामिन सी पाया जाता है । इनके पत्तों की सब्ज़ी बनती है और इनके बीजों को भूनकर खाया जाता है । इसके बीजों में तेल भी मिलता है । इसकी छाल से रस्सी भी बनाई जा सकती है ।
बाओबाब में मिलने वाले विटामिन सी की वजह से लोग इसे एक जगह से दूसरी जगह लेकर जाते थे। सबसे पहले अरब और पुर्तगाली यात्री रक्त की बीमारी से बचने के लिए इसे समुद्र-यात्रा में अपने साथ रखते थे । रक्त की ये बीमारी विटामिन सी की कमी की वजह से होती है और सही उपचार न होने पर मृत्यु भी हो सकती है । बाओबाब के फल में विटामिन सी संतरे की तुलना में छह गुना ज़्यादा होता है । यात्रा करने वाले व्यापारी और नाविक जहां भी जाते थे, जाने अनजाने इसके बीज गिरा दिया करते थे जो समय के साथ विशाल पेड़ की शक्ल में उग जाया करते थे । भारत और मेडागास्कर तथा अफ़्रीक़ा में इसकी सिर्फ़ एक नस्ल पाई जाती है जिसे एडंसोनिया डिजिटा कहते हैं ।
ये पेड़ पुरातत्वविदों के लिए भी बहुत मददगार साबित होते हैं क्योंकि पश्चिम तट पर मध्ययुगीन स्थलों की खुदाई के दौरान ये अक्सर नज़र आते हैं । इनके आसपास प्रारंभिक मध्यकालीन या पुर्तगाली अवशेष भी बिखरे देखे जा सकते हैं ।
ये स्थल दरअसल मध्ययुगीन गोदाम की तरह हैं । संजन, चौल, मंदाद, सोपारा, तारापुर और वेल्हा गोवा जैसे स्थानों के पास व्यापारियों और समुद्र यात्रियों के सामान के मलबे बिखरे पड़े हैं । इस मायने में बाओबाब समुद्री व्यापार से जुड़े अनजाने पुरातात्विक स्थानों का एक महत्वपूर्ण संकेतक है । ये उत्तरी और पश्चिमी भारत के आतंरिक इलाक़ों के उन महत्वपूर्ण व्यापारी रास्तों पर भी पाया जाता है जहाँ अरब व्यापारी ठहरा करते थे ।
ऐसा ही एक मध्ययुगीन नगर है मांडू जो मध्य प्रदेश (1392 to 1562 ई.) में मालवा सल्तनत की राजधानी हुआ करता था । इस मध्ययुगीन शहर में बाओबाब ख़ूब पाए जाते हैं और स्थानीय लोग इसे ‘मांडू की इमली’ कहते हैं । फ़लों के मौसम में ठेलेवाले फल और इसके गूदे से शरबत बनाकर बेचते हैं । बाओबाब पेड़ इलाहबाद में गंगा तट और पश्चिमी घाटों पर दिखाई पड़ते हैं ।
भारत में बाओबाब को कल्पवृक्ष या वो पेड़ माना जाता है जो मन्नत पूरी करता है । माना जाता है कि इच्छा पूर्ति करने वाला ये वृक्ष देवताओं और राक्षसों के समुद्र मंथन से निकला था । हरिवंश पुराण के अनुसार बाओबाब का सिर्फ़ एक ही पेड़ उत्तर प्रदेश के बाराबंकी ज़िले में है और बाक़ी पेड़ स्वर्ग में हैं । इस ग्रंथ के अनुसार पांडव की मां कुंती ने इस पेड़ के फूल भगवान शिव को दिए थे । माना ये भी जाता है कि भगवान कृष्ण अपनी पत्नी सत्यभामा को प्रसन्न करने के लिए ये पेड़ यहां लाए थे । बाओबाब के और भी कई नाम हैं । जैसे गुजरात में इसे चोर-आमलो (आमलो-इमली का पेड़) कहते हैं क्योंकि चोर इसके ऊपर छुप जाया करते थे । महाराष्ट्र में इसे गोरखचिंच कहते हैं । ऐसी मान्यता है कि नाथ संत गोरखनाथ ने इस पेड़ के नीचे अपने शिष्यों को दीक्षा दी थी । स्थानीय भाषा में चिंच का अर्थ इमली का पेड़ होता है ।
अफ़्रीक़ा में इसके फल को दवा के रुप में इस्तेमाल किया जाता है ।
भारत में भी आयुर्वेदिक दवा बनाने में इसका प्रयोग होता है । आयुर्वेद में इससे पेचिश और त्वचा में सूजन जैसी बीमारियों का इलाज किया जाता है। इसके बीज का तेल त्वचा रोगों के लिए कारगर माना जाता है।
अफ़्रीक़ा में आज बाओबाब कई लोगों के जीवनयापन का साधन बन गया है और महिलाओं के लिए कमाई का ज़रिया भी । इसके बीज का इस्तेमाल दवाओं के रुप में हो रहा है । इसके फ़ानूसनुमा सुंदर सफ़ेद फूलों की वजह से बाग़ीचों में ये पेड़ लगाए जा रहे हैं । बाओबाब का विशाल दरख़्त हज़ारों साल ज़िंदा रहता है और हमेशा फलों से लदा रहता है। शायद इसीलिए ये कल्पवृक्ष यानी जीवन दायनी वृक्ष हैं।
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