क्या आप जानते हैं कि भारतीय उपमहाद्वीप की सबसे खूबसूरत मस्जिदों में से एक सिंध में थट्टा की ‘नीली मस्जिद’ है? थट्टा की जामिया मस्जिद को पांचवें मुगल सम्राट, शाहजहाँ द्वारा बनवाया गया था। लेकिन आगरा के ताजमहल और दिल्ली की जामा मस्जिद जैसे अन्य स्मारकों के विपरीत, पाकिस्तान में यह मस्जिद, हालांकि सुंदरता और भव्यता के बराबर है, पर्याप्त ध्यान आकर्षित करने में विफल रही है।
पाकिस्तान में करांची से एक सौ कि.मी. दूर थट्टा आज एक धीमी रफ़्तारवाला शहर है लेकिन किसी समय ये सिंध की राजधानी और व्यापारिक केंद्र हुआ करता था। थट्टा राजधानी की ख़ुशहाली की वजह उसकी भौगोलिक स्थिति थी। क्योंकि ये सिंघ नदी के मुहाने पर बसा हुआ था। थट्टा कई राजवंशों का सत्ता केंद्र रहा है। सन 711 में उमय्यद ख़िलाफ़त के जनरल मोहम्मद बिन क़ासिम ने स्थानीय शासक राजा दहीर से ये क्षेत्र छीन लिया था। अरब हमले के बाद 11वीं शताब्दी के आरंभ में मेहमूद गज़नी ने यहां आक्रमण किया। ये हमला सन 1000 और सन 1027 के दौरान तुर्की मूल के सुल्तान के, भारतीय उप-महाद्वीप पर किए गए 17 हमलों में से एक था। गज़नी के स्थानीय सेनापति इब्न सुमर ने सिंध में सत्ता हथिया कर सुमरा राजवंश की स्थापना की जिसने सन 1051 से लेकर सन 1351 तक राज किया। सन 1351 में सम्मा राजवंश जिसे राजपूत वंश का माना जाताहै, ने इस क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया और थट्टा को अपनी राजधानी बना लिया। यहीं से आने वालों वर्षों तक थट्टा ने अपना सुनहरा समय देखना आरंभ किया था।
सन 1520 में सम्मा शासक जाम फ़ीरोज़ को अरघुन राजवंश के शाह बेग ने हरा दिया। अरग़ून राजवंश को तैमूर के फैलते साम्राज्य ने अफ़ग़ानिस्तान से पूर्व की तरफ़ खदेड़ दिया था। अरग़ून के बाद यहां तरख़ान राजवंश का शासन हो गया जिसके शासक मिर्ज़ा जानी बेग तरख़ान ने सन 1592 में अकबर के कमांडर अब्दुल रहीम ख़ान-ए-ख़ाना के सामने आत्मसमर्पण कर मुग़ल बादशाह का आधिपत्य स्वीकार कर लिया।
मुग़ल थट्टा पर हमला करने पर आमादा थे क्योंकि वे लहारी बंदर जैसे संपन्न समुद्री बंदरगाहों पर कब्ज़ा करना चाहते थे। थट्टा शहर न सिर्फ़ भीतर से बल्कि अरब और फ़ारस में भी पश्चिम एशियासमुद्री नेटवर्क की वजह से संगठित था। थट्टा पर नियंत्रण से मुग़ल पुर्तगालियों की संभावित घुसपैठ से सिंधु नदी की सुरक्षा करने में भी कामयाब रहे।
10वीं और 17वीं शताब्दी के दौरान थट्टा शहर और इसके आसपास के इलाक़ों में कई महत्वपूर्ण स्मारकों का निर्माण हुआ। लेकिन शाहजहां की “नीली मस्जिद” थट्टा के गौरवशाली दिनों की निशानी बनी रही ।
मस्जिद निर्माण के पीछे कहानी कुछ इस तरह है। सन 1626 के क़रीब शाहजहां ने अपने पिता जहांगीर के ख़िलाफ़ बग़ावत कर मुग़ल साम्राज्य की प्रांतीय राजधानी थट्टा में शरण ले ली थी। शाहजहां को डर था कि उन पर पिता का भरोसा उठ चुका है और कामयाब सैन्य अभियानों के बावजूद जहांगीर उन्हें अपना अत्तराधिकारी नहीं बनानेवाले हैं।
शाहजहां की, अपनी सौतेली मां यानी बेगम नूरजहां से भी खुली अदावत चल रही थी जो शहज़ादे शहरयार (शाहजहां का छोटा भाई) को अगला बादशाह बनावाना चाहती थीं। एक बाग़ी शहज़ादे के तौर पर भी थट्टा में, सिंधी लोगों की मेहमान नवाज़ी से शाहजहां बहुत प्रभावित हुआ। जब शाहजहां बादशाह बना तो उसने इस मेहमान नवाज़ी के बदले थट्टा में एक मस्जिद बनाने का आदेश दिया।
ये मस्जिद सन 1644 और सन 1647 के दौरान बनकर पूरी हुई। सन 1637 में थट्टा में भयंकर तूफ़ान आया था जिसकी वजह से शहर को काफ़ी नुक़सान हुआ था। बहुत मुमकिन है कि इस नुक़सान की भरपाई के इरादे से ही शीहजहां ने यह मस्जिद बनवाने का फ़ैसला किया हो।
इस मस्जिद की ख़ासियत ये है कि ये मुग़लों की बनवाई गईं अन्य मस्जिदों से अलग है। मुग़ल स्मारक जहांअमूमन बालूपत्थर और संगमरमर के बने हुए हैं। लेकिन ये मस्जिद ईंटों की बनी है। मस्जिद के अंदर जियामितीय कोणों से लगी ईंटों के साथ साथ पूरे उपमहाद्वीप में टाइल का सबसे व्यापक काम हुआ है।
उसके गुम्बद, मेहराब, प्रवेश-द्वार और अन्दरूनी हिस्से में चमकदार फ़ीरोज़ी और सफ़ेद रंग की टाइल्स को मिला कर फूलों की आकृतियां बनाई गई हैं।
ये तो स्पष्ट है कि शाहजहां की बनवाई गई मस्जिद मध्य एशियाई वास्तुकला से प्रभावित थी। ये मस्जिद तब बनी थी जब शाहजहां बल्ख़ पर कब्ज़े करने के बाद समरक़ंद (आज अज़बेकिस्तान) की तरफ़ बढ़ रहा था। शाहजहां मध्य एशिया में सैन्य अभियान पर रह चुका था और यही वजह है कि मस्जिद की वास्तुकला में वहां की झलक दिखाई देती है।
मस्जिद का मुख्य प्रवेश-द्वार चारबाग़ से गुज़र कर आता है। मस्जिद के मध्य दालान के पश्चिम की तरफ़ नमाज़ पढ़ने का मुख्य हॉल है जिसकी हर दिशा में एक एक आयताकार हॉल है। 169X97 फ़ुट बरामदा आयताकार है। ये चारों ओर गलियारों से घिरा है जिसमें 33 मेहराबें हैं।
ध्वनि विज्ञान के लिहाज़ से भी ये मस्जिद इतनी अच्छी है कि मेहराब के सामने नमाज़ पढ़ने वाले की आवाज़ पूरी इमारत में सुनी जा सकती है। आवाज़ के गूंजने की वजह है अलग अलग साइज़ के 93 गुंबद जो सारी इमारत में हैं। दिलचस्प बात ये है कि मस्जिद की एक भी मीनार नही है। मस्जिद की दीवारों पर सुलेख रुपांकन है।
1658-59 में मस्जिद का पूर्वी हिस्सा और प्रवेश द्वार पूरा हो चुका था जो शायद औरंगज़ेब ने करवाया था। 1812 में स्थानीय मुखिया मुराद अली ख़ान ने मस्जिद का मरम्मत का काम करवाया। ये मस्जिद 1993 से यूनेस्कों को विश्व धरोहर की संभावित सूची में है लेकिन अभी तक इसे मान्यतानही मिली है।
आज अगर आपको शाहजहां मस्जिद देखने का मौक़ा मिले तो इसकी ख़ूबसूरती आपको विस्मत कर एक अलग ही दुनिया में ले जाएगी।
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