भारत में, हर साल एक ऐसा भी त्यौहार आता है जब देश में, ख़ासकर उत्तर, पूर्व और पश्चिम भारत में रंगों की बरसात होती है, जिसे हम सब होली के नाम से जानते हैं लेकिन क्या आपको पता है कि रंगों के इस त्यौहार ने कैसे भारत में कला की दुनिया को प्रेरित किया है? होली का आरंभिक उल्लेख चौथी शताब्दी के कवि कालीदास की रचनाओं में मिलता है। रंगों से खेलने वाले इस उत्सव ने राजस्थान से लेकर विजयनगर और फिर मुग़ल दरबारों में एक ऐसे त्यौहार का रुप ले लिया जिसे आज हम होली के नाम से जानते और मनाते हैं।
कालीदास ने चौथी और 5वीं शताब्दी में लिखी कविता कुमरासंभव और मालविकाग्निमित्रम् में होली त्यौहार का उल्लेख किया है। होली का उल्लेख दूसरी ई.पू. शताब्दी और दूसरी शताब्दी के धार्मिक ग्रंथों विष्णु पुराण और मिमांसा में भी मिलता है। लेकिन चित्रों और मूर्तिकलाओ में होली की झलक मध्यकाल, 15वीं शताब्दी से ही दिखाई देती है। होली खेलने का पहला उल्लेख दक्षिण भारत में विजयनगर के हम्पी शहर से मिलता है। यहां पैनल पर मूर्तिकला में लोगों को नाचते-गाते और बजाते, होली खेलते देखा जा सकता है। यहां आपको लोगों के हाथों में रंगों से भरी पिचकारियां दिखाई देंगी जो आधुनिक पिचकारी का प्रारंभिक रुप रहा होगा।
ये देखकर हैरानी हो सकती है कि होली का प्रभाव कलाओं में पहले क्यों नज़र नही आया। दरअसल राजपूत,मुग़ल और पहाड़ी रियासतों के युग में ही चित्रकारों ने अपनी कला में होली को दर्शाना शुरु किया। ये एक ऐसा त्यौहार रहा है जिसे हिंदू और मुसलमान दोनों ही बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाते थे। चलिये देखते हैं कि अलग-अलग समय और स्थानों पर कला में होली के त्यौहार को किस तरह से दर्शाया गया ह
राजपूत चित्रकारी -राजस्थान के मेवाड़ में एक युगल को होली खेलते दिखाने वाली ये पेंटिंग इस त्यौहार को दर्शाने वाली आरंभिक कलाकृतियों में से एक है जो आधिकारिक रुप से 17वीं शताब्दी की मानी जाती है लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि ये उससे भी पुरानी हो सकती है।
होली उन कुछ भारतीय त्यौहारों में से एक ऐसा त्यौहार है जिसे महिलाएं बिंदास भाव से खुलकर मनाती हैं यानी बिना किसी झिझक से खुलेआम पुरुषों की तरह रंग-गुलाल लगाकर अपनी भावनाओं का इज़हार करती हैं। होली पर भारतीय उन्मुक्त महिलाओं का चित्रण बीकानेर के इस लघुचित्र में देखा जा सकता है।
भारतीय कला में कृष्ण को कई रुपों में दिखाया गया है और ऐसे कैसा हो सकता है कि होली का त्यौहरा हो और कृष्ण नदारद रहें। नाथद्वार की 18वीं शताब्दी की इस पेंटिंग में कृष्ण राधा के साथ होली खेलते दिखाए गए हैं।
19वीं शताब्दी की इस पेंटिंग में मेवाड़ के सामंत गोकुल रावत दास को होली खेलते दर्शाया गया है।
मुग़ल चित्रकारी -मुग़ल शासक, ख़ासकर जहांगीर को होली खेलना बहुत पसंद था। कई चित्रों में जहांगीर को लोगों के साथ होली खेलते दिखाया गया है जैसे लखनऊ की इस पेंटिंग में।
होली की चित्रकारी में छोटे-बड़े शाही लोगों को होली के रंग में डूबा दिखाया गया है। ऐसी ही एक पेंटिंग है ये जो सन 1780 में फ़र्रुख़ाबाद में राजकुमार को हरम की महिलाओं के साथ होली खेलते दर्शा रही है।
मुग़लों के समय में भी कलाचित्रों में कृष्ण को होली खेलते दिखाया गया है। लखनऊ की 19वीं शताब्दी कीये पेंटिंग इसका उदाहरण है।
दक्कन चित्रकारी – विश्व भर से संकलित इन चित्रों में देखा जा सकता है कि कला में होली त्यौहार का चित्रण दक्षिण भारत में दक्कन और उत्तर में पहाड़ी दरबारों तक भी फैल गया था। दक्कन के राजा और राजकुमार होली का त्यौहार बहुत धूमधाम से मनाते थे और इसीलिये यहां की ज़्यादार चित्रकारी में शाही लोगों को होली खेलते दर्शाया गया है।
इसकी एक झलक शोरापुर और हैदराबाद की 18वीं शताब्दी के इस चित्र में मिलती है।
पहाड़ी चित्रकला शैली में राधा और कृष्ण को लोगों के साथ होली के रंगों में डूबा दिखाया गया है। इसके दो शानदार उदाहरण हैं कांगड़ा और गुलेर की 18वीं शताब्दी की ये पेंटिंग्स।
कंपनी आर्ट –18वीं और 19वीं शताब्दी में यूरोप से बड़ी संख्या में लोग भारत आए थे और इसके साथ ही कंपनी आर्ट का भी उदय हुआ। कैथोलिक परवरिश की वजह और क्वीन विक्टोरिया द्वारा स्थापित मूल्यों और सिद्धांतों को लेकर यूरोपीय लोग काफ़ी सख़्त थे और इसीलिये उन्हें होली का त्यौहार जिस तरह से मनाया जाता है, उसे देखकर बहुत आश्चर्य हुआ। बहरहाल, वे भी अपनी चित्रकला में होली को दर्शाने से रोक नहीं सके। ये हैं कुछ उदाहरण।
रंग, खानापीना, नाच-गाना और संगीत, ये होली त्यौहार की ऐसी ख़ूबियां हैं जो हर जाति-धर्म के लोगों को बरबस अपनी तरफ़ खींच लेती हैं। इस त्यौहार में दिखने वाली अनेकता में एकता ने हमेशा कला को प्रेरित किया है।
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