राजस्थान का नाम आते ही ज़हन में मरुस्थल, रंग, पराक्रम, वीरता और योद्धाओं की छवि उभर आती हैं । ये राजस्थान के ऐतिहासिक क़िले ही हैं जिन्होंने ये तमाम तस्वीरें सजों रखी हैं। थार में जैसलमेर का भव्य क़िला हो या फिर झालावाड़ ज़िले में गगरोन का वॉटर फ़ोर्ट (जल दुर्ग), इन सभी के साथ रोचक कहानियां जुड़ी हुई हैं। हम आपको राजस्थान के उन छह क़िलों के बारे में दिलचस्प बातें बताने जा रहे हैं जो यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल हैं।
1. चित्तौड़गढ़ का क़िला
राजस्थान में राजसमंद ज़िले में स्थित चित्तौड़गढ़ क़िले और इससे जुड़ी वीरता और प्रेम कहानियों के बारे में लगभग हम सभी सुनते आये हैं। चित्तौड़गढ़ का नाम स्थानीय मौर्य शासक चित्रांगदा मोरी के नाम पर रखा गया था जिसने सन 400 के क़रीब क़िला बनवाया था। पहले ये क़िला लकड़ी का हुआ करता था लेकिन मेवाड़ के सिसोदिया शासकों के शासनकाल में 14वीं और 16वीं शताब्दी के बीच इसमें बदलाव किए गए और तभी से इसे ख्याति मिली। क़िले का महत्व इसलिये भी था क्योंकि ये राजस्थान, मालवा और गुजरात के व्यापार मार्ग पर स्थित था।
पूर्वी उदयपुर से 175 कि.मी. दूर चित्तौड़गढ़ क़िला एक पहाड़ी पर स्थित है। 700 एकड़ ज़मीन पर फ़ैला ये क़िला 590 फ़ुट ऊंचा है। एक कि.मी. से ज़्यादा टेढ़े-मेढ़े रास्ते से ग़ुज़र कर यहां पहुंचा जा सकता है। क़िले के सात अभेद्ध द्वार हैं और इसकी दीवारें बहुत मोटी हैं। सुरक्षा की दृष्टि से ये क़िला अजेय क़िला माना जाता था।
क़िले में सबसे सुंदर स्मारक है विजय स्तंभ जिसे चित्तौड़ के महान शासक राणा कुंभ ने सन 1448 में बनवाया था। राणा कुंभ ने गुजरात और मालवा के सुल्तानों की संयुक्त सेना पर विजय के प्रतीक के रुप में ये स्तंभ बनवाया था। विजय स्तंभ के पास राणा कुंभ का महल है। कहा जाता है कि इस महल में राणा कुंभ के पोते और उदयपुर के संस्थापक राणा उदय सिंह का जन्म हुआ था।
महल के पास ही राणा कुंभ की पौत्र वधु और महाराणा उदय सिंह की भाभी मीराबाई का मीरा महल है। आगे चलकर यही मीराबाई भारत में सबसे प्रसिद्ध कृष्ण-भक्त संत बनी। मीराबाई यहां से क़रीब 255 कि.मी. दूर मार्ता की रहने वाली थीं। उनके जीवन का एक हिस्सा चित्तौड़गढ़ में बीता था। बाद में वह मौजूदा उत्तर प्रदेश में वृंदावन चली गईं। क़िले के अंदर एक मंदिर है जिसे मीराबाई मंदिर कहा जाता है। स्थानीय लोगों का विश्वास है कि यहां मीराबाई भगवान कृष्ण की पूजा करती थीं।
चित्तौड़गढ़ की सबसे बड़ी ताक़त एक बड़ा जलाशय था जिसे गौमुख कुंड कहा जाता है और जो आज भी मौजूद है। दुश्मनों से घिरने के बावजूद इस जलाशय की वजह से क़िले को कभी पानी की क़िल्लत नहीं झेलनी पड़ी थी।
19वीं शताब्दी का रानी पद्मिनी महल चित्तौड़गढ़ के सबसे प्रसिद्ध स्मारकों में से एक है। कहा जाता है कि ये महल एक पुराने भवन को तोड़कर बनवाया गया था। इसका संबंध रानी पद्मिनी की कहानी से है जिसका ज़िक्र मोहम्मद जायसी के, सन 1540 में लिखे महा-काव्य पद्मावत में मिलता है। रानी पद्मावती चित्तौड़ के राणा रतन सिंह की पत्नी थीं और उनकी ख़ूबसूरती पर रीझकर अलाउद्दीन ख़िलजी ने सन 1303 में चित्तौड़ पर हमला किया था।
इनके अलावा चित्तौड़गढ़ में अन्य प्रसिद्ध स्मारक भी हैं जैसे 7वीं शताब्दी का सूर्य मंदिर, 12वीं शताब्दी का कीर्ति स्तंभ और सन 1920 का फ़तह प्रकाश महल । जैन तीर्थंकर आदिनाथ को समर्पित कीर्ति स्तंभ एक जैन व्यापारी ने बनवाया था जबकि महाराजा फ़तह सिंह ने फ़तह महल बनवाया था जिसे अब संग्रहालय में तब्दील कर दिया गया है।
सन 1559 में महाराणा उदय सिंह ने उदयपुर शहर बनवाकर इसे अपनी राजधानी बना लिया और इसके साथ ही राजनीतिक रुप से चित्तौड़गढ़ का महत्व ख़त्म हो गया। सन 1947 में मेवाड़ साम्राज्य के भारत में विलय तक चित्तौड़गढ़ पर महाराणाओं का ही नियंत्रण में ही था। चित्तौड़गढ़ की कीर्ति और प्रतिष्ठा आज भी कथाओं और क़िलों की दीवारें तथा स्मारकों के ज़रिये बरक़रार है।
2.कुंभलगढ़ क़िला
विश्व में चीन की दीवार बहुत प्रसिद्ध है जिसे देखने हर रोज़ सैकड़ों लोग जाते हैं लेकिन बहुत कम लोगों को ये बात पता है कि भारत में भी इसी तरह की एक दीवार है। कुंभलगढ़ क़िले की दीवार जो गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकार्ड्स में, विश्व में क़िले की सबसे लंबी दीवार के रुप में दर्ज है।
कुंभलगढ़ क़िले की दीवार हमलावरों और दुश्मनों से रक्षा के लिये बनाई गई थी। इस क़िले की दीवार राजसमंद ज़िले में अरावली पर्वत श्रंखला से लगी हुई है और ये 36 कि.मी. लंबी है। ये पर्वत श्रंखला मेवाड़ साम्राज्य की सीमा की तरह काम करती थी और समारिक दृष्टि से इसका कुंभलगढ़ के लिये बहुत महत्व था।
कुंभलगढ़ क़िला के निर्माण के बारे में कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। माना जाता है कि मौर्य वंश के स्थानीय राजा संप्रति ने क़िले की शुरुआत की थी लेकिन तब ये बहुत छोटा और मिट्टी का क़िला था। क़िले का आज जो भव्य रुप हम देखते हैं वो मेवाड़ के राजा राणा कुंभ (1433-1468) ने बनवाया था। राणा कुंभ के नाम पर ही क़िले का नाम कुंभलगढ़ पड़ा। कहा जाता है कि राणा कुंभ बहुत वीर और विद्वान थे जिन्होंने अपने शासनकाल में 32 क़िले बनवाए थे। इस क़िले का नक़्शा सन 1450 में वास्तुकार मदन ने बनाया था जो अपने समय का प्रसिद्ध वास्तुकार था। कुंभलगढ़ एक और वजह से महत्वपूर्ण है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि यहां 9 मई सन 1540 में मेवाड़ के महान सम्राट महाराणा प्रताप का जन्म हुआ था।
क़िले के अंदर कई महल और हिंदु तथा जैन मंदिर हैं। क़िले का सबसे पुराना गणेश मंदिर माना जाता है। क़िले की पूर्वी दिशा में नीलकंठ महादेव मंदिर है जो सन 1458 में बना था। केंद्रीय देवस्थान तक पहुँचने के लिए एक आयताकार आहते और छत्री से गुज़रना होता है। ये छत्री 24 विशाल खम्भों पर टिकी है। क़िले में प्रमुख जैन मंदिर इस तरह हैं- पार्शवनाथ मंदिर (सन 1513), पूर्वी दिशा में जैन मंदिर, बावन मंदिर और गोलेरा जैन मंदिर।
कुंभलगढ़ आज एक प्रसिद्ध पर्यटक स्थल है जहां सैकड़ों लोग इसकी अद्भुत वास्तुकला को देखने आते हैं।
3. जैसलमेर क़िला
जैसलमेर का क़िला भारत में सबसे सुंदर और भव्य क़िलों मे से एक है। महारावल जैसल सिंह ने सन 1156 में ये क़िला बनवाया था और यहां आसपास के इलाक़ों को आबाद किया था। उन्हीं के नाम पर जैसलमेर का नाम पड़ा है। मध्य एशिया से गुजरात के बंदरगाह शहरों की तरफ़ जाने वाले व्यापारियों के लिये ये सदियों से व्यापार का केंद्र रहा था। आज यहां सैलानियों का जमावड़ा रहता है।
जैसलमेर का क़िला पूरी तरह पीले बालू-पत्थर से बना हुआ है। इसके रंग की वजह से इसे स्वर्ण क़िला भी कहा जाता था। ये क़िला 1500 फ़ुट (460 मीटर) लंबा है और इसकी ऊंचाई 750 फ़ुट (230 मीटर) है। ये क़िला आसपास के ग्रामीण इलाक़ो से 250 फ़ुट की ऊंचाई पर एक पहाड़ी पर स्थित है। क़िले का व्यास 4.6 मीटर है और तीन दीवारों के सुरक्षा घेरे वाले क़िले के मूल में पंद्रह फ़ीट या 4.5 मीटर ऊँची बाहरी दीवार का घेरा है । क़िले के ऊपरी बुर्ज भीतरी दीवारों की सुरक्षात्मक परिधि के रुप में काम करते हैं। ये भीतरी दीवार क़रीब चार मीटर चौड़ी है। क़िले में अब 99 बुर्ज हैं जिनमें से 92 बुर्ज 1633-47 के दौरान या तो नये बनवाए गए थे या फिर दोबारा बनवाए गए थे।
क़िले के चार क़िलेबंद द्वार हैं और हर द्वार पर एक समय एक तोप लगी रहती थी। जैसलमेर क़िले के अंदर 12वीं और 16वीं शताब्दी के दौरान बनवाए गए सात जैन मंदिर हैं जो पीले बालू-पत्थर के बने हैं। इससे पता चलता है कि उस समय यहां काफ़ी संख्या में जैन समुदाय के लोग रहते थे। यहां एक विशाल मंदिर है जो संभवनाथ को समर्पित है। इस मंदिर में 600 मूर्तियां और अन्य प्राचीन प्रतिमाएं हैं।
ये क़िला इस मायने में भी अनूठा है कि आज भी शहर की एक चौथाई आबादी इसी के अंदर रहती है।
4. आमेर का क़िला
आमेर क़िला जायपुर शहर के मुहाने पर स्थित है। यहां मीणा सरदर रहा करते थे लेकिन 11वीं शताब्दी में इस पर कछवाहा शासकों का कब्ज़ा हो गया जिन्होंने इसे अपनी राजधानी बना लिया। अकबर के प्रसिद्ध सेनापति राजा मान सिंह ने 16वीं शताब्दी में मौजूदा क़िला बनवाया था। बाद में उनके उत्तराधिकारियों ने इसका विस्तार किया।
आमेर क़िला हिंदु और मुग़ल वास्तुकला शैली का मिश्रण है। दीवान-ए-आम, दीवान-ए-ख़ास, शीश महल और राजाओं के महलों में वास्तुकला की इस मिली- जुली शैली को देखा जा सकता है। गणेश द्वार ऐतिहासिक आमेर क़िले के सात द्वारों में से एक है। गणेश द्वार के पास शीलादेवी मंदिर है। मंदिर में प्रवेश के लिये दो परतों वाला चांदी का दरवाज़ा है जिस पर मूंगे के एक ही पत्थर से गणेश की विशाल छवि बनी हुई है। देवी की मूर्ति, राजा मानसिंह सन 1604 में बंगाल के जेसोर से लाए थे।
गणेश द्वार की दूसरी तरफ़ कई महल, मुग़ल शैली का एक गार्डन, शीशे के काम वाला शीश महल और ज़नाना महल हैं। आमेर क़िले में ही जयगढ़ क़िला है जोमें शस्त्रागार और ख़ज़ाना के रूप में उपयोग किया जाता था।
सन 1727 में महाराज सवाई जयसिंह द्वतीय को लगा कि आमेर में भीड़ भाड़ बहुत हो गई है तो उन्होंने क़रीब के मैदानी क्षेत्र पर एक नया शहर जयपुर बनवाया। समय के साथ लोग जयपुर जाकर बस गए और आमेर शहर वीरान हो गया। लेकिन आज वक़्त एक बार बदल गया और यहां लाखों सैलानियों की वजह रौनक़ दोबारा लौट आई है।
5.रणथंभोर क़िला
घने जंगलों में स्थित रणथंभोर क़िला राजस्थान का एक बेहद लोकप्रिय पर्यटक स्थल है। जो लोग रणथंभोर नैशनल पार्क जाते हैं उन्हें ये क़िला भी ज़रुर देखना चाहिये| जयपुर से 149 कि.मी. दूर सवाईं माधोपुर ज़िले में स्थित रणथंभोर नेशनल पार्क भारत में वन्य जीवों के सबसे बड़े पार्कों में से एक है।
लेकिन जंगल के बीचों-बीच रणथंभोर क़िला भी है। रणथंभोर नैशनल वाइल्ड लाइफ़ पार्क का नाम इसी क़िले के नाम पर रखा गया है। इस क़िले से नैशनल पार्क साफ़ नज़र आता है। किसी समय यह पार्क, रणथंभोर के चौहान शासकों की राजधानी हुआ करता था। यहां पहले मीणा आदिवासी रहा करते थे। सन 1110 में राजा जयंत ने ये क़िला बनवाया था और तब इसका नाम रणस्तंभपुरा हुआ करता था। सन 1283 और सन 1301 में अंतिम चौहान शासक हम्मीर देव के शासनकाल में इस क़िले को प्रसिद्धी मिली थी। सन 1301 में अलाउद्दीन ख़िलजी की सेना ने राजा हम्मीर देव को युद्ध में हराकर रणथंभोर पर कब्ज़ा कर लिया था। इस युद्ध का उल्लेख हम्मीर महाकाव्य, हम्मीर रासो, हम्मीर हठ जैसी कई कविताओं में है। इन कविताओं में बताया गया है कि कैसे हम्मीर देव अंतिम सैनिक के मरने तक ख़िलजी की सेना से लड़ता रहे। युद्ध में हार के बाद रणथंभोर फिर कभी अपना गौरवपूर्ण अतीत नहीं पा सका।
सन 1947 तक इस पर मेवाड़, बूंदी और जयपुर के महाराजाओं का कब्ज़ा होता रहा। सन 1763 में जब महाराजा सवाई माधो सिंह ने सवाई माधोपुर शहर बनवाया तो लोग वहां आकर बस गए और रणथंभोर वीरान हो गया। ये जयपुर महाराजाओं की निजि संपत्ति बनकर रह गया था जो इसका प्रयोग शिकार के समय करते थे। सन 1947 में उन्होंने इसे भारत सरकार को सौंप दिया। क़िले के परिसर में जोगी महल, गणेश मंदिर, शिव मंदिर, रामलालजी मंदिर, सुमतिनाथ मंदिर और संभवनाथ मंदिर सहित कई स्मारक हैं। 700 साल के बाद भी क़िले की दीवारें पर राजा हम्मीर देव की वीरता की कहानियां ज़िन्दा हैं।
6.गगरोन क़िला
गगरोन क़िले को राजस्थान का छुपा हुआ ख़ज़ाना कहा जा सकता है। दक्षिण जयपुर से 347 कि.मी. दूर झालवाड़ ज़िले में स्थित ये क़िला राजस्थान के अन्य क़िलों की तरह उतना प्रसिद्ध नहीं है हालंकि यूनेस्को ने सन 2013 में आमेर, चित्तौड़गढ़ और रणथंबोर सिहत इसे भी विश्व धरोहर की अपनी सूची में शामिल कर लिया था।
गगरोन क़िला परमार राजवंश के राजा बीजल देव ने 12वीं शताब्दी में बनवाया था। ये क़िला आशु और काली सिंध नदी के समागम पर स्थित है। ये तीन तरफ़ से नदी और चौथी तरफ़ जंगल से घिरा हुआ है। यही वजह है कि सदियों तक इस क़िले को अजेय माना जाता था। खींची चौहान महलों और मंदिरों के अवशेष आज भी क़िले के अंदर देखे जा सकते हैं। गगरोन क़िला मालवा से लेकर अजमेर तक महत्वपूर्ण व्यापार मार्ग के प्रहरी के रुप में काम करता था और ये चौहान शासकों का गढ़ हुआ करता था।
गगरोन क़िले की वास्तुकला 12वीं शताब्दी के डोडा और खींची राजपूत के समय की वास्तुकला से मिलती जुलती है। गगरोन क़िले का गैरवमय समय सन 1423 में मालवा के सुल्तान होशंग शाह के कब्ज़े के बाद समाप्त हो गया था। होशंग शाह ने पानी की सप्लाई रोककर क़िले पर हमला किया और इस पर कब्ज़ा कर लिया था। इस तरह खींची चौहान शासन का अंत हो गया।
गगरोन को अपना पुराना वैभव दोबारा हासिल नहीं कर सका। बाद में गगरोन पर मग़लों, कोटा के महाराव और फिर झालावाड़ के राजाओं का कब्ज़ा हो गया। गगरोन क़िला 12वीं और 14वीं शताब्दी के बीच भक्ति आंदोलन का भी एक महत्वपूर्ण केंद्र था। नदी के एक तरफ़ जहां 12वीं शताब्दी के भक्ति संत पीपाजी का मंदिर है तो दूसरी तरफ़ उनके समकालीन सूफ़ी संत मिट्ठे शाह की दरगाह है।
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