भारत में लगभग सभी लोग मध्यप्रदेश के खजुराहो के मंदिरों के बारे में जानते हैं जो अपनी सुंदर मूर्तियों और अद्भुत वास्तुकला के लिये प्रसिद्ध हैं। लेकिन क्या आपको पता है कि छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 134 कि.मी. दूर कबीरधाम ज़िले के एक छोटे से गांव में एक मंदिर है जिसे “छत्तीसगढ़ का खजुराहो” माना जाता है ? अलंकृत मूर्तियों वाला भोरमदेव मंदिर 11वीं शताब्दी का माना जाता है जो खजुराहो और उड़ीसा के कोर्णाक सूर्य मंदिर से काफ़ी मिलता जुलता है। भोरमदेव मंदिर परिसर में ईंटों से बने मंदिरों के ख़ंडहरों के अलावा और भी प्राचीन मंदिर हैं। ये मंदिर और इसके आसपास का ऐतिहासिक परिदृश्य वाक़ई देखने योग्य हैं।
भोरमदेव मंदिर मध्य भारत में सतपुड़ा घाटी के मैकल पर्वत श्रंखला के जंगलों से घिरा हुआ है। ये कबीरधाम ज़िले में कवर्धा नामक शहर से 18 कि.मी. के फ़ासले पर स्थित है। ये मंदिर पहले भगवान विष्णु को समर्पित था। कई पुराने दस्तावेज़ों और साहित्यिक स्रोतों में इसका विष्णु मंदिर नाम से ही उल्लेख मिलता है। लेकिन अब इसे शिव मंदिर के रुप में पूजा जाता है। मंदिर के गर्भगृह में एक शिवलिंग है और माना जाता है कि विष्णु की मूर्ति को हटाकर यहां शिवलिंग की स्थापना की गई थी। मंदिर में विष्णु की एक मूर्ति है जो मंदिर के तीन प्रवेश द्वारों के मध्य स्थित है।
दिलचस्प बात ये है कि मंदिर में योगी की मुद्रा वाली मूर्ति के आसन पर संस्कृत भाषा में चार अभिलेख अंकित हैं जिनसे हमें मंदिर की उत्पत्ति के बारे में जानकारी मिलती है। इन अभिलेखों पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के संस्थापक एलेक्ज़ेंडर कनिंघम का सबसे पहले ध्यान गया था। उन्होंने 1881-82 की अपनी रिपोर्ट में इनका उल्लेख किया था।
अभिलेखों के अनुसार माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण गोपाल देव राजा के संरक्षण में, 11वीं शताब्दी के दौरान हुआ था। अभिलेख में संवत 840 अंकित है जिसका मतलब हुआ कि मंदिर का निर्माण शायद सन 1089 के आसपास हुआ होगा। कुछ विद्वान गोपाल देव को नाग अथवा नागवंशी राजा मानते हैं जबकि कुछ अन्य विद्वानों का मानना है कि ये गोपाल देव रतनपुर (अब छत्तीसगढ़ का बिलासपुर ज़िला) के राजाओं के साम्राज्य में एक स्थानीय प्रधान था।
हमें ये समझना ज़रुरी है कि नागवंशी राजा 9वीं और 14वीं शताब्दी के दौरान छत्तीसगढ़ के दुर्ग ज़िले से शासन करते थे। ये संभवत: कोई आदिवासी राजवंश था जो ख़ुद को फनी या नागवंश का वंशज होने का दावा करता था। इन अभिलेखों के अलावा कवर्धा के पास एक अन्य छोटे से गांव साहसपुर से भी अभिलेख मिले हैं। इनके अनुसार कवर्धा और इसके आसपास के क्षेत्रों पर नागवंश के राजाओं का शासन था जिन्होंने 9वीं शताब्दी से लेकर 500 सालों तक राज किया। इनके पहले छत्तीसगढ़ के कलचुरि और हैहय राजवंश का शासन था।
नागवंश के लोग रतनपुर के कलचुरि के दास थे। रतनपुर के कलचुरि या हैहया राजवंश (छठी-7वीं शताब्दी) की शाखा थे और उन्होंने 11वीं और 13वीं शताब्दी के दौरान शासन किया था। इस तरह हम गोपाल देव की शिनाख़्त कर सकते हैं। नागवंश तंत्र विद्या में संलग्न रहते थे और यही वजह है कि इन मंदिरों की वास्तुकला में इसकी झलक मिलती है।
अभिलेखों में कुछ और नामों का भी उल्लेख है जिनमें एक नाम लक्ष्मण देव है। लक्ष्मण देव की शिनाख़्त को लेकर कुछ विद्वानों का मानना है कि ये राजा का धार्मिक सलाहकार रहा होगा जबकि कुछ का कहना है कि ये गोपाल देव के शासन में कोई प्रधान हो सकता है जिसने दरअसल ये मंदिर बनाया था। अभिलेखों में जिन अन्य नामों का उल्लेख है वे इसके (लक्ष्मण देव) के परिवार के सदस्य हैं।
कहा जाता है कि मंदिर को उसका नाम 13वीं और 14वीं शताब्दी के दौरान गोंड जनजाति से मिला। गोंड विश्व की सबसे पुरानी आदिम जानजाति है जो मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, पूर्वी महाराष्ट्र, तेलंगाना, उत्तरी आंध्र प्रदेश और पश्चिमी उड़ीसा में बसती है। गोंड जनजाति ने 13वीं से लेकर 18वीं शताब्दी तक क़रीब पांच सौ साल तक मध्य भारत के पहाड़ी क्षेत्रों पर राज किया था। माना जाता है कि भगवान शिव के रुप भोरम देव को गोंड अपना कुल देवता मानते थे और इस मंदिर में उनकी पूजा किया करते थे।
मंदिर की अद्भुत वास्तुकला नागर शैली की है। ये मंदिर पांच फुट ऊंचे चबूतरे पर बना हुआ है जिस पर कई हिंदू देवी-दोवताओं की मूर्तिया बनी हुई हैं। मंदिर का प्लान भारत में मध्यकाल के ज़्यादातर मंदिरों की तरह ही है। मंदिर में एक चौकोर मंडप है जहां, गलियारे से होते हुए गर्भगृह पहुंचा जाता है। मंदिर का मंडप 16 स्तंभों पर खड़ा है। प्रत्येक स्तंभ पर सुंदर नक़्क़ाशी है। मंदिर का एक ऊंचा शिखर है जिसकी पूर्व दिशा में एक अलंकृत प्रवेश द्वार है।
एलेक्ज़ेंडर कनिंघम ने कहा था कि उन्होंने जितने सुंदर अलंकृत मंदिर देखे हैं उनमें से एक मंदिर ये भी है। मंदिर की, बाहरी पत्थरों की दीवारों पर उत्तेजक मूर्तियां बनी हुई हैं और इसीलिये इसे छत्तीसगढ़ का खजुराहो कहा जाता है। इसकी मूर्तिकला खजुराहो और कोर्णाक मंदिर की मूर्तिकला से ख़ूब मिलती जुलती है। यहां कई हिंदू देवी-देवताओं, नृतकों और संगीतकारों की मूर्तियां हैं। मंदिर की चौखट पर भी बहुत सुंदर सजावट है।
भोरमदेव मंदिर के पास ही ईंटों के ईशतलिक़ या ईशतालिक मंदिर के अवशेष हैं। यहां मंदिर के कुछ स्तंभ, बिना मंडप वाला पत्थर के गर्भगृह शिखर के अवशेष हैं। स्तंभों पर मूर्तियां बनी हुई हैं। मंदिर में बाहर की तरफ़ खुलती एक दीवार भी है जिसे बालकनी भी कहा जाता है। इसके अलावा मंदिर में उमा-माहेश्वर (शिव-पार्वती) और भगवानों की पूजा करते राजा-रानी की भी मूर्ति हैं। यहां एक लिंग भी है जिससे लगता है कि ये मंदिर शिव को समर्पित था।
भोरमदेव मंदिर से एक कि.मी. दूर एक अनोखा मंदिर है जिसे मडवा/मंडवा महल अथवा दुल्हादेव मंदिर कहा जाता है। मंदिर की वास्तुकला से लगता है मानो ये कोई खुला बारात घर हो जिसे स्थानीय बोली में मंडवा कहते हैं। कहा जाता है कि ये मंदिर नागवंशी राजा रामचंद्र देव और हैहया राजकुमारी के विवाह की याद में बनवाया गया था। इनका विवाह सन 1349 में हुआ था और मंदिर का निर्माण भी उसी वर्ष हुआ था। मंदिर के एक लंबे शिलालेख पर सन 1349 में राजा चंद्रदेव द्वारा शिव मंदिर के निर्माण का उल्लेख है। शिलालेख में नागवंश शासकों की उत्पत्ति की कथाओं और 22 शासकों की पीढ़ियों का भी उल्लेख है। मंदिर का शिखर भी अलंकृत है और शिखर पर उत्तेजक मूर्तियों की दो पंक्तियां हैं।
इस मंदिर के पास एक और मंदिर है जिसे चरकी महल कहते हैं। कहा जाता है कि नागवंशी शासनकाल में ये मंदिर चरवाहों के लिये बनवाया गया था। मंदिर का भीतरी हिस्सा पत्थर और बाहरी हिस्सा ईंटों का बना हुआ है।
बाक़ी मंदिरों की तुलना में ये मंदिर काफ़ी छोटा है। इस मंदिर में शिवलिंग की पूजा की जाती है ।
भोरमदेव मंदिर परिसर में एक छोटा सा संग्रहालय है जिसमें इस क्षेत्र में खुदाई में मिली कलाकृतियां, मूर्तियों तथा स्तंभों के अवशेष रखे हुए हैं। हर साल फ़रवरी के महीने में मंदिर परिसर में उत्सव का आयोजन होता है जिसमें बड़ी संख्या में श्रद्धालु हिस्सा लेते हैं। आप जब भी छत्तीसगढ़ जाएं, इन मंदिरों को देखना न भूलें क्योंकि ये अपनी सुंदरता और अपने अतीत की कहानियों से आपको विस्मित कर देंगे।
फोटो सौजन्य: अनज़ार नबी
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