भारतीय जीवन, धर्म, साहित्य और संस्कृति…हर जगह छाया हूआ है मोर
बहुत बचपन से एक पहेली सुनते चले आ रहे हैं, ‘ एक जानवर ऐसा, जिसकी दुम पर पैसा ? ‘
और उसका जवाब होता था, ‘मोर’
केरल के एक बहुत मशहूर कवि हुये हैं…केरल वर्मा वालिया कोइल थम्पूरन। उनकी एक बहुत मशहूर कविता है ‘मयूरा संदेसम’ । इस कविता में एक ऐसे प्रेमी ने मोर को संदेश दिया है जो अपनी प्रेमिका से बिछड़ गया है।
मशहूर शायर निदा फ़ाज़ली ने अपने काव्य-संकलन का नाम ही ‘ मोर नाच ‘ रखा था।
मिर्ज़ा ग़ालिब ने जब मोर को देखा तो कहा :
पर-ए-ताऊस तमाशा नज़र आया है मुझे
एक दिल था के बासद रंग दिखाया है मुझे
( ताऊस यानी मोर। मोर के पर क्या हैं एक पूरा तमाशा हैं। मोर को देखकर लगता है जैसे एक दिल है जो तमाम रंगों से भरा हुआ है।)
मोर है ही इतने महत्वपूर्ण कि भारतीय संस्कृति के प्रतिरुप के लिए अगर किसी पक्षी को चुनना हो तो वो मोर ही हो सकता है जो भारत का राष्ट्रीय पक्षी भी है। शताब्दियों से भारतीय इतिहास और परंपरा में मोर की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसका न सिर्फ़ किताबों में सम्मानपूर्वक उल्लेख किया गया है बल्कि सदियों से कलाकारों ने अपनी कला में इसका मनोरम चित्रण किया है। हम यहां इसी ख़ूबसूरत पक्षी की कहानी सुनाने जा रहे हैं ।
मोर विशुद्ध रुप से भारतीय पक्षी है यानी इसका जन्म ही भारत में हुआ है और इसे लेकर विद्वानों में कोई दो राय भी नहीं है। ऐसे कई संदर्भ हैं जिससे पता चलता है कि भारत ने ही पश्चिमी देशों का परिचय मोर से करवाया था। बाइबल के अनुसार इस्राइल के राजा सालोमन का शासनकाल 950 ई.पू. में था । उन्हें, केरल के प्राचीन बंदरगाह मुज़िरिस से मोर भेजे गये थे।
माना जाता है कि हीब्रू भाषा में मोर के लिए शब्द ‘फुकी’ भी तमिल शब्द ‘तोगाई’ से आया है।
यूनान के सम्राट सिकंदर ने जब भारत पर 326 ई.पू.में हमला किया तो उसने रावी नदी के तट पर मोर को देखा था। वह उनकी सुंदरता से इतना प्रभावित हुआ कि उसने सेना को आदेश दिया कि अगर किसी ने इन पक्षियों को नुक़सान पहुंचाया तो उसे सज़ा मिलेगी। सिकंदर जब वापस मेसेडोनिया लौट रहा था, तब वह अपने साथ 200 मोर ले गया था और वह मोर लोगों के लिए ऐसा अजूबा बन गए थे कि वो पैसे देकर मोर देखने आते थे।
भारत में कई राजवंशों के लिए मोर एक पवित्र पक्षी रहा है।
चंद्रगुप्त मौर्य द्वारा 322 ई.पू में मौर्य वंश का नाम ही मोर के नाम पर रखा गया था।
उनके पोते अशोक की लाट पर भी धर्मिक उपदेशों में मोर का विशेष उल्लेख है। कुषाण के सम्राट कनिष्क की राज मोहर पर भी मोर अंकित था। भारतीय इतिहास में सुनहरा युग कहे जाने वाले गुप्तकाल के शासकों ने सोने और चांदी के कई सिक्के जारी किए थे जिन पर मोर का चित्र अंकित था।
चेन्नई के 2000 साल पुराने शहर मयलापुर का नाम मयीलारपरीकुमूर से लिया गया है जिसका मतलब होता है ‘मोर की गूंज की भूमि।
’ पल्लव शासक नंदीवर्मन तृतीय ( 850 ई.) को मयलई अथवा मोर के शहर के रक्षक के रुप में जाना जाता था। मध्ययुग में तुग़लकों के शासनकाल में मोर पंख राज्य का चिन्ह हुआ करता था और उनके सैनिक मोर पंख को अपनी टोपी पर लगाते थे।
भारतीय पौराणिक कथाएं मोर से जुड़ी कई कथाओं से भरी पड़ी हैं। इनमें सबसे दिलचस्प और लोकप्रिय कथा वह है जिसमें बताया गया है कि मोर को इतने सुंदर पंख कैसे मिले।
कहा जाता है कि जब भगवान इंद्र, रावण से युद्ध कर रहे थे, तब मोर ने अपनी दुम उठाकर एक सुरक्षा कवच बना दिया था ताकि भग्वान इंद्र उनके पीछे छुप सकें। इनाम में इंद्र ने मोर को नीले-हरे रंग के पंख और सुंदर सी दुम दी।
हिंदू दर्शन के समुद्र-मंथन विवरण में भी मोर का उल्लेख मिलता है। समुद्र-मंथन से अमृत निकला था। कहा जाता है कि मंथन से निकले विष को मोर ने पी लिया था और इस तरह उसने विष के प्रभावों को ख़त्म क दिया था। कार्तिकेय का वाहन भी मोर था जिसका नाम परवानी था। इसके अलावा बिना मोर पंख के भगवान कृष्ण की कल्पना भी असंभव है।
एक कहानी और है । उसके अनुसार एक बार ब्रज में गोवर्धन पर्वत पर भगवान कृष्ण बांसुरी बजा रहे थे। बांसुरी की तान इतनी लुभावनी थी कि मोर नाचने लगे थे। नृत्य के बाद मोर ने ज़मीन पर अपने पंख फैला दिए और प्रमुख मोर ने कृष्ण को उपहार में अपने पंख दे दिये और कृष्ण ने उपहार स्वीकार कर उन्हें अपने सिर पर लगा लिये थे।
रामायण में वाल्मिकी लिखते हैं कि 14 साल के वनवास के दौरान राम और सीता मोर का नृत्य देखा करते थे। कई वर्षों बाद जब राम ने सीता को त्यागा तब सभी वृक्ष, फूल और हिरण रोने लगे थे और मोर ने नृत्य करना बंद कर दिया था। कालीदास (5वीं शताब्दी ईसा पूर्व)ने अपने ऋतुसंहार में मोर का उल्लेख किया है कि कैसे वर्षा ऋतु में मोर प्रफुल्लित होकर नृत्य करते थे।
जातक-कथा महामोर में बताया गया है कि बुद्ध पिछले जन्म में एक सुनहरे मोर हुआ करते थे। बौद्ध पौराणिक कथाओं के अनुसार मोर करुणा और सजगता का प्रतीक होता है। जैन भिक्षु मोर के पंख के बने चंवर लेकर चलते थे क्योंकि उनका विश्वास था कि इससे बुराईयां दूर रहती हैं।
भारत में कई आदिवासी समुदायों के लिए मोर का बहुत महत्व है।
जहां तक कला और वास्तुकला की बात है, मोर का उल्लेख हड़प्पा-युग (2500 – 1500 ई,पू.) में भी मिलता है। उस समय मिट्टी के बड़े-बड़े घड़ों पर मोर की आकृति एक आम बात होती थी। सांची और भारहट के बौद्ध स्तूपों के मुख्य द्वार पर भी मोर के अंकित चित्र देखे जा सकते हैं जो आगंतुकों का स्वागत करते नज़र आते हैं।
मुग़ल बादशाह शाहजहां (1592-1666) ने हीरे मोतियों से जड़ा मोर सिंहासन ( तख़्त-ए-ताऊस) बनवाया था, जो मध्ययुगीन विश्व के लिए रश्क का विषय था। सिंहासन के ऊपर दो तरफ़, दो मोरों की आकृति बनी थीं जो एक दूसरे की तरफ़ देख रहे थे। इन्हें देखकर लगता था मानों ये जन्नत के दरवाज़े की रखवाली कर रहे हों। फ़ारस (ईरान) की आस्था के मुताबिक़ एक दूसरे की ओर उन्मुख मोर प्रकृति की प्रवृत्ती के प्रतीक होते हैं।
19वीं शताब्दी में शाही दरबारों में मयूरी-वीणा एक लोकप्रिय वाद्ययंत्र होता था। बंगाल की कंथा और गुजरात की कच्छी कला में, वस्त्रों पर मोर के डिज़ायन देखे जा सकते हैं। इन सबके अलावा मोर हमारे जीवन में कितना रचाबसा हुआ है, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उत्तर, पश्चिम और मध्य भारत में लगभग हर ट्रक या लॉरी के पीछे मोर का चित्र बना हुआ देखा जा सकता है।
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