पंजाब का बठिंडा आज एक ऐसा आधुनिक शहर है जो बेहद संपन्न है । लेकिन क्या आपको पता है कि ये उन प्राचीन शहरों में से एक है जिसका इतिहास बहुत दिलचस्प है ? इसके व्यस्त धोबी बाज़ार के बीचों बीच है क़िला मुबारक जो सोलह सौ साल पुराना है । ये वही क़िला है जहां सन १२४० में तुर्की दरबारियों से हारने और दिल्ली सल्तनत गंवाने के बाद रज़िया सुल्तान को क़ैद में रखा गया था।
क़िले का ज़्यादातर इतिहास हालंकि गुमनामी के अंधेरे में डूबा हुआ है लेकिन प्राप्त जानकारी के अनुसार तीसरी सदी में राजपूत वंश, जिसे भाटी कहा जाता है, यहां आकर बसा था। उनके पहले ये इलाक़ा जंगल हुआ करता था ।
शहर की स्थापना राव भट्टी ने की थी जिन्होंने यहां से सौ कि.मी. दूर पड़ोसी राज्य राजस्थान में भाटनर शहर भी बनवाया था।
माना जाता है कि इसी समय बठिंडा क़िले की नींव रखी गई थी । इस दौरान बठिंडा पर क़ब्ज़े के लिए भाटी और एक अन्य राजपूत वंश बरार के बीच लगातार लड़ाईयां होती रहीं और आख़िरकार बरार ने बाज़ी मार ली । चूंकि बठिंडा लाहौर और दिल्ली के रास्ते में पड़ता था, इसलिए समय के साथ इसका सामरिक और व्यावसायिक महत्व बढ़ गया था।
इसके बाद बठिंडा शहर ११ वीं सदी में तब चर्चा में आया जब मेहमूद ग़ज़नी ने तब के हिंदू शाही शासकों पर हमला किया । ग़ज़नी को १000 ई. और १०२६ ई. के बीच भारत पर १७ बार हमले करने के लिए जाना जाता है। उसे सोमनाथ का मंदिर तोड़ने के लिए भी जाना जाता है । ग़ज़नी ने उत्तर भारत पर चढ़ाई करते हुए १००४ ई. में बठिंडा के क़िले पर भी कब्ज़ा कर लिया था ।
बाद में ११६४ ई. के आसपास इस क्षेत्र पर राजपूत चौहानों का राज हो गया । राजपूत चौहान शासकों में सबसे महान पृथ्वीराज चौहान को माना जाता है । पृथ्वीराज चौहान ने क़िले में काफ़ी बदलाव किए और इसे एक महत्वपूर्ण सैनिक छावनी में तब्दील कर दिया । बठिंडा पर चौहानों का शासन बहुत समय तक नहीं रह सका क्योंकि इस दौरान उन्हें मोहम्मद ग़ोरी के लगातार हमलों का सामना करना पड़ रहा था। मोहम्मद ग़ोरी, ग़ोरी राजवंश का था जिसने अफ़ग़ानिस्तान में ग़ज़नवियों को हराया था । बहरहाल, पृथ्वीराज चौहान मोहम्मद ग़ोरी से जंग लड़ता लड़ता आख़िरकार सन ११९२ में दूसरे तराइन युद्ध में हार गया । इस तरह बठिंडा दिल्ली सल्तनत के अधीन हो गया । मोहम्मद ग़ोरी का उत्तराधिकारी और ग़ुलाम क़ुतुब उद्दीन ऐबक दिल्ली का पहला सुल्तान बन गया।
अपनी सामरिक स्थिति की वजह से बठिंडा दिल्ली सल्तनत के लिए महत्वपूर्ण था । इसने दिल्ली की पहली महिला शासक रज़िया सुल्तान के समय महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। खुली बग़ावत और तु्र्की दरबारियों से कलह की वजह से रज़िया सुल्तान दिल्ली की गद्दी पर सिर्फ़ बमुश्किल चार साल तक ही बैठ पाईं थी। रज़िया के सुल्तान बनने के बाद से ही उन्हें हटाने की साज़िशें शुरु हो गईं थीं । साज़िश के तहत बठिंडा के गवर्नर मलिक अतूनिया ने बग़ावत कर दी । अप्रेल सन १२४0 में बग़ावत को कुचलने के लिए रज़िया सुल्तान जैसे ही बठिंडा पहुंची, उन्हें चालाकी से पकड़कर क़िले में क़ैद कर लिया गया और दिल्ली की सल्तनत भी उनसे छीन ली गई । लेकिन रज़िया ने हार नहीं मानी । अगस्त सन १२४0 में रज़िया और अल्तूीनिया ने एक राजनीतिक गंबंधन किया और शादी कर ली । इसके बाद उन्होंने रज़िया के भाई बहरम शाह, जो दिल्ली की गद्दी पर क़ाबिज़ हो चुका था, के ख़िलाफ़ जंग के लिए दिल्ली कूच किया । लेकिन वे बहरम शाह की फ़ौज के सामने टिक नहीं सके और उन्हें पीछे हटना पड़ा। जब वे वापस बठिंडा लौट रहे थे तभी हरियाणा में कैथल में दोनों की स्थानीय क़बीलों के लोगों ने उनकी हत्या कर दी।
इस घटना के बाद काफ़ी समय तक बठिंडा का क़िला चर्चा में नहीं रहा । इसकी वजह ये है कि घग्गर और अन्य नदियों के सूखने के कारण क़िला शायद जर्जर हो गया होगा । इन नदियों से ही उस क्षेत्र की सिंचाई होती थी । सन १७५४ में क़िले पर आला सिंह ने कब्ज़ा कर लिया और इसी के साथ पटियाला रियासत क़ायम हो गई । स्थानीय किवदंती के अनुसार दसवें सिख गुरु, गुरु गोविंद सिंह मुक्तसर के युद्ध के बाद सन १७०७ में यहां कुछ समय के लिए रुके थे । सिख सेनाओं ने खिदड़ना में मुग़लों के ख़िलाफ़ १७०७ में मुक्तसर में जंग लड़ी थी । गुरु गोविंद सिंह की याद में महाराजा के वंशजों ने क़िले के अंदर एक गुरुद्वारा बनवाया और इसीलिए क़िले को गोविंदगढ़ भी कहा जाता है।
एक समय बठिंडा का क़िला १४ एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ था और इसमें ३६ बुर्ज थे । ये क़िला १६०० सालों तक पूरी शान-शोकत से खड़ा रहा लेकिन दुर्भाग्यवश आज उसका सबसे बड़ी दुश्मन है उसकी….. अंदेखी । यह क़िला ज बेहद जर्जर हालत में है । उपेक्षा के मारे इस ऐतिहासिक क़िले को अब मरम्मत और देखरेख की सख़्त ज़रुरत है ।
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