बहुत सी कहावतें, मुहावरे, लोक-गीत ऐसे हैं जो सदियों से गाये और सुने जा रहे हैं और पता नहीं आगे और कितने सालों या सदियों तक ये सिलसिला जारी रहेगा। ये भी अजीब बात है कि कभी किसी ने इनके मायनी, सच्चाई और इतिहास को जानने की ज़रूरत महसूस नहीं की।
यही वजह है कि लोक-गीत और कहावतें आज भी लोगों के ज़हन और ज़ुबान पर तो हैं लेकिन वे न तो इनकी सच्चाई से ज़्याद वाक़िफ़ हैं और न ही इनका इतिहास जानते हैं।
देश-भक्ति और इंक़लाब के जज़्बे का अहसास दिलता ‘जुगनी’ लोक-गीत, जो एक सदी से ज़्यादा का सफ़र पूरा कर चुका है, भी इसी तरह की ट्रेजेडी का मारा लगता है। भारत-पाकिस्तान के दर्जनों नामवर लोक-गायक जैसे गुरदास मान, आसा सिंह मस्ताना, कुलदीप मानक, हरभजन मान, गुरमीत बावा, रब्बी शेरगिल, सुरजीत बिंदरखीया, आलम लौहार, आरिफ़ लौहार, हाजी चिराग़दीन, हशमत शाह, बुड्डा शेख़, मंज़ूर जल्ला, अहमद दीन और आशिक जट्ट
आदि ने इसी ललोक-गीत की वजह से बेइंतहा शोहरत हासिल की है लेकिन वे भी इसकी असलियत से एकदम बेख़बर रहे।
इतना समय बीत जाने के बावजूद भले ही लोक-गीत के रुप में ‘जुगनी’ की लोक-प्रियता पर कोई आंच न आई हो लेकिन वक़्त की तेज़ रफ़्तार ने इसके मायने, बोल और भाव ज़रूर बदल दिए हैं। आज कहीं ‘ जुगनी ‘ को ख़ुदा की बंदगी के साथ जोड़ा जा रहा है तो कोई इसे इश्क की मारी जोगन की कसक बता रहा है। किसी के लिए ‘जुगनी’ इंक़लाब की आवाज़ है तो कोई इसे औरतों के गले में पहने जाने वाला ज़ैवर बता रहा है।
दरअसल, 1947 के बँटवारे के साथ ही ‘जुगनी’ भी भारत और पाकिस्तान के बीच दो पंजाबों में बंट गया । हालांकि ‘जुगनी’ कब और कैसे पूर्वी और पश्चिमी पंजाब में बंटा, इस पर कभी चर्चा नहीं हुई। लेकिन आज तक यह सच सार्वजनिक तौर पर दोनों ओर के पंजाब में कभी ज़ाहिर नहीं किया गया। सच तो ये है कि देश के बँटवारे के साथ ही 72 वर्ष पहले ‘जुगनी’ का भी बँटवारा हो गया था।
अगर पाकिस्तानी लोक-गायकों की बात करें तो मुहम्मद शरीफ़ शाद ने ‘पोठोहारी उर्दू कोष’ में ‘जुगनी’ को एक प्रसिद्ध लोक-गीत बताया है जबकि पाकिस्तानी पंजाबी-अंग्रेज़ी कोष में इसका ज़िक्र औरतों के गले में पहने जाने वाले गहने के रुप में किया गया है। जोन टी. प्लेट्स ‘जुगनी’ का अर्थ उड़ती हुई आग यानी जुगनू तथा औरतों द्वारा गले में पहना जाने वाला ज़वैर बताते हैं। पंजाबी-उर्दू कोष में तनवीर बुख़ारी लिखते हैं कि ‘जुगनी’ न तो गले में पहनने वाली कोई चीज़ है और न ही जुगनू से का इसका कोई रिश्ता है, बल्कि यह किसी प्रेमिका की अपने प्रेमी के लिए उठी इश्क की हूक (आह) है। पंजाबी लेखक जमील पॉल के अनुसार ‘जुगनी’ एक पंजाबी प्रेमिका की अपने प्रेमी के वियोग को बयां करने वाली दुखद कहानी है। कहानी में उसका प्रेमी उसे छोड़कर चला जाता है। उसे ढूंढने के लिए वह जोगन बनकर गांव-गांव भटकती है लेकिन उसका प्रेमी उसे नहीं मिलता। जमील पॉल कहते हैं कि उस जोगन युवती को ही ‘जुगनी’ का नाम दिया गया है और साथ ही वह ये भी दावा करते हैं कि ‘जुगनी’ कश्मीर की पहाड़ियों से चोलिस्तान के मध्य किसी क्षेत्र में वजूद में आई होगी।
कुछ पाकिस्तानी लोक–गायकों ने ‘जुगनी’ में तुक्क–बंदी के लिए इस्तेमाल किए गए ‘साईंया’ शब्द को आधार बनाकर ‘जुगनी’ को अल्हा की बंदगी करने वाला गीत बना दिया है। इन लोक–गायकों की मानें तो ‘जुगनी’ हंब, नाट तथा मुँकाबत के जोड़ से बनी है।
इस में हंब का इस्तेमाल अल्हा की कविता के रूप में प्रशंसा, नाट द्वारा हज़रत मोहम्मद की कविता के रूप में प्रशंसा तथा मुँकाबत में हज़रत के परिवार तथा विशेष तौर पर हज़रत अली की कविता के रूप में प्रशंसा की गई है।
कुछ पाकिस्तानी लोक–गायकों ने ‘जुगनी’ को सन् 1857 की क्रांति लहर के साथ जोड़ा है। वे इसे लाहौर और स्यालकोट छावनियों से विद्रोह करके भागे भारतीय सैनिकों की दरिया रावी के किनारे ब्रिटिश द्वारा की गई निर्मम हत्या की दास्तान से जोड़ रहे हैं। उनका मानना है कि ‘जुगनी’ जस्सर या इसके आस–पास के किसी क्षेत्र में अस्तित्व में आई और वे ‘जुगनी’ को इस प्रकार बयान करते हैं :
मेरी जुगनी दा डग्गा इक
एस् ने फड़ लई हथ् विच इट्
मारे वैरियां से सिर विच
ओ भाई मेरिया जुगनी ओ।…….
पोठोहारी में ‘मेरी’ की जगह ‘मेहदी’ शब्द बोलने में आता है। इस लिए पोठोहारी में जुगनी इस प्रकार गाई जा रही है :
मेहदी जुगनी जांदी डंडे-डंडे
सिर भोवें कलेजा कंबे-कबे
कुफर रिज़क रोटी मंगे-मंगे
चन्न मारदियां जुगनी लीरां नी
असां मदद पुँजा पीरां नी …..
मंजूर जल्ला अपनी लिखी ‘जुगनी’ में हज़रत अली की प्रशंसा करते हुए लिखते हैं :
मेरी जुगनी दी फरियाद
करदी पाकि नबी नू याद
शाला नगर रहे आबाद
करसी रोज़-ए-महश्हर इमदाद ….
हाज़ी चिराग दीन झोंकेवाला ‘मोहम्मदी जुगनी’ में लिखते हैं :
क्या सोहनी जुगनी जग तों निराली
रब्ब ने बनाया तैनू उमतां दा वाली
तेरे दर तो न मुड़े कोई खाली
काली कंबली ते सूरत मूझममाली ……
हशमत शाह ‘नबी दी जुगनी’ में लिखते हैं :
जुगनी रूह कलबूत दी जोड़ी
पाई अल्फ ते मीम मरोड़ी
लिखी कलम न जावे मोड़ी
रख पैर अपने ते डोरी
जिस दम इश्क ने हस्ती जोड़ी ……
कुछ पाकिस्तानी लोक-गायकों ने ‘जुगनी’ को 1857 के ग़दर की लहर के साथ जोड़ा है। वे इसे लाहौर और स्यालकोट छावनियों से विद्रोह करके भागे भारतीय सैनिकों की रावी नदी के किनारे अंग्रेज़ों द्वारा की गई निर्मम हत्या की घटना से जोड़ते हैं। उनका मानना है कि ‘जुगनी’
जस्सर या इसके आस-पास के किसी क्षेत्र में अस्तित्व में आई और वे ‘जुगनी’ को इस तरह गाते हैं :
पोठोहारी में ‘मेरी’ की जगह ‘मेहदी’ शब्द बोलने में आता है। इस लिए पोठोहारी में जुगनी इस प्रकार गाई जा रही है :
मंजूर जल्ला अपनी लिखी ‘जुगनी’ में हज़रत अली की प्रशंसा करते हुए लिखते हैं :
यह तो पूरी तरह स्पष्ट है कि कुछ एक पाकिस्तानी लोक-गायकों के अलावा बाक़ी गायक जिस ‘जुगनी’ को मंचों और सांस्कृतिक समारोह में पेश कर वाह-वाही लूट रहे हैं, वह दरअसल असली जुगनी बिल्कुल नहीं है। इन सवालों के जवाब जानना बहुत ज़रूरी है कि असली जुगनी क्या है? वह वजूद में कब, कैसे और क्यों आई और उसका रचयिता कौन था?
वास्तव में ‘जुगनी’ का अर्थ ‘कन्ठभूखन(तावीज़)’ होता है।
जो रेशम की डोर से बंधा होता है और गले में पहना जाता है। एक ज़माने में इसे बहुत शुभ माना जाता था। लेकिन लोक गीत में जिसे ‘जुगनी’ नाम से संबोधित किया गया है, वह ‘जुबली’ का बिगड़ा हुआ रूप है।
बात उन दिनों की है, जब महारानी विक्टोरिया के शासन का पचासवां वर्ष शुरू होने की खुशी में
महारानी ने देश भर में ‘गोल्डन जुबली’ समारोह मनाने की घोषणा की थी। क्वीन विक्टोरिया का हुक्म था कि तमाम ज़िलों के डिप्टी कमिश्नर इस समारोहों को ‘जश्न’ के रूप में मनाएं। इनमें वे शहर और गाँव भी शामिल थे जहां हिन्दुस्तानियों ने 1857 ब्रिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ बग़ावत की थी। इन देश भक्तों को उनके इस दुस्साहस के लिए या तो सख़्त से सख़्त सज़ाएं दी गई थीं या फिर मौत के घाट उतारा दिया गया था। लेकिन शायद उससे महारानी के दिल को तसल्ली नहीं हुई थी। इसलिए उन्होंने ‘गोल्डन जुबली’ समारोह मनाने की घोषणा करके सभी देशवासियों के ज़ख़्मों पर नमक छिड़कने का काम किया था । महारानी के आदेश के बाद, हुकूमत ने, ख़ामोशी से उसके अत्याचार और तानाशाही को बर्दाश्त कर रहे भारतीयों के ज़ख़्मों को कुरेदने के लिए देश भर में ‘गोल्डन जुबली’ समारोह की तैयारी शुरू कर दी।
गोल्डन जुबली समारोह पूरे साल जश्न के रूप में मनाया जाना था।
ये समारोह ऐसे समय मनाया जा रहा था जब देश के कई राज्य अकाल की चपेट में थे और लोग दाने-दाने के लिए मोहताज थे। ऊपर से उनसे ‘गोल्डन जुबली’ समारोह के लिए टैक्स के रूप में धन एकत्रित किया जाने लगा था। इससे तंग आकर बड़ी तादाद में
देश-भक्त सिर पर कफ़न बांध कर ब्रिटिश हुकूमत का तख़्ता पलटने और ईंट का जवाब पत्थर से देने के लिए घरों से निकल पड़े थे।साथ ही कई लोगों नेदेश-प्रेम का जज़्बा जगाने के लिए जोश भरी कविताएं और गीत लिखने शुरू कर दिए। इन कविताओं और गीतों को मुशायरों और लोगों के जमघटों के बीच जोश-ओ-ख़रोश के साथ गाया जाता था।
जुगनी जा वड़ी लुधियाने
उहनू पै गए अन्ने काणे
मारन मूक्कीयां मंगण दाने
पीर मेरिया उए जुगनी कहिंदी आ
जिहड़ी नाम साईं दा लैंदी आ।
जुगनी जा वड़ी जालंधर ………
‘गोल्डन जुबली’ समारोह के दौरान 1897 में एक ऐसे ही छंद रुपी गीत ‘जुगनी’ का जन्म हुआ जिसने पिछली पूरी एक सदी में साझा पंजाब के कई गायकों को ख़ास पहचान दी । लेकिन बहुत कम लोग, इन गीत लिखनेवालों और उनके दिलों में बसे आज़ादी के जज़्बे के बारे में जानते होंगे। दरअसल जुगनी लिखने की शुरूआत ,मोहम्मद मांदा और बिशना जट्ट ने की थी । मोहम्मद मांदा के बारे में कहा जाता है कि वो अमृतसर ज़िले (अब ज़िला तरनतारन) के गांव हुसैनपुर, थाना वैरोवाल के रहने वाले थे जबकि बिशना जट्ट माझा कहां के रहनेवाले थे, इस के बारे में कोई पुख़्ता जानकारी नहीं है।
माना जाता है कि मांदा और बिशना, जिस, क्षेत्र में भी ‘गोल्डन जुबली’ समारोह चल रहे होते थे वहीं, इस तरह के गीत गाने के लिए पहुँच जाते थे और पढ़े लिखे न होने के कारण ‘जुबली’ को‘जुगनी’ बोलते हुए गीतों में उसी क्षेत्र का नाम जोड़ देते थे।
इस गीत के छंद आसान और आम बोलचाल की भाषा में होने के कारण लोगों को बहुत पसंद आते थे और जल्दी ही उनकी जुबान पर भी चढ़ जाते थे।
ऐसे ही एक दिन गुजरांवाला में ‘गोल्डन जुबली’ समारोह का जश्न चल रहा था। ये दोनों फ़नकार वहां भी पहुँच गए। ब्रिटिश हुकूमत के मुख़बिरों ने इसकी ख़बर गुजरांवाला के डिप्टी कमिश्नर मि. जे. आर. डरूमॉड को पहुंचा दी। ख़बर मिलते ही उसने फ़ौरन सिपाही भेज कर उन दोनों को गिरफ़्तार करवा लिया। थाने में उन्हें इतनी सख़्त यातनाएं दी गईं कि मांदा और बिशना ने वहीं दम तोड़ दिया। बताते हैं कि उन दोनों की लाशों को भी वहीं आस-पास किसी अज्ञात जगह पररफ़ा-दफ़ा कर दिया गया।
इस घटना को बीते एक सदी गुज़र चुकी है और देश को आज़ाद हुए भी 72 साल हो चुके हैं। इस दौरान सरहद के दोनों तरफ़ के लोक-गायकों के ‘जुगनी’ को पेश करने के लहजे, शैली और मूल रूप में फ़र्क़ ज़रूर आया है, लेकिन इस गीत की लोकप्रियता में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा है। सांस्कृतिक अखाड़ा चाहे पूर्वी पंजाब का हो या पश्चिमी पंजाब का जुगनी अपने वजूद का अहसास दिलाना कभी नहीं भूलता. पंजाब संस्कृति की शान बने ‘जुगनी’ के बिना हर महफ़िल सूनी और अधूरी लगती है।