फड, ये एक ऐसी भारतीय लोक-कला है जिसका इतिहास 700 साल से भी ज़्यादा पुराना है। फड़ एक लम्बे कपड़े पर बनाई चित्र-श्रृखला होती है जिसके ज़रिये महाकाव्यों की कहानी सुनाई जाती है।इसका सम्बंध क़िस्सागोई से भी है। इस कला की शुरूआत राजस्थान के शाहपुरा और भीलवाड़ा क्षेत्र से हुई थी । भोपा जनजाति के गायक जब स्थानीय लोक देवता देवनारायण तथा पाबुजी की कथाएं सुनाते थे तब यह कलाकृतियां उनके पीछे लगी होती थीं।
फड़ शब्द शायद संस्कृत शब्द पट्ट से लिया गया है जिसका मतलब होता है पेंटिंग के लिये समतल सतह। ये पेंटिंग ऐसे कपड़े पर होती है जिसे लपेटा जा सकता है इसलिये इसका संबंध स्थानीय भाषा के शब्द फड़ से भी हो सकता है,जिसे किसी चीज़ को मोड़ने के अर्थों में इस्तेमाल किया जाता है ।
फड़ चित्रकार मुकुल जोशी हमें फड़ की कला और उसके इतिहास के बारे में बताने जा रहे हैं। वह यह भी बताएंगे कि इसकी प्रक्रिया क्या होती है और आघुनिक युग में इसकी क्या अहमियत है।
पारंपरिक रुप से फड़ कलाकृतियां दो लोक देवताओं दोवनारायण और पाबूजी की कथाओं पर आधारित हुआ करती थीं। देवनारायण मध्यकालीन एक ऐसा देवनारायण मध्यकालीन एक ऐसे व्यक्तित्व थे जिसे विष्णु का अवतार माना जाता था। पाबूजी को भी लोक देवता माना जाता था,जो विश्वास किया जाता है कि,14वीं शताब्दी में राजस्थान के जोधपुर के पास कोलु गांव में रहते थे। पाबूजी की फड़ नाम से प्रसिद्ध फड़ पेंटिंग उनके पवित्र किरदार को लक्ष्मण के अवतार के रूप में पेश करती है जो रामायण में राम के भाई हैं।
मध्यकालीन युग में ग्रामीण क्षेत्रों में सक्रिय गिरोह पशुपालकों के जानवर चुरा लेते थे। ये चोरी इतनी ख़ूनख़राबे वाली होती थी कि इसमें लोग भी मारे जाते थे। भाट द्वारा काव्य शैली में सुनाये जाने वाली कहानियों में चोरी के संघर्ष में मारे जाने वाले लोगों का हिरो की तरह बखान होता है। इन हीरो को स्थानीय लोग देवता मानने लगे थे और शायद इसा तरह से पाबूजी का भी देवता की तरह जन्म हुआ होगा।
फड़ कला स्थानीय परंपरा में इतनी लोकप्रिय है कि दशकों से चली आ रही है। राजस्थान में भोपा और भोपी एक अलग जाति है जो कवि और संगीतकार होते हैं। फ़ड़ कलाकृतियां बनाने वाले चित्रकार छीपा जाति के होते हैं, ख़ासकर जोशी कुल के। आज़ादी के पहले शाहपुरा और भीलवाड़ा रियासतें हुआ करती थीं जहां ये चित्रकार रहते थे। 19वीं शताब्दी में शाहपुरा पर राजपूत शासक राज करता था जिसने भीलवाड़ा से चित्रकारों को अपने दरबार में बुलाकर उन्हें तमाम सुविधाएं मुहैया करवाईं थीं।
फड़ चित्रकार सिर्फ़ भोपा के लिये पेंटिंग बनाते हैं जो गांव गांव जाकर इसकी में गा बजाकर कहानियां सुनाते हैं। वे इस दौरान रावण हत्था नामक वाद्ययंत्र का प्रयोग करते हैं। भोपा सूर्यास्त के बाद फड़ पेंटिंग को खोलकर उसे पीछे लगाकर गांववालों के सामने कथा सुनाते हैं जो देर रात तक चलती है। शायद यही कारण है कि इन कलाकृतियों को फड़ कहा जाता है क्योंकि स्थानीय बोली में फड़ का मतलब मोड़ या तह होता है।
कोली समुदाय का संबंध कपड़ों की बुनाई से था जिस पर ब्रह्मण पेंटिग करते थे। पारंपरिक पेंटिंग बहुत बड़ी होती थी। पाबूजी की फड़ जहां 13 हाथ लंबी होती थी वहीं देवनारायण फड़ 30 फुट लंबी होती थी। रबारी समुदाय पैंटिंग की पूजा करते थे क्योंकि उनका मानना था कि पाबूजी उनके मवेशियों की रक्षा करते हैं। पाबूजी चूंकि ख़ुद भी राठौड़ राजपूत थे इसलिये राजस्थान के राठौड़ और राजपूत भी इन कहानियों पर विश्वास करते हैं। अलग अलग भारतीय पौराणिक कथाओं में पाबूजी पात्र का उल्लेख मिलता है।
एक कथा के अनुसार पाबूजी ने एक बार दुर्गा देवी के मवेशियों की रक्षा की थी और तभी से उसे दुर्गा देवी का आशीर्वाद प्राप्त है। माना जाता है कि एक बार पाबूजी ने रावण को हराया था और विजय के प्रतीक के रुप में वह अपने साथ ऊंट लाये थे। आज भी पाबूजी को मवेशियों का रक्षक माना जाता है और इसीलिये रबारी समुदाय उसकी पूजा करता है।
फड़ पेंटिंग बनाने की प्रक्रिया
फड़ पेंटिंग हाथ से बुने कपड़े पर बनाई जाती है। इस कपड़े को खादी या रेजा कहा जाता है। ये मोटा कपड़ा होता है जो बरसों ख़राब नहीं होता। कपड़े को रातभर भिगोकर रखा जाता है और फिर इसे कड़ा बनाने के लिये इस पर जौ के आटे और गोंद का लेप लगाया जाता है ताकि तिरपाल की तरह इसका इस्तेमाल हो सके। इस पूरी प्रक्रिया को कलफ़ लगाना कहते हैं। ये काम अक़्सर महिलाएं ही करती हैं। कलफ़ लगाने के बाद कपड़े को तेज़ धूप में सीधा कर के सुखाया जाता है। इसके बाद इसकी सतह को समतल बनाने और चमकाने के लिये चंद्रकांत (पत्थर) से घिसा जाता है। इस प्रक्रिया को घोटना कहते हैं।
पारंपरिक रुप से फड़ पेंटिंग की शुरुआत किसी शुभ दिन से की जाती है। शुरुआत के पहले विद्या और कला की देवी सरस्वती की पूजा की जाती है। पेंटिंग पर पहला ब्रश परिवार या किसी उच्च जाति की अविवाहित लड़की चलाती है।
पेंटिंग का कच्चा रेखाचित्र हल्के पीले रंग से बनाया जाता है। इस प्रक्रिया को कच्चा या कच्ची लिखाई कहा जाता है। इसके बाद कपड़े को कई भागों में बांटकर उस पर छतरियां और पेड़ आदि बनाये जाते हैं।
लोक कलाकृतियों में प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया जाता है जिसमें गोंद, पानी और नील मिलाया जाता है ताकि मन चाहा रंग बन सके। फड़ पेंटिंग बनाने की पूरी प्रक्रिया प्राकृतिक होती है जिसमें पत्थरों, फूल-पौधों और जड़ी-बूटियों के रंगों का इस्तेमाल किया जाता है। रंगों को पानी और गोंद मिलाकर सिल-बट्टे पर घिसा जाता है।
फड़ पेंटिंग में ज़्यादातर पीले, नारंगी, हरे, भूरे, लाल, नीले और काले रंग का प्रयोग किया जाता है। हर रंग का अपना महत्व होता है और उसका इस्तेमाल किसी विशेष उद्देश्य के लिये किया जाता है। हल्के पीले रंग का प्रयोग प्रारंभिक रुप-रेखा बनाने के लिये किया जाता है जबकि पीले रंग का इस्तेमाल चरित्र के आभूषणों और कपड़ों के लिये किया जाता है। नारंगी रंग का इस्तेमाल मानव पात्र के चेहरे और हाथ-पांव बनाने में किया जाता है। इसी तरह हरा रंग पेड़-पौधों के लिये और भूरा रंग मकान आदि के चित्र बनाने के लिये किया जाता है। शाही लिबास, झंडे और चौड़े बॉर्डर बनाने में लाल रंग का प्रयोग किया जाता है। पानी और पर्दों में नीले रंग इस्तेमाल होता है। छवि और आसापस के क्षेत्रों को काले रंग से रेखांकित किया जाता है।
फड़ पेंटिंग की ख़ासियत ये है कि हर छवि सपाट रहती है और यह छवियां ,पेंटिंग देखने वालों की तरफ़ न देखकर एक दूसरे की तरफ़ देख रही होती हैं। पेंटिंग का समापन भी शुभ दिन को ही होता है। कलाकार देवी की छवि को जीवंत दिखाने के लिये उसकी आंख की पुतली में रंग भरता है और इस तरह पेंटिंग पूजा के लिये तैयार हो जाती है।
पेंटिंग में देवियों को मोर, घोड़े या फिर शेर पर सवार दिखाया जाता है। आम महिलाएं पैदल और राजकुमारियां बैलगाड़ी में दर्शायी जाती हैं। ताक़तवर पुरुषों को तीर-कमान, तलवार, त्रिशूल और लाठियां लिये दिखाया जाता है। आत्मरक्षा के लिये उनके हाथों में ढ़ाल भी होती है। पेंटिंग में घोड़े, हाथी, शेर, ऊंट, गाय, बैल, हिरण, भेड़ और ख़रगोश जैसे जानवरों का चित्रण आम बात है। इसके अलावा फड़ पेंटिंग में चिड़िया, मोर, गिद्ध, तोते, कोआ, कबूतर, बिच्छू और गोरैया भी देखी जा सकती है। केले, आम और पीपल के पेड़ का भी चित्रण फड़ पेंटिंग में ख़ूब होता है। पेंटिंग की सजावट के लिये फूलों के चित्र बनाये जाते हैं।
चुनौतियां
शुरुआती दिनों में फड़ कला मनोरंजन और ज्ञान का घुमंतु स्रोत हुआ करती थी। भोपा रात भर गा-गाकर कहानियां सुनाते थे लेकिन समय के साथ कहानियां छोटी होती चली गईं और पेंटिंग भी छोटी होकर 2,4 या 6 फुट की हो गई। ये इतनी छोटी हो गई कि इसे घर की दीवार पर लगाया जा सकता है। पन्द्रह साल पहले तक फड़ पेंटिंग का संबंध केवल धार्मिक पवित्रता से था। आज़ादी के बाद प्रिटिंग प्रेस और फ़ोटोग्राफ़ी के आगमन से फड़ चित्रकारों पर इसका प्रतिकूल असर पड़ा और धीरे-धीरे उनको मिलने वाला संरक्षण भी कम होता गया। एक अध्ययन से पता चलता है कि बीस साल पहले राजस्थान में केवल सात पेशेवर फड़ चित्रकार ही बचे थे। सन 1950 से लेकर सन 1960 तक इस कला का ऐसा पतन हुआ कि ये लगभग लुप्त होने की कगार पर पहुंच गई थी।
पद्मश्री से सम्मानित फड़ चित्रकार श्री लाल जी जोशी ने इस कला को जीवत रखने के लिये सन 1960 में राजस्थान के भीलवाड़ा में जोशी कला कुंज की स्थापना की थी। बाद में सन 1990 में जोशी के पुत्रों, गोपाल और कल्याण जोशी ने जोशी कला कुंज का नाम बदलकर चित्रशाला कर दिया। यहां गत वर्षों में तीन हज़ार से ज़्यादा चित्रकारों को प्रशिक्षित किया गया है।
चित्रशाला में चित्रकारों को पेंटिंग में अपनी ख़ुद की शैली का प्रयोग करने के लिये बढ़ावा दिया जाता था। इस पारंपरिक कला को जीवत रखने में कल्याण जोशी, नंदकिशोर जोशी जैसे परिवार के सदस्यों और प्रदीप मुखर्जी जैसे प्रसिद्ध चित्रकारों ने अहम भूमिका निभाई है। इनके प्रयासों की वजह से न सिर्फ़ रोज़गार पैदा हुए हैं बल्कि कला की व्यावसायिक क़ीमत भी बढ़ गई।
पश्चिमी देशों से फड़ पेंटिंग के परिचय के बाद इसकी क़द्र और होने लगी और चित्रकार इस कला को फिर अपनाने लगे। विदेशी सैलानियों को ये पेंटिग बहुत भायी और वे इसे यादगार के रुप में साथ ले जाने लगे। आज हम संग्रहालयों, हवाई अड्डों और औद्योगिक प्रतिष्ठानों में फड़ पेंटिग देख सकते हैं।
पहले फड़ पेंटिंग देवनारायण और पाबूजी पर ही होती थी लेकिन अब इसमें भागवान राम, भगवान कृष्ण, रामदेवीजी और काली जैसे चरित्र भी दिखाई देने लगे हैं। रामायण और हनुमान चालीसा भी अब पेंटिंग की विषयवस्तु बन चुके हैं। इसके अलावा महाराणा प्रताप, पृथ्वीराज चौहान, मोमल राणो, रानी हादी और धोला मारु जैसे ऐतिहासिक चरित्रों की कहानियां भी फड़ पेंटिग की विषयवस्तु बन चुकी हैं। पेड़ और पानी बचाओ जैसे आधुनिक विषय भी इस कला से अछूते नहीं रह गए हैं।
बहरहाल, आज बीस से भी कम फड़ चित्रकार इस कला से पूरी तरह जुड़े हुए हैं। भारत की गौरवशाली परंपराओं और गाथाओं को सुनाती ये कला शैली ने सदियों का सफ़र तय किया है। आधुनिक युग में इस लोक कला को समझने और ज़िदा रखने की सख़्त ज़रुरत है।
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