संगमरमर पर जड़ाई के काम को पर्चिनकारी कहते हैं जो फ़ारसी शब्द है। पर्चिनकारी कला में संगमरमर पर बनाई गईं डिज़ाइनों में नगों को जड़ा जाता है। ये कला भारत में मुग़ल वास्तुकला की विशेषता रही है जिसका बेहतरीन उदाहरण आगरा का ताज महल है।
माना जाता है कि पर्चिन कला प्राचीन रोम की देन है जहां इसे ओपस सेक्टाइल कहा जाता था। चौथी सदी से ही गिरजाघरों, भव्य समाधि मंडपों और फ़र्शों पर पत्थरों तथा संगमरमर पर बनाई गईं छवियों पर ये कारीगरी की जाती थी। बाद में इटली के नवजागरण काल में इस कला का पुनर्जन्म हुआ। 16वीं शताब्दी तक आते आते इसे ‘पिएत्रा ड्यूरा’ कहा जाने लगा। इटली में ये कला “पत्थर में चित्रकारी” के नाम से प्रसिद्ध हो गई थी।
धीरे धीरे ये कला यूरोप और पूर्वी देशों में फैल गई। कहा जाता है कि 16वीं और 17वीं शताब्दी में ये कला भारत में भी आकर ख़ूब फूलीफली, ख़ासकर मुग़लकाल में।
संगमरमर पर जड़ाई के प्रमुख मुग़ल स्मारक
आगरा, दिल्ली से लेकर राजस्थान में मस्जिदों और क़िलों पर पर्चिनकारी कला हमें चकित कर देती है। राजस्थान में तो आज भी ये कला जीवित है। इस कला के आरंभिक उदाहरण दिल्ली के पुराने क़िले (1540) की क़िला-ए-कुन्हा मस्जिद में देखे जा सकते हैं। मस्जिद की डिज़ाइन दूसरे मुग़ल बादशाह हुमांयू ने बनाई थी जिसने 16वीं शताब्दी में दिल्ली का तख़्त फ़तह किया था। हुमांयू को वास्तुकला में संगमरमर में जड़ाई के काम को समावेश करने का श्रेय जाता है।
मस्जिद की दीवारों और लिवान (गुंबददार सभागार) पर बनी ये मेहराबें नमाज़ पढ़ने की दिशा बताती हैं। लाल बलुआ पत्थरों की इन मेहराबों पर संगमरमर तथा बलुआ पत्थरों पर सोने, लाजवर्त तथा अन्य क़ीमती नगों की सुंदर तरीक़े से जड़ाई की गई थी।
सन 1551 में मेवाड़ के सिसोदिया राजपूतों के महाराणाओं द्वारा उदयपुर में बनये गए भव्य जगमंदिर महल में भी संगमरमर पर जड़ाई का काम देखा जा सकता है। महल के अंदर स्थित गुल महल की भीतरी दीवारों पर संगमरमर की विशाल पट्टियों पर रुबी, गोमेद, जैस्पर, कारेलियन और जेड जैसे क़ीमती नग जड़े हुए हैं। ये महल ख़ासकर युवा शाहजहां के लिये बनवाया गया था जिसे तब शहज़ादा ख़ुर्रम कहा जता था। इस महल में ख़ुर्रम शरणार्थी तौर पर रहे थे।
आगरा के एतमाद-उद-दौला मक़बरे को “बच्चा ताज” या ज्वैल बॉक्स भी कहा जाता है। यहां क़ीमती तथा अर्द्ध कीमती पत्थर की जड़ाई का कमाल का काम देखा जा सकता है। ये मक़बरा नूरजहां ने सन 1621-1627 के बीच कभी अपने पिता के लिये बनवाया था। इसमें इंद्रगोप (हल्के लाल रंग का नग), सूर्यकांत (चमकदार श्वेत रंग का नग), राजावर्त (गहरे नीले रंग का नग), गोमेदऔर पुख़राज जैसे क़ीमती नगों की जड़ाई का काम है। आगरा क़िले में अकबर के जहांगीरी महल और फतहपुरी सीकरी के बुलंद दरवाज़े पर भी संगमरमर पर जड़ाई का सुंदर काम किया हुआ है।
ताज में संगमरमर पर जड़ाई की विरासत
1632 में मुगल बादशाह शाहजहाँ द्वारा बनवाए गए ताजमहल में मार्बल जड़ने की तकनीक आखिरकार अपने सबसे अच्छे रूप में दिखाई देती है। इसे भारत में मुग़ल कला का नगीना और दुनिया का अजूबा कहा जाता है, जो सचमुच ही रंगीन अर्द्ध कीमती पत्थरों से चमकते हुए सफेद संगमरमर पर जड़ा हुआ है। ताज महल की संगमरमर की दीवारें पर्चिनकारी कला (क़ीमती नगों) से पटी पड़ी हैं।
ताज महल के बाहरी हिस्सों पर पर्चिनकारी के हस्तलिपि में अभिलेख हैं जब कि अंदर मुमताज़ और शाहजहां की क़ब्रों पर इस कला के बेलबूटों की सज्जा है। राजस्थान के मकराना से मंगवाए गए संममरमर पर इंद्रगोप (हल्का लाल रंग ) और राजावर्त (गहरे नीले रंग का नग) जैसे क़ीमती नगों की जड़ाई है। ताज के नीचे और ऊपर के प्रकोष्ठ में मुमताज़ की क़ब्र पर अभिलेख अंकित है जबकि ऊपर के प्रकोष्ठ वाली क़ब्र पर बेलबूटों की सज्जा है।
संगमरमर शिल्पकारों के अनुसार ये नग अफ़ग़ानिस्तान, तुर्की और चीन से मंगवाए गए थे। शाहजहां ने ताज महल के लिए बहुत से नग जमा किए थे। ये इसलिये संभव हो सका क्योंकि उस समय मिस्र, मैक्सिको तथा दक्षिण अमेरिकी और यूरोपीय देशों के साथ नगों का विश्व व्यापार होता था।
आगरा की सड़कों पर आज भी शिल्पकार संगमरमर पर छेनी से पर्चिनकारी करते देखे जा सकते हैं। कला के इतिहासकार और स्कॉटिश लेखक विलियम डैलरिम्पल ने अपने यात्रा वृतांत ‘सिटी ऑफ द जिन्न: अ ईयर इन डेहली’ में मुग़ल वास्तुकला की ख़ूबसूरती औऱ पुरानी दिल्ली के गौरवपूर्ण समय को याद करते हुए लिखते हैं,
“इस्लामिक काल के दौर की उस सबसे भव्य सड़क का विवरण पढ़ने के बाद जब आप अपने रिकशे में बैठ कर उस भूलभुलैयों में घुसते हैं तो आपको कहीं न कहीं ये उम्मीद रहती है कि हो न हो मुग़ल वास्तुकारों के लिए सूर्यकांत मणि (जेस्पर), और गोमेद से लदी पर्चिनकारों की दुकानें देखने को मिलेंगी।”.
संगमरमर पर जड़ाई का काम करने वाले दस्तकार अनवर ख़ान ने हमें बताया कि ये हुनर उन्हें उनके पूर्वजों से विरासत में मिला है जिन्होंने ताज के भीतर पर्चिनकारी की थी।
ताज महल में पर्चिनकारी के काम से ये कला पूरी तरह विकसित हो गई। बाद में इसका इस्तेमाल पड़ौस के क़िलों और मस्जिदों में भी किया गया।
आगरा में चीनी का रौज़ा एतमाद-उद-दौला के मक़बरे से पूर्व दिशा में एक कि.मी. की दूरी पर स्थित है। इसका निर्माण सन 1635 में हुआ था। इसमें संगमरमर पर क़ीमती नगों की जड़ाई का सुंदर काम है। इसके अलावा लाहौर के शाहदरा में नूरजहां द्वारा बनवाए गए जहांगीर के मक़बरे में भी संगमरमर पर जड़ाई का काम देखा जा सकता है।
परचिन कारी की प्रक्रिया
पर्चिनकारी की शुरुआत भारत में मुग़ल काल में कारीगरों ने पर्चिनकारी कला पर महारत हासिल की थी। इन कारीगरों को पर्चिनकार कहा जाता था। इन्हें इस तकनीक के लिए ख़ासकर तैयार किया जाता था।
संगमरमर पर जड़ाई का काम बहुत मेहनत वाला होता है। पहले क़ीमती नगों को तराशा जाता है, फिर पत्थरों (संगमरमर) पर डिज़ाइन बनाई जाती है और फिर इन डिज़ाइनों में नग जड़े जाते हैं। मूल पत्थर अथवा सख्त पत्थर अमूमन हरे, सफ़ेद या फिर काले संगमरमर आधारित होते हैं।
निर्माण के समय दो पत्थरों को जोड़ने के लिये जितना कम सफ़ेद गोंद दिखाई दे, उतनी ही कारीगरी अच्छी मानी जाती थी। जड़ाई का काम ख़त्म होने के बाद, पत्थर की धुलाई होती है और नुकीले कोनों को समतल बनाने के लिये रगड़ा जाता है तथा फिर पॉलिश की जाती है। इस तरह से पर्चिनकारी का काम लक़दक़ करने लगता है।
नगों का महत्व
पर्चिनकारी में उन नगों का इस्तेमाल किया जाता है जो बहुत चमकदार होते हैं। ये नग हैं-लाजवर्त (नीला), लाल सूर्यकांत मणि जैसे चेल्सेडोनिक क्वार्ट्ज़ (एक प्रकार के चमकीले पत्थर), रक्त रत्न (लाल छींट वाला गहरे हरे रंग का नग), गोमेद (भूरा लाल), चेल्सेडोनी, अक़ीक़ (भूरा लाल), भूरा गोमेद, प्लाज़मा ((हरे, सिलेटी या फिर नीले रंग के क्वार्ट्ज़ की स्पष्ट क़िस्म), क्लोराइट (हरा), फ़ीरोज़ा (नेफ़राइट या फ़ीरोज़ी), मिट्टी का स्लेट रत्न, पीला और धारियों वाला संगमरमर। इसके अलावा चूने के पत्थर वाले कई नगों का भी इस्तेमाल किया जाता है।
अलग अलग संस्कृतियों में पर्चिनकारी में इस्तेमाल किए जाने वाले नगों का आध्यात्मिक महत्व रहा है। इंद्रगोप नग को सबसे महत्वपूर्ण माना जाता था। यह माना जाता था कि कारेलियन की अंगूठी पहनने से व्यक्ति की इच्छाएं पूरी होती हैं। हरिताश्म नग (जेड) के लिये कहा जाता था कि इसे पहनने से बीमारी दूर होती है। इस्लामिक संस्कृति में माना जाता है कि हरे रंग का पबहरिताश्म और क्लोराइट नग पैग़ंबर मोहम्मद के पसंदीदा नग थे। इसी तरह माना जाता था कि रक्त मणि से वर्षा करने की शक्ति मिलती है जो ज़ाहिर ही ताज महल के बाग़ों के लिए लाभकारी होता होगा। लाजवर्त नग बुराईयों से दूर रखता है, ऐसा माना जाता था। ये भी माना जाता था कि पर्चिनकारी में सर्द नग के इस्तेमाल से दुख दूर होते हैं और जीवन में ख़ुशियां आती हैं।
मुग़ल वास्तुकला को सुशोभित करते पर्चिनकारी के रूपांकन
पर्चिनकारी के रूपांकन मुग़ल दरबार के ईरानी कारीगरों से प्रेरित थे। पर्चिनकारी में वाइन-वास, थालियों और प्यालों, साइप्रेस मधुचूषच पौधे, गुलदस्ते और अन्य ईरानी भित्ति चित्र दिखाई पड़ते हैं।
ताज महल: फ़ारसी कविता और इस्लामिक ग्रंथों में फूलों को स्वर्ग के जल से निकलने वाले फूल बताया गया है। प्रेम के प्रतीक के रुप में निर्मित ताज महल में संगमरमर के जड़ाई काम में फूलों और पेड़ों के गुथे हुए स्वर्गिक रूपांकन बने हुए हैं। एक दूसरे से गुथे हुए फूलों के साथ ज्यामिती य भित्ति चित्र भी ताज महल की वास्तुकला की विशेषता है। संगमरमर पर कारीगरों द्वारा किए गए जड़ाई के काम में नरगिस, ट्यूलिप, अफ़ीम के पौधे, कलियों, वर्णिकाओं और अन्य फूलों की उत्कृष्ट छवियां नज़र आती हैं। पूरे ताज परिसर में सफ़ेद संगमरमर पर काले गोमेद पत्थर से क़ुरान की आयतें लिखी हुई हैं।
हुमांयू का मक़बरा: हुमांयू के मक़बरे में जड़ाई के लिए काला और सफ़ेद संगमरमर राजस्थान के मकराना से मंगवाया गया था। यहां बालुपत्थर और संगमरमर पर आठ कोने वाले तारे और बेलबूटों के ज्यामितीय पैटर्न बने हुए हैं।
ऐत्माद-उद-द्दौला का मक़बरा: इस मक़बरे का जड़ाई का काम सबसे बेहतरीन माना जाता है। मक़बरे की दीवारें तथा फ़र्श और आसपास की क़ब्रों की दीवारें क़ीमती और कुछ कम क़ीमती नगों के ईरानी भित्ति चित्रों जैसे फूलों, साइप्रेसेस, बेलबूटे, शराब के ग्लास, परिंदों और अन्य बेलबूटों से सजी हुई हैं। सफ़ेद संगमरमर की दीवारें कम क़ीमती नगों से सजी हुई हैं। संगमरमर पर साइप्रेस पेड़, वाईन की बोतलों, कटे हुए फल, ईरान के फूलों के गुच्छों के रूपांकन बहुत सुंदर तरीक़े से जड़े गए हैं। मुग़ल वास्तुकला के सबसे सजे-धजे भवनों में एतमाद-उद-दौला का मक़बरा सबसे भव्य माना जाता है।
नवरचना और चुनौतियां
सन 1630 के बाद से भवनों की दीवारों और मेज़ के ऊपर तथा कैबिनेट के पल्लों जैसी चीज़ों पर सजावट के रुप में पर्चिनकारी कला दिखने लगी थी।
सन 1803 में आगरा पर अंगरेज़ों के कब्ज़े के बाद बड़ी संख्या में यूरोप के लेग ताज महल देखने आने लगे थे। ये लोग कारीगरों से जड़ाई का काम ख़रीदकर यादगार के रुप में अपने देश ले जाते थे। इस तरह आगरा में जड़ाई का काम फलने फूलने लगा।
आज खाने की मेज़, सेंटर टेबल, बोर्ड, निराले बक्से, वाईन ग्लास और बर्तन संगमरमर पर जड़ाई की तकनीक से बनाये जा रहे हैं। ये काम पूरे विश्व में लोकप्रिय हो चुका है और विदेशी सैलानियों में छोटे डिब्बे, जानवरों की छोटी मूर्तियां और ट्रे जैसी चीज़ों की बहुत मांग है जिसे वे यादगार के रुप मे अपने साथ ले जाते हैं। संगमरमर पर जड़ाई वाला काम अब घरों की साजसज्जा के लिये भी होने लगा है, ख़ासकर घर के अंदर के मंदिरों और रसोईघरों में।
आज आगरा और फतेहपुर सीकरी के आसपास के इलाक़ों का संगमरमर जड़ाई काम प्रसिद्ध हो गया है, ख़ासकर आगरा का। लेकिन चूंकि इसमें बहुत बारीक काम होता है और मेहनत भी बहुत लगती है, कारीगरों के लिये इस कला को ज़िंदा रखना मुश्किल पड़ रहा है। इसके अलावा नयी पीढ़ी भी इस काम में दिलचस्पी नहीं दिखा रही है इसलिये इसका भविष्य अधर में लटका हुआ है।
ये दुरुस्त ही कहा गया है, “मुग़लों ने टाइटन्स की तरह शुरुआत की और अंत जौहरियों की तरह किया।” इसे मुग़ल वास्तुकला के पर्चिनकारी में देखा जा सकता है।
हम आपसे सुनने को उत्सुक हैं!
लिव हिस्ट्री इंडिया इस देश की अनमोल धरोहर की यादों को ताज़ा करने का एक प्रयत्न हैं। हम आपके विचारों और सुझावों का स्वागत करते हैं। हमारे साथ किसी भी तरह से जुड़े रहने के लिए यहाँ संपर्क कीजिये: contactus@livehistoryindia.com
Join our mailing list to receive the latest news and updates from our team.