जयपुर की सुंदर मीनाकारी कला 

कीमती और सुंदर गहने, उन्हें बनाने की विस्तृत तकनीक और उनसे जुडी सदियों पुरानी परंपराएं – भारत वास्तव में आभूषणों का खज़ाना है जिसका दुनिया में कोई जवाब नहीं है। सिंधु घाटी सभ्यता के दौरान बनाई जाने वाली मनके की लड़ियों से लेकर आधुनिक समय में अलंकृत आभूषण बनाने की कला ने एक लंबा सफ़र तय किया है। लेकिन क्या आप जानते हैं, भारत में असंख्य आभूषण और उनकी सजावट की शैलियों के बीच, एक विशेष प्रकार है जो सजावट के लिए मीने का उपयोग करता है और दुनिया के कोनों से यात्रा कर भारत में आया है? मीनाकारी कला स्वदेशी नहीं है लेकिन भारतीय कारीगरों ने इसमें इतनी महारत हासिल कर ली कि ये भारत की शिल्प कलाओं में से एक मानी जानी लगी है। माना जाता है कि मीनाकारी कला 16वीं शताब्दी में मुग़लों के साथ भारत आई थी लेकिन इस कला का इतिहास तीन हज़ार साल से भी ज़्यादा पुराना है। राजस्थान का शहर जयपुर आज मीनाकारी का एक प्रसिद्ध केंद्र है।

मीनाकारी और इसका इतिहास

मीनाकारी (enameling) कला काफ़ी पुरानी है लेकिन इसके इतिहास पर बात करने के पहले जानते हैं कि मीना (enamel) है क्या। मीना कांच के पावडर और कैमिकल के बने ठोस मिश्रण होते हैं। ये जब पिघले हुए होते हैं उसी दौरान धातु ऑक्साइड और मिनरल मिलाकर इसे रंग दिया जाता है। किसी भी धातु की सतह पर मीने से सजावट के काम को मीनाकारी कहते हैं । मीनाकारी शब्द में मीना तो इनेमल को दर्शाता है ही और कारी का अर्थ है कला। फ़ारसी भाषा में मीना का मतलब स्वर्ग होता है यानी स्वर्ग का नीला रंग।

मीनाकारी के जो आरंभिक ज़ेवर मिले हैं वो 13वीं ई.पू. शताब्दी के हैं। ये गहने माइसेनियस यूनान अवधि (1600 से लेकर 1100 ई.पू.) के दौरान पूर्वी भूमध्यसागर में साइप्रस में बने थे। माइसेनियस यूनान युग, प्राचीन यूनान में कांस्य युग का अंतिम दौर था। ये वो समय था जब कलाकार सोने की अंगूठियों पर मीना से सजावट करते थे। तब से मीनाकारी सिर्फ़ गहनों पर ही नहीं बल्कि अन्य चीज़ों पर भी सारे विश्व में की जा रही है। माना जाता है जिस तरह की मीनाकारी हम आज भारत में देखते हैं वो दरअसल ईरान के ससानिद( सल्तनत) युग (तीसरी से 7वीं शताब्दी) में ईरानी शिल्पकारों की देन है।

ये कला ईरान में फलीफूली थी और इसे मुग़ल भारत लेकर आए थे। तुर्क-मंगोल नस्ल के शहज़ादे बाबर के नेतृत्व में मुग़लों ने 16वीं शताब्दी के दौरान भारत पर हमला बोला था। अगली दो शताब्दियों तक कला, संस्कृति, शिल्प और वास्तुकला मुग़ल संरक्षण में फूलीफूली। मुग़लों के शासनकाल में ही गहने बनाने की कला का विकास हुआ। मुग़ल शासनकाल के मिले सबूतों के अनुसार उस समय शाही आभूषणों में मीनाकारी का काम होता था। माना जाता है कि अकबर, जहांगीर और शाहजहां मीनाकारी वाले आभूषण पहनते थे। दिलचस्प बात ये है कि झुमके, अंगूठी, कान की बालियां और गले के हार के अलावा हुक्के, तलवार की मूठ और बक्सों आदि पर भी मीनाकारी का बारीक काम होता था। लघु चित्रों के संकलन में हम मुग़ल गहनों की ख़ूबसूरती देख सकते हैं। दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय के अलावा देश के कुछ अन्य संग्रहालयों में मीनाकारी वाले कुछ पुराने गहने रखे हुए हैं।

भारत में जब गहनों की सजावट की ये कला फलफूल रही थी तब शाही परिवारों ने भी इसे अपना लिया था। पटियाला और जयपुर जैसी रियासतों के महाराजों ने इस कला को संरक्षण दिया। भारत में सबसे प्रसिद्ध मीनाकारी राजस्थान, ख़ासकर इसकी राजधानी जयपुर में होती है। माना जाता है कि 16वीं शताब्दी में आमेर के कछवाहा शासक राजा मान सिंह-प्रथम लाहौर से कुशल मीनाकारों को अपने साथ लाए और उन्हें अपने दरबार में जगह दी थी। ये कला बाद में जयपुर पहुंच गई। कछवाहा की नयी राजधानी के रुप में जयपुर की स्थापना सन 1727 में हुई थी। उस समय महाराजा सवाई जय सिंह-द्वतीय ने आमेर की जगह जयपुर को अपनी राजधानी बना लिया था। जय सिंह कला के प्रशंसक और संरक्षक थे और उन्होंने भारत के कोने कोने से शिल्पकारों को बुलाकर जयपुर में बसाया था। उस समय जयपुर व्यापार और वाणिज्य का केंद्र माना जाता था। ऐसा विश्वास किया जाता है कि उन्होंने मीनाकारों को ईरान से बुलवाकर भी यहां बसाया था। तभी से जयपुर शहर में मीनाकारी की कला फलफूल रही है।

मीनाकारी का काम करने वाले शिल्पियों को मीनाकार कहते हैं। जयपुर में मीनाकारों के कई परिवार हैं जो कई पीढ़ियों से ये काम कर रहे हैं। इनमें से कुछ परिवार ऐसा मानते हैं कि उनके पूर्वजों को ये काम सीखने के लिए ईरान भेजा गया था। हमने जयपुर के मुकेश जी से बात की, जो 15वीं पीढ़ी के मीनाकार हैं। उन्हें मीनाकारी के लिये राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुका है।

उन्होंने हमें इस अद्भुत कला के इतिहास के बारे में इस तरह बताया।

आज हालंकि मीनाकारी सोने, चांदी और तांबे जैसी धातुओं पर होती है लेकिन पहले मीनाकारी सिर्फ़ सोने पर ही होती थी। भारत में सोने के गहने सबसे ज़्यादा प्रसिद्ध हैं। सोना सूर्य और शुद्धता का प्रतीक है और इसे पवित्र माना जाता है। गहनों पर मीनाकारी के साथ कुंदन का भी काम होता है। कुंदन शब्द का मतलब अति शुद्ध सोना होता है यानी जो सोने का सबसे विशुद्ध रुप है। कुंदन वो तकनीक है जो भारत में मुग़ल शासनकाल के दौरान विकसित हुई थी। कुंदन तकनीक में बिना कटे हीरे या फिर अन्य क़ीमती नगों को, जिन्हें पहले ही आकार दिया जा चुका है, शुद्ध सोने की नाज़ुक डिज़ाइन में जड़ा जाता है। ज़्यादातर गहनों में चमकीले कुंदन नग सामने की तरफ़ होते हैं जबकि मीनाकारी पीछे की तरफ़ होती है। मुग़लों के कई गहनों में कुंदन-मीना की झलक देखने को मिलती है।

मीनाकारी की प्रक्रिया

जयपुर शहर में किशनपोल बाज़ार जैसे पुराने बाज़ारों की गलियों में आपको कई दुकाने दिखाई मिलेंगी जहां कुंदन-मीनाकारी के आभूषण और अन्य वस्तुएं मिलेंगी। उत्तर भारत में इस तरह के आभूषण बहुत लोकप्रिय हैं।

दुनिया में मीनाकारी के लिये तरह तरह तकनीकों का इस्तेमाल किया जाता है लेकिन भारत में जो तकनीक लोकप्रिय है उसे शैम्पलेव कहा जाता है जिसका फ़्रैंच भाषा में मतलब होता है उठी हुई जगह। इस तकनीक में मीना को धातु में बने गड्ढों में भरा जाता है और धातु के किनारे बाहर निकले रहते हैं।

मीनाकारी के आभूषण बनाने की प्रक्रिया लंबी होती है और इसके कई चरण होते हैं। मीनाकारी का एक टुकड़ा कई माहिर हाथों से गुज़रता है। मीनाकारी का एक छोटा सा गहना भी बनाने में औसतन 4 -5 दिन लग जाते हैं। प्रक्रिया के पहले चरण को घाट बनाना कहते हैं। इसमें गहने के उस हिस्से का आधार तैयार किया जाता है जिसमें मीनाकारी होनी है।

धातु को पहले आग पर रखकर पिघलाया जाता है। फिर इसके तार या पतरा बनाये जाते हैं और फिर इसे मनचाहा आकार दिया जाता है। इस प्रक्रिया में आकार देने के लिये धातु को दबाया जाता है और झालना की क्रिया भी की जाती है। उदाहरण के लिये अगर फूल जैसी कान की बाली बनानी है तो इसी प्रक्रिया में धातु को फूल का आकार दिया जाता है। ये काम काफी पेचीदा और थकाने वाला होता है।

अगले चरण में आधार पर डिज़ाइन बनाई जाती है। भारतीय मीनाकारी में बेल, फूल, परिंदे, बेलबूटे और ख़ुशनवीसी जैसे रुपांकन लोकप्रिय हैं। शिल्पकार छोटे से छोटे गहने पर भी पैटर्न या रुपांकन की डिज़ाइन हाथ से ही बनाते हैं। इसके बाद डिज़ाइन को उकेरा जाता है। धातु की सतह पर डिज़ाइन उकेरने के लिये सलाई सहित अन्य औज़ारों से डिज़ाइन की खुदाई की जाती हैं का इस्तेमाल करते हैं। उकेरने के बाद मीनाकारी के पहले धातु को धोया जाता है।

मीनाकारी का काम मीना ( इनेमल) से ही शुरु होता है। शिल्पियों के पास अलग अलग रंगों के मीना होते हैं जो छोटी टुकड़े या केक में उपलब्ध रहते हैं। ये मीना भारत में अमृतसर या फिर फ़्रांस और जर्मनी से मंगवाए जाते हैं। श्री मुकेश का कहना है कि उनके पास आज भी वो मीना हैं जो उनके पिता बरसों पहले लाए थे। ये लंबे समय तक ख़राब नहीं होते।

इस मीना के छोटे छोटे टुकड़े किए जाते हैं। फिर उसका बारीक पावडर बनाया जाता है। इस काम में पानी का इस्तेमाल आता है। मीना के पावडर को फिर रंग भरने के पतरे पर डाला जाता है। मीनाकारी में अमूमन नीला, हरा, लाल और सफेद रंग का प्रयोग किया जाता है। पतरे से बहुत सावधानी से ज़रा सा मीना लेकर उसे उकेरि गई डिजाइन में भरा जाता है। महीन से महीन डिज़ाइनों में भी मीना बहुत सावधानी पूर्वक भरा जाता है।

धातु का टुकड़ा जब पूरा मीने से भर जाता है तब इसे पकाया जाता है। श्री मुकेश के अनुसार पहले भट्टी में मीने को पकाया जाता था लेकिन अब बिजली के अवन आ गए हैं जिससे ये प्रक्रिया तेज़ और आसान भी हो गई है। भराई और पकाई की प्रक्रिया पांच-छह बार की जाती है। हर बार मीना थोड़ा पिघलता है और आख़िरकार उकेरी गई डिज़ाइन के हर हिस्सों में भर जाता है। दिलचस्प बात ये है कि मीना का मूल रंग उसे पकाने के बाद ही नज़र आता है।

प्रक्रिया का अगला चरण फ़िनिशिंग का होता है। इस प्रक्रिया को मंझाई कहते है जिसमें धातु को चमकदार और चिकना बनाया जाता है। इसके बाद इसे फिर पकाया जाता है। पकने के बाद इसे एसिड वाले द्रव्य या इमली के पानी से साफ़ किया जाता है जिससे इसमें चमक पैदा हो जाती है। इस तरह मीनाकारी वाली एक सुंदर वस्तु तैयार होती है।

मीनाकारी के बाद गहनों पर कुंदन-जड़ाई का काम होता है। कई बार इसमें दूसरे तरह के पत्थर भी लगाये जाते हैं।

आधुनिक समय में मीनाकारी कला

हालंकि मीनाकारी का काम लाइफ़स्टाइल के अन्य उत्पादों पर भी किया जाता है लेकिन गहनों पर मीनाकारी सबसे ज़्यादा मशहूर है। सुंदर डिज़ाइन की वजह से मीनाकारी वाले झुमकों, गले के हारों और चूड़ियों की बहुत मांग होती है।

दुल्हन के गहनों पर कुंदन के साथ मीनाकारी का काम होता है। जयपुर के कुंदन मीनाकारी वाले गहने, सबसे सुंदर डिज़ाइन वाले गहनों में से एक माने जाते हैं।

शिल्पकार अब नये उत्पादों के साथ मीनाकारी का प्रयोग करने लगे हैं। कफ़लिंक और कंगन के अलावा घर की साजसज्जा के सामान , सामान रखने के बक्सों, छुरी-कांटों और बर्तनों पर भी मीनाकारी का काम होने लगा है। मुकेश जैसे कुछ मीनाकार आधुनिक रंगों और डिजाइनों को भी अपनाने लगे हैं।

मीनाकारी के मुख्य केंद्र जयपुर के अलावा, मीनाकारी का काम अब देश के अन्य हिस्सों में होता है और हर जगह की मीनाकारी की अपनी ख़ासियत, तकनीक और शैली है। उदाहरण के लिये लखनऊ की मीनाकारी में चांदी पर हरे और नीले रंग की मीनाकारी होती है। इसी तरह बनारस की मीनाकारी की गुलाबी मीना ख़ास है। सोने पर मीनाकारी जयपुर, बनारस और दिल्ली में होती है। इसी तरह चांदी पर मीनाकारी राजस्थान में उदयपुर, बीकानेर और नाथद्वारा में होती है।

सीमा पार से आई मीनाकारी की ये प्राचीन कला भारत में गहनों के सबसे लोकप्रिय पारंपरिक रुपों में से एक है जो लगातार लोगों को अपनी सुंदरता से लुभाती आ रही है।

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