चूड़ियां सभ्यता के सबसे पुराने गहनों में से एक हैं। सिंधु घाटी सभ्यता के समय भी मोहन जोदड़ो (आधुनिक समय में सिंध, पाकिस्तान) की खुदाई में नृत्य करती युवती (दी डांसिंग गर्ल) की जो मूर्ति मिली है, उसने भी हाथ में चूड़ियां पहन रखी हैं। ये कांसे की मूर्ति क़रीब 2700-2100 ई.पू. के लगभग की है। इतिहास से पता चलता है कि चूड़ियों की परंपरा हज़ारों सालों से चली आ रही है। चूड़ियां टेराकोटा, सीप, लकड़ी से लेकर कांच और धातु से बनाई जाती रही हैं। हड़प्पा और मौर्य काल से लेकर आधुनिक काल तक चूड़ियां भारतीय संस्कृति और परंपरा का एक अहम हिस्सा रही हैं।
लेकिन क्या आपको पता है कि जयपुर के व्यस्त बाज़ार की एक पुरानी संकरी गली, हाथ से बनाई जाने वाली एक ख़ास तरह की चूड़ियों के लिये मशहूर है? जयपुर के त्रिपोलिया बाज़ार में “मनिहारों का रास्ता” वो जगह है जहां चूड़ी बनाने वाला मनिहार समुदाय रहता है जो लाख से सुंदर चूड़ियां बनाता है। लाख से चूड़ियां बनाने की कला को जयपुर के शाही राज घराने का संरक्षण प्राप्त था। आज ये चूड़ियां शहर की शानदार हस्तकला का नमूना मानी जाती हैं।
लाख और उसकी चूड़ियों का इतिहास
इस कला के इतिहास को समझने के पहले हमें इसमें इस्तेमाल होने वाले मूल पदार्थ -लाख को समझना होगा। लाख दरअसल कीटों से उत्पन्न होने वाली राल है। ये कीट पेड़ों पर रह कर उनसे अपना भोजन लेते हैं। इनकी राल एक ऐसा प्राकृतिक उत्पाद है जिसका प्रयोग भोजन, फ़र्नीचर, कॉस्मैटिक और औषधीय उद्योग में बहुत होता है। केरिया लक्का अथवा लाख कीट को लाख के उत्पादन के लिये पाला जाता है। भारत में केरिया लक्का नामक कीट ढ़ाक, बेर और कुसुम जैसे पेड़ों पर पलते हैं।
भारत में लाख का इतिहास बहुत पुराना है। दिलचस्प बात ये है कि इसका ज़िक्र वेद, महाभारत और शिव पुराण जैसे प्राचीन ग्रंथों में भी मिलता है। वेदों में इसका उल्लेख लक्ष तरु या लाख के पेड़ के नाम से मिलता है। अथर्व वेद में लाख के कीट, उसके प्राकृतिक वास और उसकी उपयोगिता का वर्णन है।
महाभारत की एक रोचक कथा के अनुसार कौरवों के राजा दुर्योधन ने एक वास्तुकार को ऐसा महल बनाने का आदेश दिया था जहां पांडवों को ख़त्म किया जा सके। वास्तुकार ने इस काम के लिये लाख का महल बनाया, जिसे लाखशागृह के नाम से जाना गया। लाख चूंकि तेज़ी से आग पकड़ लेता है इसलिये सोचा गया था कि महल में आग लगने के बाद पांडव बाहर नहीं निकल पाएंगे। लेकिन पांडवों को इस साजिश का पहले ही पता चल गया था और उनके लिये महल से बाहर निकलने का एक गुप्त मार्ग बना दिया गया था।
इसी तरह हिंदू पुराण में शिव और पार्वती के साथ भी एक रोचक लोक कथा जुड़ी हुई है जिससे लाख की चूड़ियों के महत्व के बारे में पता चलता है। कहा जाता है कि शिव और पार्वती के विवाह के दौरान पार्वती के लिये चूडियां बनाने के उद्देश्य से चूड़ियां बनाने वाला एक समुदाय बनाया गया जिसे लखेड़ा कहते थे। विवाह के अवसर पर शिव ने ये चूड़ियां उपहार के रुप में पार्वती को दीं। तभी से विवाहित महिलाओं या दुल्हनों में लाख की चूड़ियां पहनने का रिवाज़ शुरु हो गया।
जयपुर में लाख की चूड़ियां बनाने की कला उतनी ही पुरानी है जितना पुराना ये शहर है। महाराजा सवाई जय सिंह- द्वतीय सन 1727 में जब आमेर कोर्ट यहां लाये तब कछवाहा की नयी राजधानी के रुप में जयपुर शहर की स्थापना की गई थी। चूंकि जय सिंह सौंदर्य-प्रेमी और कला के संरक्षक थे, उन्होंने भारत के हर कोने और विदेश से शिल्पियों और दस्तकारों को यहां बुलवाया। वह इस नये शहर को व्यापार और वाणिज्य के एक केंद्र के रुप में विकसित करना चाहते थे।
शहर में कई दस्तकार आकर अपना काम धंधा करने लगे और इन्हीं में चूड़ियां बनाने वाला समुदाय भी था जिसे मनिहार कहते हैं। माना जाता है कि मनिहार शब्द संस्कृत के शब्द मणि से लिया गया है जिसका अर्थ होता मोती या क़ीमती नग। ये समुदाय उत्तर और मध्य भारत में राजस्थान, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में फैला हुआ है। इस समुदाय में ज़्यादातर मुसलमान हैं। इन्हें सौदागर या शीसगर नाम से भी जाना जाता है। कहा जाता है कि लाख का सबसे पहले उत्पादन उत्तर प्रदेश में हुआ था जहां मनिहारों ने पेड़ों से राल जमा की थी। स्थानीय लोक कथा के अनुसार महाराजा सवाईं जय सिंह-द्वतीय ने मनिहारों को उनकी कला के कारोबार के लिये आमेर बुलाया था। सन 1727 में जब राजधानी जयपुर शिफ्ट हो गई तो दस्तकार भी वहां चले गए और तभी से उनकी दस्तकारी आज तक ज़िंदा है।
जयपुर शहर की योजना कुछ इस तरह से बनाई गई थी कि बढ़ई, सुनार और कपड़े तथा अन्य कलाओं से जुड़े दस्तकारों के अलग अलग मोहल्ले हों। जयपुर के बाज़ारों में दस्तकारों का ये वर्गीकरण आज भी देखा जा सकता है। उदाहरण के लिये जोहरी बाज़ार आभूषणों और कपड़ों का बज़ार है। लाख की चूड़ियां बनाने वाले जिस गली में रहते हैं उन्हें मनिहारों का रास्ता कहते हैं।
मनिहार समुदाय के कुछ दस्तकारों का दावा है कि उनके वंश के तार ईरान से जुड़े हुए हैं। हमने मनिहारों का रास्ता में रहने वाले मोहम्मद शफ़ी से बात की। वह मनिहारों की 14वीं पीढ़ी से हैं। उन्होंने हमें इस कला के इतिहास और मनिहार समुदाय के बारे में बताया।
कुछ हस्तकलाएं ऐसी भी होती हैं, जो सिर्फ़ पुरुषों के लिये होती हैं। कुछ कलायें सिर्फ़ महिलाओं के लिये होती हैं। लेकिन लाख की चूड़ियां बनाने की कला में पुरूषों और महिलाओं दोनों की ज़रुरत होती है। पुरुष जहां छोटी भट्ठी और भाड़ में चूड़ियां बनाते हैं, वहीं महिलाएं इन्हें बेचती हैं और दुकान चलाती हैं। मनिहारों का रास्ता में आप दुकानों के नाम मनिहारिनों के नाम पर भी देख सकते हैं।
लाख की चूड़ियां बनाने की प्रक्रिया
मनिहारों का रास्ता में दाख़िल होते ही आपको लाख की चूड़ियों की पुरानी दुकानें नज़र आएंगी। ये संकरी गली लाख की महक से भरी रहती है। कुछ दुकानों के काउंटर पर आप पुरुषों को लाख पिघलाकर रंगीन चूड़ियां बनाते देख सकते हैं।अन्य हस्तकलाओं की तरह लाख की चूड़ियां बनाने की प्रक्रिया भी काफ़ी थका देने वाली होती है। ये बात ग़ौर करने लायक़ है कि आज भी लाख की चूड़ियां हाथों से ही बनाईं जाती हैं। आज भी सदियों पुरानी तकनीक का इस्तेमाल हो रहा है। उसे बदला नहीं गया है और पूरी प्रक्रिया में कहीं भी मशीन का प्रयोग नहीं होता है। वही पूराना बढ़िया हुनर और औज़ारों का इस्तेमाल होता है।
ये चूड़ियां बनाने की प्रक्रिया पेड़ों से लाख एकत्र करने से शुरु होती है। विश्व में लाख का उत्पादन सबसे ज़्यादा भारत में होता है। भारत में विश्व लाख की पूरी ज़रुरत का 60-70 फ़ीसद उत्पादन होता है। झारखंड, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश भारत में लाख के उत्पादन में सबसे आगे हैं।
केरिया लक्का नाम का कीट गहरे लाल रंग का राल बनाता है जिसे लाख कहते हैं। ये राल पेड़ों की शाखों पर बनती है जिन्हें बाद में खुरचकर निकाला जाता है। लाख वाली लंबी डंडियों से प्रोसेस के द्वारा लाख अलग किया जाता है। इसके बाद लाख कई प्रक्रियाओं से होकर गुज़रता है। इस प्रक्रिया से पैदा होने वाले उत्पाद को शलक लाख या चपड़ा कहते हैं।
ये दस्तकारों को छोटी सपाट डिस्क के रुप लाख मिलता है जिसे स्थानीय भाषा में चपड़ी या टिकली कहते हैं। ये मुख्यत: दो रंगो में होता है-गहरा लाल भूरा और नारंगी। ये चपड़ी लाख की चूड़ियों का प्रमुख घटक होती हैं। लाख को मुलायम बनाने के लिये बर्जा नामक राल को इसमें मिलाया जाता है। इस प्रक्रिया में एक और घटक पत्थर पाउडर होता है जिसे गिया पाउडर कहते हैं। शफी जी हमें बताते हैं कि पुराने दिनों में इस पाउडर की जगह रेत का प्रयोग किया जाता था।
मिश्रण बनाने के लिये पहले दस्तकार चपड़ी और राल बर्जा को एक बड़ी कढ़ाई में गर्म करते हैं। मिश्रण में आर्द्रता के लिये ज़रा पानी भी मिलाया जाता है। लाख पिघलाने के लिये इस मिश्रण को गर्म किया जाता है। फिर इसमें गिया पाउडर मिलाया जाता है। ये प्रक्रिया लाख का मोटा गोला बनने तक जारी रहती है। इसके बाद मिश्रण को चूल्हें से निकालकर अच्छी तरह गूंधा जाता है। गूंधने के बाद इसके रोल बनाये जाते हैं। फिर रोल को लकड़ी के एक डंडे जिसे हत्थी कहते हैं, पर लपेटा जाता है।
दस्तकार इस हत्थी का प्रयोग कोयले या फिर सिगड़ी पर लाख गर्म करने के लिये करते हैं। इस प्रक्रिया से लाख मुलायम हो जाता है और उसे कोई भी आकार दिया जा सकता है। हत्थी से समय समय पर लाख के रोल को तब तक घुमाया जाता है जब तक कि वह लंबा न हो जाए। इसके बाद हत्था नाम के औज़ार के प्रयोग से लाख को आकार दिया जाता है। लाख में रंग मिलाने के लिये रंगीन लाख के ब्लॉक का प्रयोग किया जाता है। इन ब्लॉक्स का इस्तेमाल बाज़ार में उपलब्ध रंगो को लाख में मिलाकर किया जाता है। ये ब्लॉक्स डंडों से भी जुड़े रहते हैं। इन्हें कोयले पर गर्म कर लाख के ऊपर लगाया जाता है। तरह तरह के रंगों और शैलियों को मिलाकर तरह तरह की डिज़ाइन तैयार की जाती हैं।
चूड़ी बनाने के लिये रंगीन रोल को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटा जाता है और फिर से उन्हें रोल कर दिया जाता है। खांचे वाले लकड़ी के औज़ार खली से फिर रंगीन छोटे हिस्से को दबाया जाता है। इस प्रक्रिया से लाख एक संकरे खांचे का रुप ले लेता है। इसके बाद इसका लूप तैयार किया जाता है। इसे कोयले पर एक बार फिर गर्म किया जाता है। दस्तकार लाख की तैयार चूड़ी को सही साइज़ और आकार देने के लिये उसे लकड़ी की खराद पर चढ़ाते हैं। इसे चमकाने के लिये मुलायम कपड़ों से रगड़ा जाता है। इन तमाम प्रक्रियाओं के बाद लाख की रंगीन चूड़ी बन जाती है और पहनने वाली की कलाई की शोभा बढ़ाने के लिए तैयार हो जाती है।
इन चूड़ियों के विभिन्न प्रकार और डिज़ाइन होते हैं। एक चूड़ी बनाने में कितना समय लगेगा वह इस बात पर निर्भर करता है कि चूड़ी किस प्रकार की होगी और उस पर सजावट कैसी होगी। औसतन बारह चूड़ियां बनाने में छह से सात घंटे लग जाते हैं। कुछ रंगीन चूड़िया साधारण होती हैं जबकि कुछ अलंकृत होती हैं। चूड़ियों की सज्जा में छोटे क़ीमती नग और कांच के टुकड़े इस्तेमाल किये जाते हैं। चूड़ी पर महीन साजसज्जा सुई से की जाती है। लाख की सादी चूड़ी का जोड़ा पचास रुपये का मिलता है जबकि बहुत ज़्यादा अलंकृत चूड़ियों के जोड़ियों की क़ीमत तो तीन से लेकर चार हज़ार रुपये तक होती है।
जयपुर की लाख की चूड़ियों ने कला और शिल्प की दुनिया में अपनी एक अलग पहचान बना ली है। जयपुर में हर साल भारी संख्या में सैलानी और यात्री आते हैं। इनमें से कई लोग इन चूड़ियों को देखकर मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। दस्तकारों के अनुसार इन चूड़ियों की ख़ासियत इनमें इस्तेमाल होने वाले कच्चे माल की शुद्धता है। लाख एक प्राकृतिक पदार्थ है और लाख की चूड़ी बनाने में कोई कैमिकल इस्तेमाल नहीं होता। दूसरी तरह की चूड़ियां पहनने पर जहां त्वचा पर खुजली या ख़ारिश हो जाती है, वहीं लाख की चूड़ियों के साथ ऐसी कोई समस्या नहीं होती। तीज और गंगौर जैसे स्थानीय त्यौहारों के दौरान लाख की चूड़ियों की बिक्री बढ़ जाती है। वसंत के दौरान त्यौहारों पर ख़ासकर लहरिया चूड़ियां बहुत बिकती हैं। लहरिया शब्द का इस्तेमाल स्थानीय कपड़ो की बंधेज रंगाई के लिये भी किया जाता है जिनका अपने विशिष्ठ पैटर्न होते हैं। दस्तकार शफ़ी जी का कहना है कि लहरिया की चूड़ियों में भी कई प्रकार होते हैं जैसे जोधपुरी, जयपुरी और मारवाड़ी।
चूड़ियां एक विवाहित महिला या दुल्हन के ज़ेवरों का एक अहम हिस्सा होती हैं। शादी ब्याह के अवसरों के लिये विशेष चूड़ियां बनाईं जाती हैं। परिधान से मैच करने वाली चूड़ियां भी तैयार की जाती हैं। चूड़ियां बनाने के अलावा लाख का और भी कई चीज़े बनाने में इस्तेमाल होता है। इसका इस्तेमाल सजावट के सामान, पैंटिंग, घर के सामान, पैन, डायरी बनाने में भी होता है। इसके अलावा कान की बालियां और खिलौने बनाने में भी इसका प्रयोग होता है। दस्तकार शफ़ी जी हमें बताते हैं कि उनके दादा ने एक बार लाख का ताज महल बनाया था। वह आगरा गए थे और वहां ताज महल देखकर इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने लाख का ताज महल बनाने की ठान ली। इसे बनाने में उन्हें सात से आठ महीने लगे। ये ताज महल उन्होंने राजस्थान के निवर्तमान मुख्यमंत्री मोहनलाल सुखाड़िया को उपहार में दिया था। शफ़ीजी कहते हैं कि ये मॉडल आज भी दिल्ली के एक संग्रहालय में रखा हुआ है।
दूसरी स्वदेशी कलाओं की तरह इस कला पर अनिश्चितिता के बादल मंडरा रहे हैं। लाख की चूड़ियों की लोकप्रियता के बावजूद मनिहार समुदाय कई तरह की समस्याओं से जूझ रहा है। नयी पीढ़ी को ये काम फ़ायदेमंद नहीं लगता और वह इसे अपना पेशा नहीं बनाना चाहती। कांच की चूड़ियों से भी इस कला को ख़तरा है। मॉल और शॉपिंग सेंटर की वजह से इनके ग्राहकों की संख्या भी कम हो गई है।
बाज़ार में ठंडे लाख की चूड़ियां आ गईं हैं जिससे लाख की मौलिक चूड़ियों की बिक्री पर असर पड़ा है। ठंडे लाख में संगमरमर का चूरा और एपोक्सी राल मिलाई जाती है। इससे न सिर्फ़ चूड़ियां जल्दी नहीं टूटती बल्कि इससे कई तरह के डिज़ाइन भी बन जाते हैं। पारंपरिक दस्तकार ठंडा लाख इस्तमाल नहीं करते हैं। वह ठंडे लाख को अशुद्ध लाख मानते हैं ।
इन दस्तकारों के लिये पर्यावरण की बिगड़ती स्थिति भी एक समस्या है। लाख बनाने का पदार्थ पेड़ों से मिलता है लेकिन पेड़ों की कटाई और पर्यावरण में हो रहे बदलाव का लाख का उत्पादन पर असर पड़ा है। इसकी वजह से कच्चा माल भी महंगा हो गया है। इन तमाम परिस्थितियों ने इन दस्तकारों का जीवन कठिन बना दिया है।
चूड़ी बनाने की कला पीढ़ी दर पीढ़ी चलती आई है जिसे अब और मान्यता की ज़रुरत है। इसे बनाने के बेशक़ीमती हुनर और ज्ञान को सुरक्षित रखना बहुत ज़रुरी है। मनिहारों ने चूड़ियां बनाने की सदियों पुरानी विरासत को संजो कर रखा है लेकिन अब समय आ गया है कि हम भी इस विरासत की एहमियत को समझें और इसे बचाने के बारे में कुछ करें।
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