राजस्थान का शहर जोधपुर भव्य मेहरानगढ़ क़िले और आलीशान उमैद भवन के लिए जाना जाता है लेकिन इस बात की जानकारी कुछ लोगों को ही होगी कि शहर की सरहद पर मंडोर है जो मारवाड़ राज्य की पहली राजधानी था। यहां सदियों पुराने उत्कृष्ट स्मारक भी हैं। मध्यकालीन युग में मारवाड़ तब सुर्ख़ियों में आया जब मारवाड़ साम्राज स्थापित हुआ था लेकिन काफ़ी लोगों को ये नहीं पता कि मारवाड़ के इतिहास के तार गुप्तकाल से जुड़े हुए हैं।
माना जाता है कि मंडोर शहर का वजूद गुप्तकाल तक ज़िंदा था। कहा जाता है कि मंडोर का नाम हिंदू साधु मांडवा के नाम पर रखा गया था। प्राचीन समय में इसे मंदोदरा, मंदोवर और मंडवपुर-दुर्ग के नाम से जाना जाता था। मंडोर में और इसके आसपास खुदाई में चौथी ईस्वी के शिला-लेख और 5वीं ईस्वी के स्तंभ मिले हैं जिनपर कृष्ण लीला के दृश्य अंकित हैं।
गुर्जर प्रतिहार वंश की शाखा मंडोर प्रतिहार वंश ने छठी शताब्दी ईस्वी में एक छोटा सा साम्राज स्थापित किया था। छठी शताब्दी में मंडोर प्रतिहार शासक राजीइला ने प्राचीरें बनवाई थीं जिसने बाद में जूनागढ़ क़िले का रुप लिया। मंडोर के राजाओं ने यहां कुछ अद्भुत हिंदू और जैन मंदिर भी बनवाये थे।
इस बीच प्रतिहार वंश का पतन शुरु हो गया था और मंडोर पर दिल्ली से हमले हो रहे थे। आख़िरकार ख़िलजीवंश ने मंडोर पर कब्ज़ा कर लिया और वहां उनका शासन सन 1292 से लेकर सन 1395 तक रहा। इस बीच हिंदू शासकों ने ख़ुद को बचाने के लिए राठोड़ वंश से हाथ मिला लिए। मंडोर के शासक ने सन 1395 में मेवाड़ के राव चुंडा से अपनी बेटी की शादी करवा दी और इस तरह मंडोर और राठोड़ में दोस्ती हो गई । प्रतिहार ने, दहेज़ में मंडोर का जूनागढ़ क़िला दे दिया। जूनागढ़ मारवाड़ राठौड़ की राजधानी बन गया और सन 1495 में जोधपुर बनने तक राजधानी रहा । जोधपुर राव जोधा ने बनवाया था।
मंडोर पर दिल्ली सहित अन्य सल्तनतें अक्सर हमले करती रहती थीं और इसलिए किसी सुरक्षित जगह राजधानी बनाने का फ़ैसला किया गया। इसके लिए मंडोर से नौ कि.मी. दूर एक पहाड़ पर जगह चुनी गई जहां राव जोधा और उनके उत्तराधिकारियों ने मेहरानगढ़ बनाया। जूनागढ़ जोधपुर का केंद्र था। समय के साथ लोग मंडोर छोड़कर जोधपुर में बसने लगे।
छोटी पहाड़ी की चोटी पर प्राचीन जूनागढ़ क़िले की कुछ दीवारें अभी भी मौजूद हैं हालंकि समय के साथ ज़्यादातर दीवारें ध्वस्त हो चुकी हैं। अब मंडोर और इसके आसपास का इलाक़ा भारतीय पुरातत्व विभाग की देखरेख में है। मंडोर हालंकि बहुत कम समय के लिए राठौड़ वंश की राजधानी रहा लेकिन ये काफ़ी लंबे समय तक अध्यात्म का केंद्र रहा था। यहां कई महत्वपूर्ण हिंदू मंदिर हैं जो आज भी मौजूद हैं लेकिन ये फिर भी शाही स्मारकों के लिए प्रसिद्ध है।
इन स्मारकों को देवल या छतरी भी कहा जाता है। ये दिवंगत राजाओं की याद में बनवाईं गईं थीं। इन्हें हिंदू मंदिरों की तर्ज़ पर बनवाया गया था। पहली छतरीराव उदय सिंह ने सन 1583 में उनके पिता राव मलदेव की स्मृति में बनवाई थी। ये देवल या छतरियां नग्गर अथवा उत्तर भारतीय मंदिरों की वास्तुकला के अनुसार बनवाईं गईं थी। इनके निर्माण में स्थानीय रंगीन पत्थरों का इस्तेमाल किया गया है। मंडोर में ज़्यादातर राठौड़ राजाओं और उनकी पत्नियों की छतरियां देखी जा सकती हैं। जिन जगह स्मारक हैं उन्हें मंडोर गार्डन के नाम से जाना जाता है। गार्डन में स्थानीय लोगों को चहल क़दमी करते और बंदरों को उछलकूद मचाते देखा जा सकता है।
मंडोर के बारे में एक अन्य दिलचस्प बात ये है कि इसका संबंध रावण की पत्नी मंदोदरी से भी है और इसीलिए शायद इसे रावण का ससुराल भी माना जाता है।
यहां एक मंदिर है जो रावण को समर्पित है। रावण को कुछ स्थानीय समुदाय अपना दामाद मानते हैं।
लेकिन ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ़ मंडोर में ही जोधपुर मारवाड़ के शाही स्मारक हैं। मेहरानगढ़ क़िले के पास जोधपुर के मध्य में जसवंत थड़ा है जो सफ़ेद संगमरमर का एक स्मारक है। इसे सन 1899 में जोधपुर के महाराजा जसवंत सिंह जी द्वितीय(1888-1895) की याद में उनके उत्तराधिकारी महाराजा सरदार सिंह जी ने बनवाया था। भव्य जसवंत थड़ा भवन में जसवंत सिंह और उनके बाद के शासकों के स्मारक हैं।
जसवंत थड़ा की ख़ासियत यह है कि इसके निर्माण में सफ़ेद संगमरमर का उपयोगद किया गया है। जबकि जोधपुर में अमूमन भवनों के निर्माण में लाल या धुंधले काले रंग के बालू पत्थर का इस्तेमाल होता है। सफ़ेद रंग की वजह से जसवंत थड़ा अलग ही नज़र आता है और इसीलिए इसे मारवाड़ का ताज महल कहा जाता है।
एक प्रचलित कथा के अनुसार जसवंत सिंह के पास अपचार करने की शक्ति थी जिसकी वजह से लोग उनकी पूजा किया करते थे। इसीलिए उनका स्मारक मेरानगढ़ क़िले के पास बनवाया गया था। एक अन्य कथा के मुताबिक़ जसवंत सिंह ने अपना अधिकतर जीवन मेहरानगढ़ से दूर बिताया था इसलिए वह चाहते थे कि उनका स्मारक मेहरानगढ़ के पास ही बने। सच्चाई जो भी हो लेकिन ये स्मारक है बेहद ख़ूबसूरत।
बहरहाल, ये दो स्मारक हमें मारवाड़ के राठौड़ ख़ानदान के वंशजों की दिलचस्प कहानियां सुनाते हैं और इसीलिए यह जगह देखने योग्य है।
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