कपड़े के एक हिस्से को धागे से ऐसे बांधें कि कपड़े का बाक़ी हिस्सा ढ़का रहे। अब इसे रंग से भरे बर्तन में डुबोइये और तैयार हो गई राजस्थान की प्रसिद्ध बंधेज और गुजरात की बंधनी डिज़ाइन। किसी कपड़े को रंगने के इस तरीक़ो संभवत: विश्व की सबसे पुरानी तकनीक माना जा सकता है। इस तरीक़े को टाई और डाई भी कहते हैं यानी बांधे और रंगे। लेकिन इकत तकनीक अपने आप में अनूठी है और इस तकनीक को एक कदम आगे ले जाती है। इकत तकनीक में धागे को बांधकर रंगा जाता है। ज़ाहिर है ये तकनीक ज़रा जटिल होती है।
इकत की जड़ें भारत में बहुत गहरी हैं लेकिन आपको ताज्जुब होगा कि इकत नाम इंडोनेशिया की भाषा का शब्द है और इकत तकनीक भारत से इंडोनेशिया गई थी। इंडोनेशिया और जावा की मूल भाषा में इकत का अर्थ धागा, बांधना इत्यादि होता है।
इकत का इतिहास
भारत में इकत परंपरा सैकड़ों सदियों पुरानी है। पंद्रह सौ साल से भी ज़्यादा पुरानी अजन्ता की गुफाओं के भित्ती चित्रों में इसका संदर्भ मिलता है। भारतीय उपमहाद्वीप में भित्ती चित्रों में इस जटिल कला को देखा जा सकता है। भारतीय कपड़ों की विशेषज्ञ और इतिहासकार डॉ लोतिका वर्दराजन बताती हैं कि अजन्ता के भित्ती चित्रों में भारतीय कपड़ों की शैलियां देखी जा सकती हैं। इनमें बंधनी, इकत और अन्य शैलियां शामिल हैं। डॉ वर्दराजन के अनुसार समय के साथ इकत की डिज़ाइनों में भी इज़ाफ़ा होता रहा जिसे आंध्रप्रदेश में लपक्षी मंदिर वीरभद्रस्वामी में देखा जा सकता है।
इतिहासकार अर्चना राय का कहना है कि गुजरात के इकत का संदर्भ बौद्ध ग्रंथ ललिताविस्त्र सूत्र में मिलता है। ये ग्रंथ तीसरी शताब्दी में लिखा गया था और इसमें विचित्र पटोलका नाम के कपड़े का ज़िक्र है। राय के अनुसार 12वीं शताब्दी में लिखे सोमेश्वर के मानसोल्लास में भी टाई एण्ड डाई तकनीक से रंगे गये कपड़ों का भी उल्लेख है। मानसोल्लास में वर्णित कपड़े विचित्रानी पट्टासूत्र और नानायार्न विचित्रानी को राय पटोला की क़िस्में मानती हैं।
माना जाता है कि भारत के इंडोनेशिया और जावा के साथ सदियों पहले व्यापारिक संबंध थे। व्यापारिक संबंधों की वजह से भारत से पारंपरिक कपड़ों की भी कई क़िस्में इंडोनेशिया भेजी गईं थीं। ज़्यादातर विद्वानों का मानना है कि इकत कपड़ा पहली बार भारत से बाहर 12वीं शताब्दी में गया था और फिर 17वीं तथा 18वीं शताब्दी आते आते इसका व्यापार बहुत बढ़ गया। दक्षिणपूर्व एशिया में इकत का कपड़ा दुल्हनों के लिए खासकर लाया जाता था और इस तरह वहां भी इकत बुनकर केंद्र बन गए।
अमेरिका के स्वदेशी समुदायों में भी इकत देखा जा सकता है जिससे लगता है कि इकत तकनीक वहां अपने आप विकसित हुई होगी। इकत पश्चिम एशिया के देश जैसे यमन और मध्य एशिया के देश जैसे उज़्बेकिस्तान में भी पाया गया है। इन देशों के इकत पर भारत के इकत का प्रभाव हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता।
आज भारत में इकत के तीन प्रमुख केंद्र गुजरात, उड़ीसा और तेलंगाना हैं। इन तीनों ही केंद्रों की अपनी अपनी तकनीक और शैली है।
इकत कैसे बनता है
ताना और बाना शब्दों से हम सब परिचित हैं लेकिन कम लोग ही इसका अर्थ जानते हैं। ये दरअसल बुनाई करते हुए धागों के नाम हैं। जो धागा करधे पर लगाया जाता है उसे ताना कहते हैं और जो धागा करधे के आरपार जाता है उसे बाना कहते हैं।
इकत कला एक तरह से सूक्ष्म विज्ञान है। इस जटिल कला में काफ़ी जोड़तोड़ करना पड़ता है और डिज़ाइन पहले काग़ज़ पर उतारी जाती है। इसके बाद डिज़ाइन को धागों में उतारा जाता है और फिर डिज़ाइन के अनुसार धागों को रंगा जाता है। इसके बाद धागे को करधे पर चढ़ाकर बुना जाता है और इकट को तैयार किया जाता है।
कपड़े को रंगने के लिए पारंपरिक रुप से वनस्पति और खनिज पदार्थों से बनाए गए रंगों का इस्तेमाल किया झाता था। रंगाई में नील के पौधे से बने गहरे नीले रंग और मजीठ से बने गहरे लाला रंग का प्रयोग होता था लेकिन अब कई बुनकर कैमिकल रंगों का इस्तेमाल करने लगे हैं। इकत दो तरह के होते है: सिंग्ल इकत और डबल इकत। डबल इकत में ताना और बाना दोनों धागों को रंगा जाता है जबकि सिंग्ल इकत में सिर्फ़ ताना रंगा जाता है। डबल इकत सिर्फ़ भारत, जापान और इंडोनेशिया में ही बनाई जाती है।
इकत का संबंध गणित से भी बताया जाता है। वाशिंग्टन के टेक्सटाइल म्यूजियम की रिसर्चर कैरोल बिअर का कहना है कि गणित संबंधी ज्ञान भारत से पश्चिम एशिया और यूरोप पहुंचाने में इकत की भूमिका हो सकती है। बिअर के अनुसार फ़ीतों के पैटर्न, धारियों और रंगो के वर्गीकरण के लिए गणित का आना ज़रुरी है।
भारतीय कला और शिल्प पर ‘Handmade in India’ नाम की किताब में लेखक एम.पी. रंजन और अदिति रंजन ने भारत में कई प्रकार के इकत के बारे में बताया है और ये भी बताया है कि कैसे इनका विकास हुआ। अलग अलग जगहों में इकत के अलग अलग नाम हैं जैसे उड़ीसा में इसे बंधा कहा जाता है जबकि गुजरात में ये पटोला नाम से जाना जाता है। इसी तरह आंध्रप्रदेश में इसे पगाडु बंधु कहते हैं।
गुजरात का पटोला
गुजरात में बनने वाला पटोला भारत में सबसे मशहूर इकत है। पारम्परिक तौर से पटोला राजकोट और पाटन में बुना जाता है। लेकिन पाटन के सिल्क का पटोला ख़ास है क्योंकि ये डबल इकत शैली में होता है। पाटन की रानी की वाव की शिल्पकारी में भी पटोला कपड़े के नमूने देखे जा सकते हैं।
पाटन का पटोला साल्वी समुदाय बुनता है जो महाराष्ट्र और कर्नाटक से यहां आए थे। किवदंतियों के अनुसार 12वीं शताब्दी में सोलंकी सम्राट कुमारपाला ने पूजा के लिए सिल्क का ख़ास कपड़ा बनवाने के लिए जालना से साल्वी समुदाय के बुनकरों को बुलवाया था। कहा जाता है कि राजा ये कपड़ा सिर्फ़ एक बार पहनता था फिर उसे दान कर दिया जाता था या फिर बेच दिया जाता था।
पाटन पटोला ज्यामितीय पैटर्न, फूलों का रूपांकन और सुंदर डिज़ाइन के लिए जाना जाता है। डबल इकत वाली पटोला साड़ी बनाने में बहुत समय भी लगता है और यह एक बहुत मेहनत का काम है। इस साड़ी को बनाने के 25 चरण तक हो सकते हैं जो की रंगों की संख्या पर निर्भर करता हैं।एक साड़ी बनाने में एक साल भी लग सकता है और ये बहुत महंगी भी होती है। कभी कभी तो धागों को रंगने में ही 75 दिन तक लग जाते हैं।
पाटन में आज २-३ परिवारो ने ही पटोला की परम्परा को संभलके रखा है और उन्होंने पाटन शैहर में एक छोटा सा म्यूजियम भी बनाया है | यह परिवार ज़्यादातर आर्डर मिलने पर ही पटोला की बुनाई करते है|
पाटन पटोला का करधा शीशम का बना होता है और तीलियां बांस की होती हैं।
तेलंगाना का पागाडु बंधु
तेलंगाना में इकट को पागाडु बंधु के नाम से जाना जाता है और इसमें में सबसे ज़्यादा प्रसिद्ध है तेलिया रुमाल। इसकी बुनाई तेलंगाना के नलगोंडा और प्रकाशम ज़िले में होती है। तोलिया रुमाल को तेलिया रुमाल इसलिये कहा जाता है क्योंकि रंगने के पहले धागे को मुलायम करने के लिये तेल का प्रयोग किया जाता है और इसका आकार भी रुमाल जैसा चौकोर होता है। यहां तोलिया दुपट्टा भी बनता है जिसे मुस्लिम महिलाएं नक़ाब और पुरुष लुंगी की तरह इस्तेमाल करते हैं। तेलिया दुपट्टा अमूमन लाल रंग का होता है और इस पर काली और सफ़ेद रंग का चौकोर डिज़ाइन होते हैं।
तेलंगाना में बनने वाले कपड़े को स्थानीय मछुआरे लुंगी की तरह इस्तेमाल करते हैं। 18वीं और 19वीं शताब्दी में इसका अरब देशों और बर्मा तथा अफ़्रीक़ा में ख़ूब निर्यात होता था।
इस क्षेत्र के गांवों ने इसे बनाने की अपनी ख़ुद की शैली विकसित की है। पोचापल्ली गांव में सिल्क की साड़ियां बनाई जाती हैं, पुट्टापका में कॉटन और सिल्क की बेहतरीन साड़ियां बनती हैं और गटुप्पल, चौटुपल तथा कोयलागुडम गांवों में बनने वाला कॉटन और सिल्क सजावट तथा शर्ट बनाने में इस्तेमाल होता है।
इकत में ज्यामितीय डिज़ाइन, पट्टियां और बहुरंगी पैटर्न आम है। तेलंगाना की इकत परंपरा काफी चमकीली होती है और इसे बनाने में पूरा परिवार शामिल होता है| बुनकर डिज़ाइन और उद्देश्य में हर दिन बदलाव करते रहते है। तेलंगाना के बुनकर बहुत कल्पनाशील होते हैं और यही वजह है विश्व बाज़ार में इनकी बहुत मांग है। इनका सामान व्हाइट हाउस तक पहुंच चुका है।
उड़ीसा का बंधा
उड़ीसा में स्थानीय इकत शिल्प को बंधा कहा जाता है। इसका काम ख़ासकर संबलपुर ज़िले और कटक तथा बरगढ़ ज़िले के कुछ गांवों में होता है। उड़ीसा में सिंग्ल इकत की ही बुनाई होती है हालंकि सक्तापुर एक अपवाद है जहां डबल इकत की बुनाई होती है। सक्तापुर की डिज़ाइन पर चौपड़ के खेल का प्रभाव दिखता है। इसमें लाल और सफ़ेद के चौकोर डिज़ाइन बनी होती है और बाहरी लाइनें काले रंग की होती हैं।
उड़ीसा की इन इकत साड़ियों को संबंलपुर साड़ियां भी कहा जाता है। इन साड़ियों को तीज-त्यौहारों में पहना जाता है और इन पर समृद्धि के प्रतीक के रुप में बत्तख़, मछली, कमल, शंख, मंदिर, हाथी और हिरण बने होते हैं। इन प्रतीकों का संबंध स्थानीय परिवेश, शादी की रस्मो से और पूजा से होता है।
विश्व के विभिन्न हिस्सों में इकत के विकास से हमें हमारी कपड़ों की साज सजा की ज़रुरतों का भी पता चलता है।
इकत की कहानी दरअसल मानवीय सृजनात्मकता, देशानांतरण, व्यापार और ज्ञान के हस्तांतरण की कहानी है। और यह कहानी भारीतय कपडे के लुभाव की भी है|
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