हज़ूरी बाग की बारांदरी

लाहौर के शाही किले और शाही मस्जिद के दरमियान रणजीत बाग में स्थित हज़ूरी बाग की संगमरमरी बारांदरी जहां शेरे-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह के आखिरी दरबार की साक्षी है, वहीं यह बारांदरी महाराजा की अंग्रेज़ शासकों तथा सिख जरनैलों से हुई महत्वपूर्ण सभायों की भी चश्मदीद गवाह है। शेरे-पंजाब के देहांत के बाद उनका पार्थिव शरीर भी प्रजा के लिए अंतिम दर्शनों हेतु यहीं रखा गया था।

मौजूदा समय उक्त बारांदरी चारों ओर से मुगलकालीन तथा सिख धरोहरों से घिरी हुई है। इसके एक ओर लाहौर का शाही किला है तो दूसरी ओर शाही मस्जिद। इसके पिछली ओर महाराजा तथा उनके सुपुत्रों की समाधियां और गुरूद्वारा डेहरा साहिब स्थापित हैं, तो इससे कुछ कदमों की दूरी पर महाराजा के आध्यात्मिक मार्गदर्षक भाई बसती राम की अंतिम यादगार तथा अन्य कई स्मारक मौजूद हैं।

सन् 1813 में शाह सूज़ा से कोहनूर हीरा प्राप्त करने की खुशी में महाराजा ने शाही महल और शाही मस्जिद के मध्य खाली पड़े मैदान पर खूबसूरत बाग लगवाने का विचार बनाया। कन्हैया लाल ‘तवारीख-ए-पंजाब’ के पृष्ठ 216 पर लिखते हैं कि महाराजा ने फकीर अज़ीज़ूद्दीन को आदेश दिया कि शाही महल और शाही मस्जिद के मध्य खूबसूरत बाग लगवाकर उसका नाम हजूरी बाग रखा जाए।

इस मौके पर वहां मौजूद महाराजा की ड्योढी के जमांदार खुशहाल सिंह ने महाराजा से विनती की कि अगर बाग के मध्य संगमरमर की बारांदरी भी बनवा दी जाए तो इस से बाग की शान में चार चांद लग जाएंगे। महाराजा ने कहा कि पत्थर मंगवाना बहुत मुश्किल है। इस पर जमांदार ने उत्तर दिया कि लाहौर के आस-पास बहुत सारे संगमरमर के मकबरे बने हुए हैं; वहां से पत्थर उखड़वाकर बारांदरी पर लगाया जा सकता है। इसके बाद जेबुनिसा बेगम के मकबरे, नूरजहां बेगम, नवाब आसफ खान तथा जहांगीर के मकबरे से संगमरमर उखड़वा कर बारांदरी का निर्माण करवा दिया गया।

बाग तथा डेढ मंज़िली बारांदरी का निर्माण पांच वर्ष के अंतराल में सन् 1818 में सम्पूर्ण हुआ। सफेद संगमरमर से बनी यह बारांदरी संगमरमर के 16 मजबूत मीनाकारी किए स्तंभों पर टिकी हुई है। बारांदरी की छत पर फूलों, फलों, पक्षियों आदि के चित्रों सहित शीशे का बारीकी से बहुत सुंदर सजावटी काम किया गया है। महाराजा अक्सर फुर्सत के पलों में इस बारांदरी में समय व्यतीत करने के लिए चले आते। यहीं पर उन्होंने राज्य के संबंध में अपने जरनैलों व अंग्रेज़ शासकों सहित कई महत्वपूर्ण सभाएं कीं।

अप्रैल-मई 1836 में महाराजा को सख्त बुखार आने से उनका स्वास्थ्य लगातार बिगड़ने लगा। किसी दवा का असर न होता देख 9 जेष्ठ 1896 को हजूरी बाग की बारांदरी में महाराजा की ओर से सब सरदारों, फौज के अधिकारियों तथा राज्य के प्रमुख जागीरदारों को एकत्रित होने का हुक्म भेजा गया। नियत दिन पर जब सारे दरबारी उक्त दरबार में पहुँच गए, तो शेरे-पंजाब एक स्वर्ण पालकी में वहां पहुँचे। बुखार के कारण वे इतने कमजोर हो चुके थे कि कुर्सी पर बैठने की भी स्थिति में नहीं थे, इसलिए वे पालकी में तकिए की ढाह लगाकर बैठे रहे। उनके वहां पहुँचने पर किले में से 101 तोपों की सलामी दी गई और साथ ही सब अहलकारों ने खड़े होकर फतह बुलाई। परन्तु महाराजा इसके जवाब में खड़े होकर उनका अभिवादन स्वीकार करने तक की स्थिति में भी नहीं थे और वे पालकी में चुप-चाप लेटे रहे।

काफी समय तक माहौल में चुप्पी छाई रही। फिर महाराजा ने बहुत ही धीमी आवाज़ में कुछ कहना शुरू किया। आवाज़ अति धीमी होने के कारण महाराजा जो बोल रहे थे या फिर बोलना चाह रहे थे; फकीर अज़ीज़ूद्दीन ने उस सबका अनुवाद कर बोलना शुरू किया-”बहादुर खालसा जी, खालसा राज्य के निर्माण के लिए जो आपने अन्थक प्रयास किए हैं या रक्त बहाया है, वह असफल नहीं गया। इस समय अपने चारों ओर जो देख रहे हो, यह सब आपकी कुर्बानी तथा सेवायों का फल है। मैंने गुरू साहिबान तथा आप के भरोसे एक साधारण गांव से उठकर करीब सारे पंजाब पर तथा इस के बाहर अफ्गानिस्तान, कश्मीर, तिब्बत तथा सिंध तक सिख राज्य स्थापित कर दिया है। सांसों पर कोई भरोसा नहीं, परन्तु अगर मेरा अंत नज़दीक ही है, तो इस पर पक्के तौर पर विश्वास करें कि मैं आप सब से खुशी-खुशी विदा होऊँगा। मैं इस समय आप सब को महाराजा खड़क सिंह के हाथ सौंपता हूँ। आप इन्हें मेरे समान ही मानना और ये हमेशा आपकी भलाई के लिए इच्छुक रहेंगे।”

महाराजा इतना कहने के बाद खामोश हो गए। राज्य-दरबार की सारी ज़िम्मेदारियां महाराजा खड़क सिंह को सौंपी गईं। इसी बारांदरी के स्थान पर महाराजा ने अपने हाथ से महाराजा खड़क सिंह को राज-तिलक किया और राजा ध्यान सिंह को प्रधानमंत्री की पोशाक पहनवाई। ध्यान सिंह को सिख राज्य का नायब, प्रधानमंत्री, मुख्य प्रबंधक तथा मुख्तयार-कुल आदि खिताब बख़्शे गए और इस सारी कार्रवाई की लिखित जानकारी विज्ञापन के रूप में मुल्तान, पेशावर, कश्मीर तथा सिंध आदि क्षेत्रों में भेजी गई।

यह महाराजा रणजीत सिंह के नेतृत्व में सिख राज्य का आखिरी दरबार था, जो हजूरी बाग की बारांदरी के मुकाम पर शेरे-पंजाब द्वारा महाराजा खड़क सिंह को राज्य की सब ज़िम्मेदारियां सौंपे जाने के बाद समाप्त हो गया। इसके बाद पुनः जब महाराजा रणजीत सिंह इस हजूरी बाग की बारांदरी के स्थान पर लाए गए तो वे इस संसार से हमेशा के लिए रूख़्सत हो चुके थे। उनके देहांत के अगले दिन 28 जून 1839 को इसी बारांदरी के स्थान पर प्रजा के अंतिम दर्शनों के लिए उनका पार्थिव शरीर रखा गया और बाद में इसी बारांदरी के पश्चिमी दरवाजे़ से होते हुई अगले दिन उनकी अर्थी दरिया रावी के किनारे अंतिम संस्कार के लिए ले जाई गई।

लैफ्टीनैंट विलियम बार ने हजूरी बाग की बारांदरी मार्च 1839 में, मूर क्राफ्ट ने मई 1820, अलैग्जे़ंडर बारनस ने जुलाई 1831, कैप्टन वोन आरलिच ने जनवरी 1843 में देखी और इस के संबंध में विस्तार से लिखा। ब्रिटिश राज्य के दौरान हर सायं इस बारांदरी के स्थान पर अंग्रेज़ अधिकारी एकत्रित होते थे और अंग्रेज़ी बैंड यहां आने वाले लोगों का मनोरंजन करता था। 19 जुलाई 1932 को बारांदरी की ऊपरी मंजिल भुकम्प का झटका लगने से गिर गई। बारांदरी का टूटा हुआ ढांचा लाहौर म्यूज़ियम में रख दिया गया, जो आज भी सुरक्षित है।

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