हमारे समाज में मक्खन खाने और मक्खन लगाने की परम्परा बहुत पुरानी है।आज से साठ साल पहले जब किसी की चापलूसी करने की बात आती है तो कहा जाता था, ‘थोड़ा पोल्सन लगाओ’ क्योंकि देश में मक्खन का व्यापार सबसे पहले पोल्सन कम्पनी ने ही किया था। कम्पनी का नाम इतना मशहूर हो गया था कि पोल्सन, मक्खन का पर्यायवाची शब्द बन गया था।वैसे ही जैसे एक ज़माने में वनस्पति घी डालडा के नाम से जाना जाता था। इसी तरह चालीस-पचास सालों से अमूल नाम हर एक ज़बान पर चढ़ा हुआ है।
अमूल बटर के बहुत पहले मुंबई और पश्चिमी भारत में बटर का मतलब पोल्सन बटर ही होता था। पोल्सन बटर पोल्सन डेयरी बनाया करती थी जिसकी शुरुआत पेस्तोनजी इडुलजी दलाल ने की थी जिन्हें उनके दोस्त पॉली नाम से बुलाया करते थे। पोल्सन डेयरी कंपनी, कॉफ़ी पैकेजिंग और वितरण के व्यवसाय से जुड़ी हुई थी।
अमूल के इतिहासकार रुथ हेरेडिया के अनुसार पेस्तोनजी 1910 में मक्खन बनाने के व्यवसाय में आए। उन्होंने गुजरात में कैड़ा गांव में मक्खन बनाने का अपना पहला कारख़ाना खोला। ये भारत में डेयरी उत्पाद बनाने वाली पहली कंपनी थी।
प्रथम-युद्ध के दौरान बनी पॉल्सन कंपनी के प्रमुख ग्राहक अंग्रेज़ और अमेरिकी सेना थी।
आणंद (गुजरात) में लगाए गए पोल्सन कारख़ाने में एक समय प्रतिदिन पांच टन मक्खन का उत्पादन होता था। पोल्सन की मांग इतनी बढ़ने लगी कि जल्द ही मुंबई में ऑफ़िस खोलना पड़ा। पोल्सन मक्खन मूलत: ख़मीरी मलाई से बनाया जाता था। उस समय मलाई रेल के द्वारा एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाई जाती था इसलिये उसका ख़मीर का होना ज़रुरी था वरना ये ख़राब हो सकती थी। रास्ते में मलाई को ख़राब होने से बचाने के लिए उसमें ख़ूब नमक मिलाया जाता था। दूसरे मक्खनों में ज़रुरत पड़ने पर ही नमक मिलाया जाता था।
1930 तक पोल्सन मक्खन बनाने वाली कम्पनी, एक आधुनिक कंपनी के रुप में स्थापित हो चुकी थी जो रोज़ाना 30 लाख टन मक्खन बनाती थी। 1945 तक दूध और मलाई एकत्र करने के मामले में पोल्सन का एकछत्र राज था और सरकार की भी उसको पूरी मदद मिल रही थी।
30 और 60 के दशक में कुशल विज्ञापन और मार्किटिंग की वजह से पोल्सन मक्खन का पर्याय बन गया और ख़ुद को बढ़ते बच्चों के लिए एक बेहतर उत्पाद के रुप में स्थापित कर लिया।
विज्ञापन और मार्किटिंग के मामले में पोल्सन अपनी प्रतिद्वंदी कंपनियों से कहीं आगे थी। ग्राहकों को बांधे रखने के लिए उन्होंने दिलचस्प प्रलोभन देने भी शुरु कर दिये थे। मक्खन की एक टिकिया ख़रीदने पर कुछ पाइंट मिला करते थे। पाइंट जमा होने पर मुफ़्त में मक्खन की एक टिकिया से लेकर फ़्रिज तक इनाम में मिल जाता था।
आधुनिकीकरण ही पोल्सन के पतन का कारण बना।
गुजरात के गांधीवादी त्रिभुवनदास पटेल अंग्रेज़ों द्वारा स्वीकृत कारख़ाने के एकाधिकार को देखकर दंग रह गए। तब उन्होंने पोल्सन के एकाधिकार को ख़त्म करने के लिए जन सहकारी आंदोलन शुरु करने का फ़ैसला किया। इसमें उनका साथ सरदार वल्लभभाई पटेल ने दिया। दुग्ध उत्पादक को पोल्सन द्वारा तय की गई क़ीमत पर ही दूध बेचना होता था जिससे सरदार पटेल नाराज़ थे। त्रिभुवनदास ने सहकारी संस्था को चलाने के लिए केरल से डेयरी इंजीनियर वर्गीज़ कूरियन को बुलवाया। वर्गीज़ मांसाहारी थे और शराब भी पीते थे लेकिन सहकारी आंदोलन से पहले उन्होंने ये सब छोड़ दिया ताकि गुजरात के पशुपालक उन्हें स्विकार लें। कुरियन ने ताज़े दूध/मलाई से मक्खन बनाने का फ़ैसला किया क्योंकि पोल्सन नमकीन मलाई से मक्खन बनाती थी। लेकिन कूरियन का मक्खन बाज़ार में ओंधे मुंह गिर गया। पोल्सन मक्खन के आदी लोगों को ये मक्खन फीका और बदमज़ा लगा । मक्खन के शौक़ीनों की इस प्रतिक्रिया से कूरियन अवाक रह गए। उन्हें तो लगा था कि वह लोगों को बेहतर मक्खन दे रहे हैं। कूरियन ने एक बार फिर अपने उत्पाद पर विचार किया और अपने मक्खन में डाई एसीटील मिलाने के बारे में सोचा। डाई एसीटील ख़मीरी मलाई से निकलता है। इसके बाद उन्होंने मक्खन में थोड़ा नमक मिलाया और इसका रंग ज़रा पीला कर दिया।
कूरियन भैंस का दूध इस्तेमाल कर रहे थे जबकि पोल्सन कम्पनी गाय के दूध का इस्तेमाल कर रही थी जिसका स्वाभाविक रंग पीला होता है
कूरियन का नया प्रयोग लोगों को भा गया और लोगों की ज़बान पर अमूल बटर लग गया। जल्द ही सहकारी संस्था ने मक्खन उत्पादन में पोल्सन को पीछे छोड़ दिया और अंतत: पोल्सन कंपनी को ख़त्म ही कर दिया।
देखते ही देखते अमूल, मक्खन बनाने वाली देश की सबसे बड़ी कंपनी बन गई और आज भी है हालंकि प्रतिद्वंदियों के रुप में विजया (दक्षिण भारत में लोकप्रिय), मदर डेयरी (पूर्वी भारत ख़ासकर बंगाल में लोकप्रिय) और ब्रिटानिया मौजूद हैं। अमूल से ज़्यादा नमकीन मक्खन भी अमूल के नक़्श-ए-क़दम पर ही चले हैं। आज हम जो मक्खन खाते हैं उसका रंग और स्वाद एक ऐसी कंपनी का दिया हुआ है जिसका वजूद बहुत पहले हुआ करता था।
आज हम पोल्सन की वजह से नमकीन रंगीन मक्खन खाते हैं लेकिन पेस्तोनजी इडुलजी दलाल को हम पूरी तरह भुला चुके हैं, बस आणंद ही एक ऐसी जगह है जहां पेस्तोनजी को याद किया जाता है। उनकी स्मृति में, इंस्टीट्यूट ऑफ़ रुरल मैनेजमेंट, आणंद की लाइब्रेरी में एक मूर्ति स्थापित की हुई है।
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