जश्न-ए-चिराग़न

जश्न-ए-चिराग़न

जैसा कि नाम से ज़ाहिर है दीपावली का त्यौहार दीये यानी रौशनी, मिठाई और पटाख़ों का त्यौहार है। ये भारतीय उपमहाद्वीप के हिंदूओं एक बड़ा त्यौहार है । हालंकि इसे जैन और सिख धर्म के लोग भी उतने ही जोश-ओ-ख़रोश से मनाते हैं । लेकिन ये बात कम लोग जानते हैं कि दिवाली के त्यौहार को कई मुग़ल शहंशाह भी बहुत शान-ओ-शौक़त और धूमधाम से मनाते थे । यही नहीं उन्होंने इस त्यौहार में कुछ नयी चीज़े भी जोड़ दी थीं जो आज परंपरा बन चुकी हैं । ग़ौरतलब ये है कि ये मुग़ल बादशाह तहे दिल से इस्लाम को माननेवाले थे ।

मुग़ल बादशाह गंगा-जमुनी तहज़ीब यानी हिंदू-मुस्लिम संस्कृति में यक़ीन करते थे और इसे वे बढ़ावा भी देते थे। अकबर से लेकर अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र तक, ज़्यादातर मुग़ल बादशाह दिवाली का त्योहार मनाते थे । पहले दो मुग़ल बादशाहों, बाबर और हुमांयू के समय दिवाली मनाई जाती थी या नहीं, इसके बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती लेकिन अकबर के समय दीवाली एक राजकीय पर्व की तरह मनाई जाती थी.

मुग़ल, दिवाली को जश्न-ए-चिराग़ां कहते थे यानी रौशनी का उत्सव । इस मौक़े पर बादशाह को सोने, चांदी और हीरे जवाहरात से तौला जाता था और जो ग़रीबों और ज़रुरतमंदों में बांट दिया जाता था।

माना जाता है कि भारत में 13वीं शताब्दी में मंगोल बारुद और आतिशबाज़ी लेकर आए थे । मुग़ल-काल में शादी, जन्मदिन और अन्य ख़ास मौक़ों पर आतिशबाज़ी का इस्तेमाल शुरु हो गया था और फिर ये दिवाली के जश्न का भी हिस्सा बन गया।

मुस्लिम और राजपूतों के बीच शादियों की वजह से अक़बर के समय और उसके बाद भी मुग़ल दरबार पर राजपूतों का प्रभाव था । इसके अलावा दरबार में राजपूतों की अच्छी ख़ासी संख्या भी थी। इस साझा संस्कृति को बनाने में मुग़ल बादशाहों और राजपूत राजकुमारियों के बीच शादी-ब्याह ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी । राजपूत राजकुमारियों को मुग़ल शासन में शादी के बाद भी दिवाली, होली और दशहरा मनाने की पूरी आज़ादी थी।

हैदराबाद  का  एक महल, 19वीं शताब्दी  | सलारजंग म्यूजियम 

अकबरनामा और जहांगीरनामा में इन त्यौहारों के जश्न का ज़िक्र है । दिलचस्प बात ये है कि हर मुग़ल बादशाह का दिवाली मनाने का अपना ही एक अलग तरीक़ा होता था । अकबर की जीवनी के लेखक अबुल फ़ज़ल के अनुसार दिवाली पर अकबर गोवर्धन पूजा में हिस्सा लेते थे और इस मौक़े पर गाय को ख़ूब सजाकर उनके सामने पेश किया जाता था । लोगों को ये रस्म बहुत पसंद थी ।

जहांगीर भी दिवाली बहुत जोश से मनाता था। उसकी जीवनी में दिवाली पर जुआ खेलने और लक्ष्मी पूजा की वजह से, वैश्य समाज में इसके महत्व के बारे में उल्लेख मिलते हैं । जहांगीर के समय में शाही परिवार और दरबारी दो-तीन दिन तक जुआ खेलते थे । हालंकि विश्वास किया जाता है कि शाहजहां ख़ुद दिवाली नहीं मनाता था लेकिन शाहजानाबाद में दिवाली का बहुत महत्व था। कुछ सूत्रों के अनुसार औरंगज़ेब के सत्ता में आने बाद सन 1665 में दिवाली मनाने पर पाबंदी लगा दी गई थी। औरंगज़ेब को लगता था कि दिवाली पर लोग जुआ खेलते हैं और शराब पीते हैं जो ठीक नहीं है। इसको लेकर कुछ इतिहासकारों मे मतभेद भी हैं । बहरहाल, औरंगज़ेब ने जो भी किया हो, लेकिन ये भी सच्चाई है कि उनके बाद के मुग़ल बादशाह दिवाली मनाते थे।

दिल्ली के गार्गी कॉलेज में इतिहास पढ़ाने वाली रुचिका शर्मा ने लिखा है कि कैसे विभिन्न समुदायों के बीच सौहार्द और राजाओं के रुतबे को स्थापित करने के लिए दिवाली और अन्य त्यौहार मनाये जाते थे । इसके अलावा चूंकि इसका संबंध न्यायप्रिय शासन और विजय के बाद राम की अयोध्या वापसी से था, इसलिए दिवाली मनाना राजनीतिक रुप से भी महत्वपूर्ण था।

राम की अयोध्या में वापसी। 19वीं शताब्दी   | पहाड़ी नेशनल म्यूजियम 

दिवाली के त्यौहार का कई प्रतीकात्मक और व्यवहारिक कारणों से भी महत्व था। दिवाली आने का मतलब सैन्य तैयारी का समय होता था क्योंकि बरसात ख़त्म हो जाती थी, फ़सल काटी जा चुकी होती थी और अब अधिकारियों के लिए सेना पर ध्यान देने का समय हो जाता था। अकबर और जहांगीर के समय दिवाली पर शाही और दरबारियों के घोड़े और हाथियों की सवारी निकाली जाती थी।

शाही जोड़ा दिवाली मानते हुए  .१८वीं शताब्दी  | मुग़ल सफदरजंग 

बहादुर शाह ज़फ़र के दरबार के अधिकारी ज़हीर दहलवी ने लिखा है कि कैसे लाल क़िले में दिवाली धूमधाम से मनाई जाती थी । ज़हीर दहलवी के अनुसार बहादुर शाह ज़फ़र दिवाली बहुत उत्साह से मनाते थे। इस मौक़े पर लाल क़िले में लक्ष्मी की भव्य पूजा होती थी और ख़ास तथा आम लोगों के लिए लाल क़िले में ही मिठाई बनती थी। धनतेरस पर बहादुर शाह ज़फ़र ख़ुद रसोईघर में अपने दरबारियों और अफ़सरों के बर्तनों को कांसे के नये बर्तनों से बदल देते थे। भारतीय परंपरा के अनुसार धनतेरस पर नये बर्तन ख़रीदने की परम्परा है ।

बहादुर शाह ज़फ़र के समय तोपख़ाने के इंचार्ज मीर आतिश की निगरानी में आतिशबाज़ी होती थी और कुछ मुग़ल महिलाएं क़ुतुब मीनार पर चढ़कर आतिशबाज़ी का नज़ारा देखती थीं । दरबार को रौशन करने के लिए लाल क़िले के ऊपर एक बहुत बड़ा आकाश दीप जलाया जाता था।

सन 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम के दौरान आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र के शासनकाल की समाप्ति और लाल क़िले पर अंग्रेज़ों के कब्ज़े के बाद इस महोत्सव को मनाने की परम्परा ख़त्म हो गयी, हालंकि लोग दिवाली मनाते रहे लेकिन उस शाही दिवाली की चकाचौंद ख़त्म हो गई।

सदियों और शताब्दियों तक भिन्न भिन्न जातियों और धर्मों के राजाओं ने भारत पर शासन किया लेकिन मुग़लों की पहचान हमेशा अलग रही । उन्होंने हमेशा दूसरे धर्मों का सम्मान किया और देश की मिली जुली संस्कृति को बढ़ावा दिया।

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