अचार हमारे भोजन का एक अभिन्न हिस्सा है, इसके बिना हमारा भोजन सूनासूना ही रहता है। इससे हमारा खाना चटपटा हो जाता है और इसे ढूंढ़ने के लिये मशक़्कत भी नहीं करनी पड़ती क्योंकि ये हमारी खाने की मेज़ के आसपास ही रखा होता है। किसी फल या सब्ज़ी को अम्लीय लवण जल में डालकर रखने की परंपरा अथवा कला का भारत से गहरा नाता है।
अचार बनाने की विधा बहुत पुरानी है। न्यूयॉर्क फ़ूड म्यूज़ियम के अनुसार 2030 ई.पू. खीरा को नमकीन पानी में रखकर मेसोपोटेमिया( मौजूदा ईरान-इराक़) ले जाया गया था ताकि ये रास्ते में ख़राब न हो। माना जाता है कि खीरा हिमालय की तलहटी में ख़ूब पैदा होता था।
अचार बनाने की कला सदियों से लोकप्रिय रही है क्योंकि लोगों को धीरे धीरे इसके फ़ायदों के बारे में पता चल गया था। अचार ख़राब न हो और लंबे समय तक इसका उपयोग हो सके, इसके तरीक़ों के अलावा इसमें बीमारियों से बचाना के गुण भी होते हैं जिसका उल्लेख महान दार्शनिक अरस्तु (384-322 ई.पू.) ने 350 ई.पू. में किया था। कहा जाता है कि रोमन बादशाह जूलियस सीज़र (100-44 ई.पू.) भी अचार का शौकीन था। माना जाता है कि युद्ध के पहले वह अपने सैनिकों को खाने के साथ अचार भी देता था क्योंकि उसका मानना था कि अचार से शारीरिक और आध्यात्मिक शक्ति मिलती है।
माना जाता है कि पहली सदी में रोमन बादशाह टैबीरियस (42 ई.पू.-37 ई.) खीरे के अचार का बहुत बड़ा शौक़ीन था और उसका आदेश था उसके खाने में हमेशा खीरे का अचार रहना ही चाहिये। रोमन लेखक, प्रकृतिवादी और प्रकृति दार्शनिक गैस प्लिनियस सीकंड्स के अनुसार टैबीरियस को खीरे की कभी कमी न हो इसके लिये ग्रीनहाउस (शीशे से घिरी बगिया) में खीरे उगाये जाते थे। ऐसा कोई दिन नहीं होता था जब टैबीरियस के भोजन में खीरे का अचार न परोसा गया हो। इसी वजह से पश्चिमी देशों में खीरे का अचार लोकप्रिय हो गया।
सदियों बाद क्रिस्टोफ़र कोलंबस (1451-1506) और अमेरीगो वेसपुची (1454-1512) जैसे यायावर अपनी समुद्र-यात्रा के दौरान जहाज़ में भोजन की कमी की समस्या और विटामिन सी की कमी की वजह से नाविकों को होने वाली ख़ून से निपटने के लिये अचार रखते थे।
लेकिन भारत में फल को नमकीन पानी में सहेजकर रखने की कला कहीं और आगे निकल गई। मोरक्को के यात्री इब्न-ए-बतूता ( 1304-1377) 14वीं सदी में मोहम्मद बिन तुग़लक़ के शासनकाल में भारत आ थे। उन्होंने तब रोज़मर्रा के जीवन का विवरण लिखा था। उन्होंने लिखा था कि आम और अदरक का अचार भोजन का एक अनिवार्य हिस्सा होता था: “फल (आम) आलूबुख़ारे की तरह बड़ा होता है। ये जब जब कच्चेपन में ही पेड़ से गिर जाता है तो लोग इसे नमक लागकर रख देते हैं जैसे हम नींबू रखते हैं। इसी तरह वे अदरक को, जब वह हरी होती है और काली मिर्च को भी रखते हैं जिसे वे अपने भोजन के साथ खाते हैं।”
प्रसिद्ध खाद्य इतिहासकार के.टी. अच्या की पुस्तक ए हिस्ट्रॉलिकल जेफ़ीनेशन ऑफ़ इंडियन फ़ूड के अनुसार सदियों पहले भारतीय अचारों के साथ तरह तरह के प्रयोग किये जाने लगे थे। अच्या के अनुसार वर्ष 1594 में लिखी गई कन्नड भाषा की किताब द लिंगपूर्ण ऑफ़ गुरुलिंगा देसिका में पचास तरह के अचारों का उल्लेख है। अचारों में आम, नींबू, बैंगन, मिर्च, सूअर का गोश्त, झींगे और मछली का अचार शामिल था। 17वीं शताब्दी में केलाडी के राजा बसवराजा की भारतीय विधा के विशव कोष शिवातात्वर्तनकारा में भी अचार का उल्लेख मिलता है।
“पिकल” शब्द डच भाषा के शब्द “पेकेल” या जर्मन भाषा के शब्द “पोकल” से लिया गया है जिसका मतलब होता है नमक या नमकीन। हिंदी शब्द अचार संभवत: फ़ारसी शब्द अचार से लिया गया है। फ़ारसी में अचार का मतलब है चूर्ण या नमक लगा मांस, अचार या फल जिसे नमक, सिरके, शहद या शीरे में सुरक्षित रखा गया हो।
एक तरफ़ जहां अन्य देशों में पारंपरिक अचार खाया जाता है जैसे जर्मन साउरक्राउट (नमकीन गोभी), दक्षिण कोरिया में किमची, फ़िनलैंड और आइसलैंड आदि जैसे नॉर्डिक देशों में मछली का अचार वहीं भारतीय अचारों की क़िस्मों का जवाब ही नहीं है। उदाहरण के लिये गुजराती/ मराठी आम का मीठा अचार बनाते हैं। इसी तरह लहसन और मिर्च का भी अचार डाला जाता है। उत्तर प्रदेश में आम का चटपटा अचार बहुत खाया जाता है। दक्षिण में ठोकू अचार खाया जाता है। पारसी पके हुए आम का अचार बनाते हैं। नगालैंड में सोयाबीन (अखुनी) का अचार बनाया जाता है। इसमें पहले सोयाबीन को ख़मीरी करके उसे धुआं दया जाता है और फिर भुत जोलोकिया डाली जाती है जो विश्व की सबसे तीखी मिर्चों में से एक है। इसी तरह केरल में मीन (मछली) का अचार बनता है और गोवा में झींगे का अचार डाला जाता है जिसे बालचाओं कहते हैं। ये सभी अचार पूरे देश में बहुत चाव से खाए जाते हैं। अचार आम हो या फिर ख़ास, खाने का मज़ा लेने के लिये आपको हर भारतीय रसोईघर में अचार की एक रंगीन और ख़ुसबूदार शीशी तो ज़रुर मिलेगी।
क्या आपको पता है: अपनी ख़ूबसूरती के लिये मशहूर क्लियोपेट्रा (69-30 ई.पू.) भी अचार बहुत शौक़ से और दिल भरकर खाती थीं और उनको यक़ीन था कि उनकी ख़ूबसूरती का राज़ भी अचार ही था।
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