हमारे देश में बिरयानी का अपना एक विशेष आकषर्ण है। इसके अनगिनत स्वाद हैं और हर स्वाद का अपना आनंद है।भारत के विभिन्न क्षेत्रों में बिरयानी अलग-अलग तरीक़े से बनाई जाती है लेकिन इनमें सबसे अलग है कोलकता की बिरयानी और इस अनोखी बिरयानी की वजह है आलू। कोलकता के अलावा और कहीं भी बिरयानी में आलू नहीं डाला जाता क्योंकि बिरयानी मूलत: चावल और मीट से बनती है। आख़िरकार कोलकता की बिरयानी में आलू आया कैसे? इसके बारे में कई तरह के क़िस्से कहानियां हैं लेकिन सच्चाई इनसे एकदम अलग है।
कहा जाता है कि बिरयानी, अवध के नवाब वाजिद अली शाह के साथ कोलकता पहुंची थी। फ़रवरी सन 1856 में सत्ता गंवाने के बाद वाजिद अली शाह कोलकता आ गए थे, जहां से उन्हें लंदन जाना था। नवाब को लगता था कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने उन्हें ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से अपदस्थ किया है और इसीलिये वह लंदन जाकर महारानी विक्टोरिया से अपील करना चाहते थे। लेकिन कोलकता में वह बीमार हो गये और सन 1857 में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ बग़ावत भी हो गई। ऐसे हालात में उनका वापस अवध वापस जाना ठीक नहीं समझा गया। नवाब को पश्चिम कोलकता के एक इलाक़े में कुछ ज़मीन दे दी गई जिसे मटियाब्रुज कहते हैं। नवाब का लखनऊ तो पीछे छूट चुका था लेकिन उसकी याद बाक़ी थी इसलिये उन्होंने यहां ऐक छोटा लखनऊ बनाने की कोशिश की।
नवाब अपने साथ संगीत,पतंगबाज़ी और महीन सिलाई जैसी लखनऊ की संस्कृति लेकर कोलकता आए थे। मटिया ब्रुज आज भी पतंग बनाने और सिलाई का गढ़ माना जाता है। बहरहाल, इस सब के अलावा अवध की पाकशाला भी कोलकता पहुंच गई थी। अन्य व्यंजनों के अलावा कोलकता का परिचय चावल-मीट या मांस या गोश्त से भी करवाया गया। कुछ जानकारों का कहना है कि ये डिश यानी बिरयानी सबसे पहले लखनऊ के इमामबाड़े के निर्माण के दौरान परोसी गई थी। लेकिन मटिया ब्रुज में नवाब जिस तंगहाली में रह रहे थे । ऐसी हालत में बिरयानी के लिये बहुत ज़्यादा गोश्त ख़रीदना उनके लिये आसान नहीं था इसलिये चावल में गोश्त की मात्रा कम करनी पड़ी और उसकी जगह आलू को डाला जाने लगा।
ये कितना सच है यह तो कहा नहीं जा सकता। लेकिन महत्वपूर्ण सवाल यह कि क्या वाजिद अली शाह कोलकता में वाक़ई में ग़रीबी में रह रहे थे? मौजूद दस्तावेज़ इस दावे को प्रमाणित नहीं करते। नवाब ने ढ़ेर सारे पशु पाल रखे थे। उनका ये चिड़ियाघर अलीपुर चिड़ियाघर से पहले का था। नवाब के चिड़ियाघर में कई बाघ और चीते थे जिनके लिए रोज़ाना गोश्त की ज़रुरत तो पड़ती होगी। रोज़ी ल्वेलिन जोन्स अपनी पुस्तक “द् लास्ट किंग ऑफ़ इंडिया” में लिखती हैं कि नवाब अपने पशुओं के भोजन पर प्रतिमाह नौ हज़ार रुपये ख़र्च करते थे और ऐसे में ज़ाहिर है वो ग़रीब तो नहीं हो सकते थे।
नवाब की ग़रीबी की कथा में कितना दम है इसे जानने के पहले भारत में आलू के इतिहास को भी जानना ज़रुरी है। आलू हमारा प्रिय भोजन है लेकिन ये भारत में पैदा नहीं हुआ था। 17वीं शताब्दी में पुर्तगाली आलू लेकर पश्चिम भारत आए थे। इसे पश्चिमी भारत में आज भी बटाटा कहते हैं जो पुर्तगाली नाम है।
इंटेरनैशनल पोटेटो सेंटर के लिये तैयार पर्चे में बी.एन. श्रीवास्तव ने बताया है कि भारत में आलू कैसे फैला। आलू शायद सबसे पहले सूरत आया था और फिर वहां से गोवा गया था। गोवा में पोटेटो को बटाटासुर्रता या सूरत का पोटेटो कहते हैं। अगले साठ साल में आलू अजमेर से लेकर कर्नाटक तक और पश्चिम भारत के हर हिस्से में फैल गया। तमिलनाडु में आलू सन 1882 में पहुंचा। शुरु में आलू को सस्ता नहीं अनोखा माना जाता था। भोजन के इतिहास के जानकार अनिल परालकर लिखते हैं कि “18वीं शताब्दी के अंत में जब बॉम्बे के अंग्रेज़ गवर्नर को तोहफ़े में एक दर्जन पाउंड आलू मिले तो वह इतने ख़ुश हुए कि उन्होंने इस अनोखी सब्ज़ी के लिए शहर के सभ्रांत लोगों की डिनर पार्टी ही कर डाली।”
पश्चिम बंगाल में आलू का आरंभिक उल्लेख सन 1879 में मिलता है। अंग्रेज़ो को लंदन से आलू के बीज मिले थे और दार्जलिंग के अंग्रेज़ निवासी एक वनस्पति गार्डन बनाना चाहते थे। यानी आलू सन 1879 में पश्चिम बंगाल में आया था। बंगाल में आलू आने के आठ साल बाद वाजिद अली शाह का निधन हो गया था। किसी भी सब्ज़ी को जनता में लोक प्रिय होने में समय लगता है फिर इतने कम समय में वाजिद अली शाह को कैसे पता लग गया कि आलू इतनी ज़ायक़ेदार सब्ज़ी है कि उसे बिरयानी में मिलाया जा सकता है। ऐसे में इस बात कि कितनी संभावना रह जाती है कि नवाब और उनके ख़ानसामों ने बिरयानी में आलू डालने का प्रयोग शुरु किया? और अगर उन्होंने किया भी होगा तो इसलिये नहीं कि वे मंहगे प्रोटीन (गोश्त) की जगह सस्ते स्टार्च (मंड) को मिलाना चाहते थे बल्कि इसलिये कि वे बिरयानी में एक लाजवाब सब्ज़ी को मिलाना चाहते थे।
भोजन पर लिखने वाली कोलकता स्थित लेखिका पूनम बैनर्जी का कहना है कि वाजिद अली शाह ने भले ही बिरयानी का परिचय कोलकता से करवाया हो लेकिन इसमे आलू मिलाने से उनका कोई लेनादेना नही है। “कोलकता में बिरयानी लोकप्रिय हो गई थी और इसमें आलू डालने की शुरुआत 50 के दशक के बाद हुई। कोलकता के एक आम निवासी के लिये गोश्त बहुत मंहगा पड़ता बिरयानी में आलू को लेकर बहस तो चलती रहेगी लेकिन एक बात तो तय है। बिरयानी में आलू डालने का मूल कारण बहुत पीछे छूट चुका है । कोलकता की बिरयानी की लोकप्रियता दिन दुगनी और रात चौगनी बढ़ती जा रही है और बंगाली अपने प्रिय आलू के बिना रह नहीं सकते भले ही वो बिरयानी के साथ ही क्यों न हो।
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