हम भारतीय जब बीमार पड़ते हैं तो आमतौर पर, हमें फल याद आते हैं और खुश होते हैं तो मिठाई। लेकिन मिठाई का पलड़ा कहीं ज़्यादा भारी है। क्योंकि ख़ुशी छोटी हो या बड़ी.. बिना मिठाई के अधूरी है। ख़ुशी का दूसरा नाम है….मिठाई। एक मिठाई हर समस्या को हल कर देती है, गिले-शिकवे दूर कर देती है, मूड और माहौल बदल देती है। फिर चाहे पप्पू पास हो जाए…भैया को भाभी मिल जाए…दीदी को हल्दी लग जाए। इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि मिठाई कौन-सी है, उसका स्वाद कैसा है? चाहे हम कोई भी नाम लें- हर मिठाई की अपनी एक खूबी है। मगर ज़रा रुकिए, क्या आप जानते हैं कि जिन अनेक रंग-रूपों में सजी मिठाईयों के देख कर हमारी लार टपकती है, इनमें से कई मूल रूप से भारत की हैं नहीं।
यक़ीन मानिए, हमारे देश में ऐसी कई मिठाईयां हैं, जिनमें सिर्फ़ हमारे देश की ख़ुश्बू ही नहीं, बल्कि विदेशों का भी स्वाद और इतिहास जुड़ा है। दिलचस्प बात ये है, कि ये मिठाईयां जो आमतौर पर, हर रोज़ पूरा आनंद लेकर खाई जाती हैं, वह कहां से आईं. कब आईं, इस बारे में, न खानेवालों को पता है और न खिलानेवालों को।
इस फ़ेहरिस्त में जो सबसे पहला नाम आता है…वह है…
जलेबी
जलेबी का ज़ायक़ा हर इलाक़े ,हर तबके और हर उम्र के लोगों की ज़बान को लग चुका है।लेकिन बहुत कम लोगों को पता है, कि जलेबी फ़ारस (वर्तमान ईरान) से भारत आई थी। जलेबी ने सबसे पहले, सल्तनत काल यानी 13वीं और 14वीं शताब्दी के बीच, फ़ारसी व्यापारियों और दरबारियों के साथ, उत्तर भारत में प्रवेश किया था। 13 वीं शताब्दी के तुर्क मोहम्मद बिन हसन की किताब में जलेबी और उसे बनाने की कई विधियों का उल्लेख मिलता है। जलेबी को सबसे पहले ‘जौलबिया’ कहा जाता था और आज भी कई देशों में इस नाम से मिलते जुलते अनेक नामों से ये जानी जाती है। उत्तरी अफ़्रीक़ा में इसे ‘ज़्लाबिया’ के नाम से जाना जाता है और यह फ़्रांस में भी इसी नाम से मशहूर है।
सन 1450 में, जैन धर्म पर छपी पुस्तक ‘कर्णप कथा’ में भी जलेबी का ज़िक्र मिलता है। सन 1600 में लिखी गई संस्कृत भाषा की कृति ‘गुण्यगुणाबोधिनी’ में भी जलेबी के बारे में लिखा गया है। सत्रहवीं शताब्दी में रघुनाथ ने ‘भोजन कौतुहल’ नाम की पाक कला से संबंधित पुस्तक लिखी थी जिसमें जलेबी का उल्लेख मिलता है। यानी जलेबी भारत में क़रीब 500 वर्ष से अधिक पुरानी है।
क़ुल्फ़ी
क़ुल्फ़ी…भारत के ‘राष्ट्रीय आइस क्रीम’ का दर्जा हासिल कर चुकी है। लेकिन क्या आप जानते हैं, कि इसकी शुरुआत मुग़ल सल्तनत के दौर में शुरू हुई थी ?
सोलहवीं शताब्दी के दौरान, तीसरे मुग़ल बादशाह अकबर के शासनकाल में लिखी गई आईन-ए-अकबरी (लेखक: अबू फज़ल) हमें बताती है, कि इसका मूल नाम दरअसल फ़ारसी शब्द ‘क़ुलाफ़ी’ था जिसका अर्थ होता है, ढका हुआ बर्तन। आईन-ए-अकबरी में यह भी लिखा है, कि अकबर के ख़ानसामाओं ने मिठाई बनाने के स्थानीय तरीक़ों से काफ़ी कुछ सीखा। वह सूखे मेवे, केसर और उबले गए दूध के घोल को तांबे-पीतल के बर्तनों में डालकर, बर्फ़ में ठंडा होने के लिए रखते थे। इसको ठंडा और खाने लायक़ बनाए रखने के लिए शोरा का इस्तेमाल किया जाता था। उस ज़माने में बर्फ़ हिमालय की चोटियों से लाया जाता था।
माना जाता है कि कई प्रमुख मिठाईयां, जैसे सेवइयां, बर्फ़ी और क़लाक़ंद भी इसी तरह से बनाए जाते थे। इनमें स्वाद फ़ारसी और मुग़लई था, लेकिन बनाने के तरीक़े देसी थे।
गुलाब जामुन
फ़ारसी में गुलाब शब्द का अर्थ ‘गोल’ होता है इसक दूसरा अर्थ है गुलाब का फूल। गुल और ‘आब’; आब यानी पानी। ‘जामुन’ या ‘जाम’ शब्द भारत में इस्तेमाल किया जाने लगा था। खोये से बनीं भारत की इस मशहूर मिठाई का इतिहास में कई जगह ज़िक्र है।
इस मिठाई का मूल स्त्रोत मशहूर फ़ारसी मिठाई ‘लुकमत-अल-क़ादी’ है। एक ज़माने में ये मैदे से बनती थी। उसमें शहद का प्रयोग किया जाता था। अब ये मिठाई भारत में कैसे आई, ये आज भी खोज का विषय है। किताब दि डोनट: ह़ास्ट्री, रेसिपीज़ एंड लोर फ्रॉम बोस्टन टू बर्लिन (2014) में मशहूर खानपान इतिहासकार माइकल क्रोनडल बताते हैं, कि ये मिठाई सल्तनत काल के दौरान भारत आई थी। शायद क्रोनडल का ये तर्क सही हो सकता है क्यों कि ईरान की बामिये और तुर्की के तुलुम्बा के बनाने की प्रक्रिया लगभग गुलाब जामुन जैसी ही है।
एकऔर तर्क ये दिया जाता है कि गुलाब जामुन का ‘आविष्कार’ दरअसल, पांचवें मुग़ल बादशाह शाहजहाँ के शासनकाल में हुआ था। उनके शाही ख़ानसामा ने देसी हलवाईयों और फ़ारसी-तुर्क पाककला से प्रेरणा लेकर इस मिठाई को तैयार किया था।
हलवा
दि ऑक्सफ़ोर्ड कम्पैनियन टू फ़ूड (1999),हलवेका मूलस्त्रोत वर्तमान सऊदी अरब बताती है। वहां इसको पहले ‘हल्व’ कहा जाता था। कई ऐतिहासिक दस्तावेज़ों से पता चलता है, कि सातवीं शताब्दी के दौरान, खजूर को दूध के साथ मिलाकर एक पकवान तैयार किया जाता था और उसी ने बाद में हलवे की शक्ल ले ली। नौवीं सदी तक इसे गेहूं के आटे, चाशनी और खजूर या अंगूर की चाशनी के साथ मिलाकर धीमी आंच पर पकाया जाता था। किताब-अल-ताबिख़(फ़ारसी/ सन 1226) में हलवे और उसके प्रकारों की विस्तार से जानकारी मिलती है।
जैसे-जैसे फ़ारस और उसके आसपास के इलाक़ों में सल्तनतों का विस्तार हुआ, वहां हलवा भी बनता चला गया। हालांकि इस बात का पता नहीं चल पाया कि हलवा पूरी तरह भारत में कब आया। भारत में हलवे की मौजूदगी का सबसे पहला सबूत चौदहवीं शताब्दी के मशहूर यात्री इब्न बतूता के सफ़रनामे में मिलता है, जहां वो बताते हैं, कि जब वो दिल्ली में सुलतान मुहम्मद बिन तुग़लक़ के दरबार का हिस्सा बनें, तो दावत के दौरान कई तरह के हलवे पेश किए गए। सिर्फ़ खाने के बाद नहीं, बल्कि शुरूआत में शरबत के बाद फिर खाने के बीच में गोश्त और रोटी के साथ भी हलवा पेश किया जाता था।
भारत में हलवे के विस्तार की एक कहानी और भी है। चालुक्य शासक सोमेश्वर- तृतीय के शासनकाल में लिखी ‘मानासोल्लास’ में हमें शाल्ली-अन्न का ज़िक्र मिलता है। यह यहां का मशहूर केसरी भात है, जो दक्षिण भारत के कई हिस्सों में मिलता है। यह हलवे का बेहद मशहूर रूप है।
वक़्त के साथ हलवे में भी कई प्रयोग होने लगे।हलवे में मेवे और घी का प्रयोग होने लगा। फिर हलवा सब्ज़ियों, दालों और अनाज के रूप में भी सामने आने लगा। हलवा अपने हर नए रूप में लोकप्रिय होने लगा। पंजाब से गाजर का हलवा, राजस्थान से मूंग का हलवा और उत्तर भारत का सबसे मशहूर सूजी का हलवा…आम जीवन का हिस्सा बन चुके हैं।
हलवे को पूरे भारत में लोकप्रिय बनाने का श्रेय सिर्फ़ तुर्क सुल्तानों और मुग़लों को ही नहीं जाता बल्कि अरब व्यापारियों को भी जाता है। अरब व्यापारियों ने भारत के अन्य इलाकों में हलवे को लोकप्रिय बनाया जिसकी छाप हमें ‘ बॉम्बे हलवा’, ‘कोझिकोड़ हलवा’, ‘तिरुनेलवेली हलवा’ और ‘मद्रास हलवा’ जैसे हलवे के कई रूपों में देखने को मिलती है।
फ़िरनी
किताब दि ऑक्सफ़ोर्ड द्कम्पैनियन टू फ़ूड (1999) ने फ़िरनी के फ़ारसी मूल पकवान शीर बिरिंज का ज़िक्र किया है, जिसको ‘जन्नत के खाने’ को दर्जा हासिल है। इस नाम की डिश अफ़ग़ानिस्तान और उसके आसपास के क्षेत्रों और देशों में आज भी बेहद पसंद की जाती है। यानी फ़िरनी भी फ़ारस की देन है। माना जाता है कि इसी के साथ मशहूर डिश शीर ख़ुरमा भी आया था जो आज ईद के त्यौहार की शान माना जाता है।
कुछ ऐतिहासिक दस्तावेज़ बताते हैं कि फ़िरनी सातवीं शताब्दी के दौरान फ़ारस से आए मुहालाबिया नामकी डिश का नया रूप है, जिसमें पहले गोश्त या फिर अण्डों का प्रयोग किया जाता था। वक़्त के साथ-साथ इसमें चावल का प्रयोग ज़्यादा होने लगा। मुहालाबिया आज भी ईरान और तुर्की की मशहूर डिश है।
इसी की तरह खीर का ज़िक्र भी कई प्रमुख हिन्दू ग्रन्थों में मिलता है, जहां इसे संस्कृत में ‘क्षीरिका’ के नाम से जाना जाता था। इसका अर्थ है वो मिठाई, जो क्षीर (दूध) से बनाई जाती है।दिलचस्प बात ये है, कि आजकल खीर में, इलाइची, केसर,चांदी के वर्क़ और गुलाबजल का इस्तेमाल होने लगा है। यानी खीर पर फ़िरनी का प्रभाव साफ़ दिखाई देता है!
शाही टुकड़े
शाही टुकड़े का स्वाद हमें मिस्र ने चखाया है। स्थानीय मान्यताओं के अनुसार, ये डिश उम अली नाम के व्यक्ति ने ब्रेड से बनाई थी। दरअसल ये मिस्र के किसी बावर्ची का नाम था। वह बावर्ची नील नदी के किनारे एक गाँव में रहता था। उसने किसी राजा और उसके कारवां के लिए…मलाई, चीनी, दूध, मेवे और बासी रोटी को मिलाकर एक डिश बनाई थी। वह डिश लोगों को इतनी पसंद आई, कि देखते ही देखते यह पूरे मध्य एशिया में लोकप्रिय हो गई। यह भी मान्यता है कि तेरहवीं शताब्दी में, विजयी के उपलक्ष्य मेंएक रानी ने, जश्न के मौक़े पर यह डिश बनाई थी।
ये कहना कठिन है, कि शाही टुकड़े ने भारत में अपने क़दम कब जमाए । माना जाता है, कि यह डिश पहले मुग़ल बादशाह बाबर के साथ आई थी। यह भी माना जाता है, कि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अफ़सरों को मिठाई बहुत पसंद थी। इस लिए शाही टुकड़े के रूप में उनके लिए एक नई डिश तैयार की गई थी।
शाही टुकड़े का ताल्लुक़, सत्रहवीं शताब्दी के मुग़ल दरबार के ख़ानसामाओं से मिलता है। उन्हीं ख़ानसामाओं ने मिस्र की इस डिश को एक नया रूप दिया, चूँकि ये ख़ानसामा फ़ारस, तुर्क और भारत की पाक कला से परिचित थे। उन्होंने बाहर से आई डिशों और देसी डिशों को मिला-जुलाकर कई प्रयोग किए और नई-नई डिशें तैयार कीं। जिनका असर आज भी हमारे दस्तरख्वानों पर दिखाई देता है। शाही टुकड़े की भी यही कहानी है। बासी रोटी पर घी, इलाइची, गुलाबजल, केसर और सूखे मेवे डाल कर, रोटी को गाढ़े दूध में डुबाया जाता है। फिर सजावट के लिए इसपर सोने या चांदी के वर्क़ लगाए जाते हैं। इसी तरह इसका नाम शाही टुकड़े पड़ा गया। जब यह हैदराबाद के दस्तरख्वानों पर पहुंचा ,तो इसका नाम‘डबल का मीठा’ हो गया!
अन्य डिशों या शरबतों की बात करेंतो तमिलनाडू का जिगरठंडा या भारत के कई हिस्सों में मशहूर फ़ालूदा, आमतौर पर जाने जाते हैं। इनमें से कई प्राचीन काल से ही मध्य एशिया में प्रचलित थे। जो बाहरी व्यापारियों के साथ भारत आए थे।
मिठाई की बातें बहुत हुईं….ज़ाहिर है मीठा खाने को दिल भी चाहने लगा होगा…तो चलिए…अपनी-अपनी पसंद का कुछ मीठा हो जाए।
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