भारत के 5 मशहूर व्यंजन 

यह एक ट्रुस्म है कि भारत दुनिया में सबसे विविध देश है – जातीय, भाषाई रूप से, सांस्कृतिक रूप से और जठरांत्र। यह विविधता हमें विभिन्न प्रकार के व्यंजन भी देती है लेकिन क्या आप जानते हैं कि कई व्यंजन जिन्हें हम भारतीय मानते हैं, वास्तव में भारतीय नहीं हैं? ये व्यंजन विदेशी आक्रमणों, व्यापार संबंधों, उपनिवेशवाद के साथ-साथ प्रवासन से प्रभावित हैं। पढ़िए ऐसे ही पांच पकवानों की रोचक कहानियां…

1- इडली

पूरे भारत में इडली घर घर में बनाई जाती है, सड़कों पर बेची जाती है और उडुपी तथा महंगे रेस्तरां में लोग इसे बड़े शौक़ से खाते हैं। इडली उन कुछ व्यंजनों में से है जो कालातीत है और पूरे भारत में लोकप्रिय है। लेकिन आश्यर्च की बात ये है कि इडली व्यंजन की उत्पत्ति भारत में नहीं हुई थी।

खाद्य इतिहासकार के. टी अच्चया के अनुसार इडली मौजूदा समय के देश इंडोनेशिया से क़रीब 800-1200 में भारत में आई होगी। उस समय इंडोनेशिया के एक हिस्से पर शैलेंद्र, इसयाना और संजय राजवंशों के हिंदु शासक राज करते थे। इडली इंडोनेशिया में बनाए जाने वाले केडली से काफ़ी मिलती जुलती है और हो सकता है कि शाही परिवारों के भारतीय ख़ानसामा इस व्यंजन की विधि वहां से अपने साथ भारत लाए हों।

अच्चया का कहना है कि सन 920 में शिवकोटी आचार्य के कन्नड भाषा में लिखे साहित्य में वड्डाराधने में इडली का इड्डलागे नाम से उल्लेख है। इसी तरह सन 1130 में राजा सोमेश्वरा-तृतीय के लिखे संस्कृत मानसोलासा जैसे अन्य साहित्यिक रचनाओं में भी इड्डरिका के नाम के व्यंजन का उल्लेख मिलता है। लेकिन उनमें आधुनिक समय में इडली बनाने की विधि की तीन चीज़ों का ज़िक्र नहीं है। आज इडली चावल के आटे और उड़द की दाल से बनाई जाती है। चावल के आटे और उड़द की दाल को मिलाकर काफी देर तक रखकर छोड़ दिया जाता है ताकि इसमें ख़मीर पैदा हो जाए। इसके बाद इसे मुलायम बनाने के लिये किसी बंद बर्तन में रखकर भाप दी जाती है। इडली की इस उत्पत्ति से खाद्य इतिहासकार लिज़ी कॉलिंघम सहमत नहीं हैं। उनका दावा है कि इसकी उत्पत्ति इंडोनेशिया में नहीं बल्कि कहीं और हुई थी। क़ाहिरा स्थित अल-अज़हर लाइब्रेरी में उपलब्ध पुस्तकों के आधार पर कॉलिंघम दावा करती हैं कि अरब व्यापारी इडली अपने साथ लाए थे। वे शादी करके दक्षिणी पट्टी में बस गए थे और इस तरह वहां इडली आई।

कॉलिंघम और टीवी शेफ़ द्वारा संपादित खानपान के इतिहास के विश्व कोष (ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस) और हैज़र चार्ल्स बी. द्वारा इस विषय पर लिखी गई किताब सीड टू सिवलीज़ेशन (हारवर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस) के अनुसार कहा जाता है कि दक्षिण पट्टी में आकर बसे अरब लोग अपने खानपान पर ख़ास ध्यान देते थे। वे पारंपरिक इस्लामिक क़ानून के तहत सिर्फ़ हलाल भोजन ही खाते थे। भोजन हलाल है या नहीं, इस भ्रम को दूर करने के लिये उन्होंने चावल के लड्डू बनाने शुरु किये जिसे वे नारियल के रसे(शोरबे) के साथ खाते थे। चावल के ये लड्डू पूरी तरह गोल न होकर कुछ चपटे होते थे। कहा जाता है कि चावल के इन लड्डुओं का स्वाद आज की इडली से अलग होता था।और पढ़ें

2- समोसा

समोसा एक ऐसा व्यंजन है जो हमारे देश की हर गली, मोहल्ले से लेकर पंच सितारा होटलों तक में उपलब्ध है। बस स्टॉप में खींच कर आवाज़ लगाता हुआ ‘समूऊऊसे’ से लेकर किसी पंच सितारा होटेल का बेरे तक जो शहनील के कपड़े में तमीज़ के साथ आपकी प्लेट में परोसता हुआ, मुस्कुरा के चटनी डालता हुआ और कहता है, “सर योर समोसा” आप कही भी खा सकते है… स्वादानुसार.

माना जाता है कि समोसा की उत्पत्ति 10वीं शताब्दी से पहले कहीं मध्य पूर्व में हुई थी और यह 13वीं से 14वीं शताब्दी के बीच भारत में आया। समोसे का मध्य पूर्व से भारत तक का सफर कई कहानियों के साथ देखने को मिलता है। असल में यह भारत आए व्यापारियों के साथ आया और आते ही लोगों की ज़ुबान पर इसका स्वाद ऐसा चढ़ा की देखते ही देखते समोसा भारत में भी मशहूर हो गया।

इतिहासकारो के मुताबिक दसवीं सदी में गजनवी साम्राज्य के शाही दरबार में एक ‘नमकीन पेस्ट्री’ परोसी जाती थी और इस पेस्ट्री को कीमा और सूखा मेवा भरकर बनाया जाता था। यह काफी हद तक समोसे जैसी ही होती थी। 16वीं सदी में पुर्तगाली जब अपने साथ आलू लाए, तो इसे यहां काफी पसंद किया गया। इसी के साथ समोसे को भी आलू का साथ मिल गया। आज ये अल्पाहार या नाश्ते के रूप में विश्व के विभिन्न देशों में अलग-अलग नामो से प्रचलित हैं।और पढ़ें

3- कोलकता बिरयानी

हमारे देश में बिरयानी का अपना एक विशेष आकषर्ण है। इसके अनगिनत स्वाद हैं और हर स्वाद का अपना आनंद है।भारत के विभिन्न क्षेत्रों में बिरयानी अलग-अलग तरीक़े से बनाई जाती है लेकिन इनमें सबसे अलग है कोलकता की बिरयानी और इस अनोखी बिरयानी की वजह है आलू। कोलकता के अलावा और कहीं भी बिरयानी में आलू नहीं डाला जाता क्योंकि बिरयानी मूलत: चावल और मीट से बनती है। आख़िरकार कोलकता की बिरयानी में आलू आया कैसे? इसके बारे में कई तरह के क़िस्से कहानियां हैं लेकिन सच्चाई इनसे एकदम अलग है।

कहा जाता है कि बिरयानी, अवध के नवाब वाजिद अली शाह के साथ कोलकता पहुंची थी। फ़रवरी सन 1856 में सत्ता गंवाने के बाद वाजिद अली शाह कोलकता आ गए थे, जहां से उन्हें लंदन जाना था। नवाब को लगता था कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने उन्हें ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से अपदस्थ किया है और इसीलिये वह लंदन जाकर महारानी विक्टोरिया से अपील करना चाहते थे। लेकिन कोलकता में वह बीमार हो गये और सन 1857 में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ बग़ावत भी हो गई। ऐसे हालात में उनका वापस अवध जाना ठीक नहीं समझा गया। नवाब को पश्चिम कोलकता के एक इलाक़े में कुछ ज़मीन दे दी गई जिसे मटियाब्रुज कहते हैं। नवाब का लखनऊ तो पीछे छूट चुका था लेकिन उसकी याद बाक़ी थी इसलिये उन्होंने यहां ऐक छोटा लखनऊ बनाने की कोशिश की।

नवाब अपने साथ संगीत,पतंगबाज़ी और महीन सिलाई जैसी लखनऊ की संस्कृति लेकर कोलकता आए थे। मटिया ब्रुज आज भी पतंग बनाने और सिलाई का गढ़ माना जाता है। बहरहाल, इस सब के अलावा अवध की पाकशाला भी कोलकता पहुंच गई थी। अन्य व्यंजनों के अलावा कोलकता का परिचय चावल-मीट या मांस या गोश्त से भी करवाया गया। कुछ जानकारों का कहना है कि ये डिश यानी बिरयानी सबसे पहले लखनऊ के इमामबाड़े के निर्माण के दौरान परोसी गई थी। लेकिन मटिया ब्रुज में नवाब जिस तंगहाली में रह रहे थे, ऐसी हालत में बिरयानी के लिये बहुत ज़्यादा गोश्त ख़रीदना उनके लिये आसान नहीं था इसलिये चावल में गोश्त की मात्रा कम करनी पड़ी और उसकी जगह आलू को डाला जाने लगा।और पढ़ें

4- जलेबी

जलेबी भारत के हर कोने में खाई जाती है। नारंगी, लाल रंग की चाशनी में डूबी जलेबी देख कर हर किसी का मन ललचा जाता है। यह मीठा व्यंजन खाने में जितना स्वादिष्ट है उतना ही दिलचस्प है इससे जुड़ा इतिहास। माना जाता है कि जलेबी या ‘जौलबिया’ की उत्त्पति पश्चिम एशिया में हुई जहाँ छोटी इलायची और सूखी चीनी के साथ इसे बनाया जाता था। बताया ये भी जाता है कि ईरान में रमजान के दिन गरीबों या जरूरतमंदों को यही जलेबियां बांटी जाती थी।

पारसी शब्द में ये जौलबिया जब हिंदुस्तान आई तो जलेबी बन गई। 13 वीं शताब्दी के तुर्की मोहम्मद बिन हसन की किताब में जलाबियां और उसे बनाने की कई विधियों का उल्लेख मिलता है। नादिर शाह को जुलाबिया बहुत पसंद थी, वह इस पकवान को ईरान से भारत लेकर आया और फिर इसे यहां का लोकप्रिय मिष्ठान्न बनने में अधिक समय नहीं लगा।

1450 में जैन धर्म पर संबंधित पुस्तक ‘कर्णप कथा’ में जलेबी का ज़िक्र है। सन 1600 में लिखी गयी संस्कृत भाषा की कृति ‘गुण्यगुणाबोधिनी’ में भी जलेबी के बारे में लिखा गया है। सत्रहवीं शताब्दी में रघुनाथ ने ‘भोजन कौतुहल’ नामक पाक कला से संबंधित पुस्तक लिखी थी जिसमें जलेबी का ज़िक्र मिलता है। इस प्रकार से देखा जाए तो हम सब की प्यारी जलेबी भारत में करीब 500 वर्ष पुरानी है।और पढ़ें

5-संदेश

संदेश और इसके अनेक किस्म आपको अपने स्वाद से खुशी के साथ झूमने पे मजबूर करते हैं । वास्तव में, प्रख्यात खाद्य इतिहासकार कोलीन टेलर सेन, संदेश को ‘ बंगालियों का प्रतीक ‘ मानती हैं-और इसमें कोई दो राय नहीं है ।

न केवल संदेश स्वाद के मामले में लाज़वाब है बल्कि यह यूरोपीय प्रभावों के माध्यम से बंगाली पुनर्जागरण की कहानी को भी दर्शाता है । चूंकि बंगाल मध्ययुगीन काल से यूरोपीय शक्तियों के साथ एक प्रमुख व्यापारिक केंद्र था, इसलिए यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि सबसे पहले बंगाली व्यंजन गोरों से प्रभावित होने वाले व्यंजनों में से एक है। और इसका संदेश एक बड़ा उदाहरण है।

परंपरागत रूप से, दही दूध का उपयोग भारत में वर्जित था । वास्तव में, यह सर्वथा अशुभ माना जाता था! फिर भी संदेश, एक अपवाद बनाता है । यह केवल पारंपरिक मिठास में से एक है जो चेन्ना (दही दूध से एक उद्धरण) से बना है। इसके पीछे का कारण सरल है। यह सबसे पहले यूरोपीय लोगों के बसने के वजह से हुआ जो कलकत्ता बंदरगाह में अपने जहाजों के साथ आए – पुर्तगाली- जो अपने चीज़ से बेहद प्यार करते थे!

कई पुर्तगाली हुगली नदी केआसपास बस गए, जिससे कोलकाता को अपना घर बना लिया गया, 17 वीं शताब्दी में वह काफ़ी बड़ी तादाद मैं बस गए और उनके पास इतनी संपन्न बस्ती थी, कि उन्होंने स्थानीय व्यंजनों को भी प्रभावित किया; स्थानीय बाजारों में के लिए अपने चीज़ प्यार का प्रसार किया ।

बंगाली हलवाई चीज़ से मिठाई बनाने की पुर्तगाली तकनीक को सीख गए और इसी तकनीक से पैदा हुआ था, संदेश!

अपने सुनहरे दिनों में, लगभग हर मिठाई की दुकान संदेश की 100-150 किस्म बेचता था और समय के साथ संदेश अधिक से अधिक मशहूर होने लगा। यह अनुकूलन बंगाल के लिए सर्वव्यापी होने से पहले ही कुछ समय की बात थी । कोलकाता में बढ़ते और अमीर शहरी मध्यम वर्ग के उद्भव के साथ-साथ 1 9वीं शताब्दी के मध्य के बंगाली पुनर्जागरण ने बंगाली मिठाई और संदेश के लिए ‘स्वर्ण युग’ का नेतृत्व किया।

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