जब भी झांसी या उसके इतिहास की बात होती है तो कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता, जो रानी लक्ष्मी बाई की वीरता की बात करती है, ख़ास तौर पर ध्यान आती है। मगर क्या आप जानते हैं, कि सुभद्रा कुमारी चौहान के अलावा एक और ऐसे लेखक हैं जिन्होंने झाँसी और उसके आस पास के क्षेत्र की कहानियों को अमर बनाया और लोगों तक पहुँचाया?
नाटककार और उपन्यासकार वृंदावनलाल वर्मा का हिंदी इतिहास में एक महत्वपूर्ण योगदान रहा है। उन्होंने झाँसी, ग्वालियर, बुंदेलखंड जैसे क्षेत्रों के इतिहास से सम्बंधित कई रचनायें और नाटक लिखे। आज भी उनकी रचनाएं इतिहास पढ़ने और समझने का एक महत्वपूर्ण स्त्रोत हैं। इसके अलावा उन्होंने अपने सामाजिक उपन्यासों से सामाजिक मुद्दों को आगे लाने और विकृतियों को दूर करने का प्रयास भी किया। एक और ध्यान देने वाली बात ये है, कि उनकी कई रचनाओं में नारियों को एक प्रमुख स्थान मिलता है जो नैतिकता, ईमानदारी और सच्चाई के साथ किया गया है।
झाँसी के मऊ रानीपुर गाँव में जन्मे वृंदावनलाल वर्मा का शुरू से ही इतिहास और साहित्य की तरफ रुझान था। उनका जन्म 9 जनवरी 1889 को हुआ था। अपनी आत्मकथा ‘अपनी कहानी’ में वे लिखते हैं कि उनकी दादी और परदादी उन्हें बचपन में रानी लक्ष्मीबाकि कि कहानियां सुनाया करती थीं। वृंदावनलाल के पूर्वज, बुंदेलखंड के राजा छत्रसाल के सैनिक थे।
वे ये भी लिखते हैं कि उनके परदादा दीवान आनंदराव महू के एक विद्रोही गिरोह के संचालक थे। रानी लक्ष्मी बाई के देहांत के बाद जब उनके परदादा से ये पूछा गया कि अब वे क्या करेंगे, तो उनका जवाब था कि वो मरते दम तक अंग्रेज़ों से लड़ेंगे। हालाँकि वृंदावनलाल के पिता पढ़ लिख कर सरकारी नौकरी में चले गए थे, मगर ऐसे परिवार में जन्में वृंदावनलाल के लिए यह स्वाभाविक था कि उनका अपनी मातृभूमि के इतिहास की ओर झुकाव हो।
महज सात साल की उम्र में ही वृंदावनलाल ने लिखना शुरू कर दिया था।
साहित्य और इतिहास के प्रेम को उनके चाचा जी ने बहुत बढ़ावा दिया, जो ललितपुर के जॉइंट मजिस्ट्रेट के अहलमद या क्लर्क थे। उनके चाचा जी ही उन्हें ये प्रेरणा देते थे कि सच्ची बातों को लिखने में बहुत गहरे अध्ययन कि ज़रूरत होती है और उनके लिए कई साड़ी किताबें भी ला कर देते थे। बचपन में ही वृंदावनलाल ने कालिदास की शकुन्तल, विशाखदत्त की मुद्राराक्षस, चंद्रकांता संतति, अंग्रेजी कि गुलिवर्स ट्रेवल जैसी और कई रचनायें पढ़ ली थीं। उन्होंने झाँसी और ललितपुर में अपनी प्रारंभिक शिक्षा ख़तम करने के बाद, ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज से स्नातक की पढाई की। इसके बाद उन्होंने आगरा में एल एल बी कर के वकालत की पढाई की और 1916 में वकालत शुरू की। हालाँकि शुरुआत के दिनों में उन्हें वकालत में थोड़ा कठिन समय देखना पड़ा, मगर 1917 आते आते उनका काम खूब सफल हुआ।
लेखन से उनका सम्बन्ध बचपन से ही हो गया था, और स्कूल में भी उन्होंने राम चरितमानस के 14 -15 पन्ने खड़ी बोली गद्य में अनुवाद किये थे। 1904 में, 15 साल की उम्र में उन्होंने ‘नरान्तक वध’ नामक एक नाटक लिखा था मगर वो उन्हें खुद को अपने स्तर का नहीं लगा और कुछ साल बाद उन्होंने उसे रद्दी में दे दिया। 1905 में ही वे उस समय देश में चल रहे सशत्र क्रन्तिकारी के प्रभाव में आये और एक नाटक लिखा जिसका नाम था ‘सेनापति उदल’। इस नाटक में उन्होंने शत्रुओं और देशद्रोहियों को मारना न्यायोचित बताया था। विद्रोही भाव को देखते हुए इस रचना को तत्कालीन अंग्रेज़ी सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया था। ये कुछ वर्ष उनके निर्माण काल की शुरुआत थे। उन्होंने देश के संघर्ष के लिए और भी रचनायें लिखीं, जैसे महोबा संग्राम। 1908 में महात्मा बुद्ध का जीवन चरित्र भी लिखा, जिसके लिए उन्हें आज भी याद किया जाता है।
अगले कुछ सालों में उनका कहानियां, नाटक, पत्रकारिता, निबंध लेखन का सिलसिला चलता रहा। 1921 में उन्होंने एक साप्ताहिक अख़बार ‘स्वाधीन’ की शुरुआत की और एक स्वाधीन प्रेस भी स्थापित किया। मगर सन 1927 में वो दिन आया जब उनका जीवन एक नया मोड़ लेने वाला था और जिसके लिए उन्हें सालों बाद भी याद किया जा रहा है। ये वो समय था जब उन्होंने अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘गढ़ कुंडार’ लिखने का फैसला किया, एक जंगल में शिकार के लिए बैठे हुए। भारत के सबसे प्रेतवाधित किलों में से एक, गढ़ कुंडार क़िला मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ ज़िले में स्थित है। कहा जाता है कि किला चंदेलों द्वारा सिरसागढ़ के प्रशासनिक प्रांत में बनाया गया था। ‘अपनी कहानी’ में इस उपन्यास की रचना का ज़िक्र करते हुए वे लिखते हैं-
“पहाड़ियों की श्रेणियां एक दूसरे के पीछे कुछ कुहासे में थीं, सोती-सी-जान पड़ी। उनके पीछे एक और शिखर पर कुंडार का गढ़ ऊँघता सा लगा। गढ़ कुंडार अब वीरान है, परन्तु किसी युग में, चंदेल काल के इधर-उधर-इसमें कितनी चहल पहल न रही होगी? इस गढ़ ने कितन विभिन्न प्रकार के स्त्री-पुरुष, समाज के कितने उलट-फेर, इतिहास की कितनी करवटें न देखी होंगी? मन ही मन इतिहास और परम्पराओं के पन्ने उलटे-पुल्टे। बुंदेलखंड की अनेक गौरव गाथाओं की स्मृति पुलक पर पुलक देने लगी। आखिर वर्तमान भूत की ही देन तो है। भूत से यदि वर्तमान के लिए देने योग्य कुछ न हो तो क्यों न लिया जाए? उस युग के जन का रहन-सहन, प्रेम, शौर्य, त्याग, इत्यादि की क्रियाएं-प्रतिक्रियाएं यदि चित्रित की जाए तो आज के लिए कुछ उपादेयता शायद हाथ लग जाए..”
इन पंक्तियों को पढ़ कर कोई भी ये समझ सकता है कि किस तरह वो इतिहास को देखते और समझते थे और क्यों उन्होंने इतिहास के बारे में लिखने का निर्णय लिया होगा। ‘गढ़ कुंडार’ उपन्यास 1928 में प्रकाशित हुआ। इस से वृंदावनलाल को असाधारण ख्याति प्राप्त हुई और आज भी ये उनकी सबसे लोकप्रिय रचनाओं में से एक है। इस युग में ऐतिहासिक स्तरीय उपन्यास की कमी सी थीं और ऐसे में वृंदावनलाल के उपन्यास कई महत्वपूर्ण साबित हुए। अगले कई सालों में उन्होंने कई बेहतरीन ऐतिहासिक उपन्यास लिखे जिसमें से कुछ प्रमुख उपन्यास हैं विराट की पद्मिनी, मुसाहिबजू, झांसी की रानी, कचनार, माधवजी सिंन्धिया, मृगनयनी, भुवन विक्रम और अहिल्या बाई। उनके इन उपन्यासों में ऐतिहासिक कथा और रचनात्मक सुधारों का मिश्रण देखने को मिलता है।
संगम, लगान, प्र्र्र्र्रत्यघात, कुण्डली चक्र, अमर बेल उनके कुछ प्रमुख सामाजिक उपन्यास हैं।
उनके कई नाटकों में से झाँसी की रानी (उपन्यास पर आधारित) बहुत प्रसिद्ध है। उन्होंने इसके अलावा हंस मयूर, बांस की फांस, पीले हाथ, पुर्व की ओर, केवट, नीलकंठ, मंगल सूत्र(1952), बीरबल, ललित विक्रम लिखे। इनके द्वारा लिखी गयी लघु कहानियां भी सात संस्करणों में प्रकाशित हुयी हैं जिनमें से कलाकर का दर्द, और श्रंघात सृंघात, विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं।
उनके उपन्यास पूर्व मध्यकालीन पृष्ठभूमि से लेकर आधुनिक समाज की गतिविधियों को चित्रित करते हैं। अपने कई उपन्यास के द्वारा वो देश प्रेम की भावना को जागृत करना, नारी मुक्ति का प्रयास करना, सामंती शोषण से परेशान लोगों की दशा को प्रस्तुत करना चाहते थे। उनके लेखन में हमें लोक जीवन की एक झलक, और साथ ही प्रेम सौंदर्य और युद्ध जैसे विषय भी दिखते हैं। उनकी रचनाओं में बुंदेली भाषा का सौंदर्य देखने को मिलता है और साथ ही लोक जीवन के मुहावरे, लोकोक्तियाँ आदि का भी प्रयोग है।
साहित्य में उनके योगदान के लिए भारत सरकार द्वारा उन्हें पद्मभूषण दिया गया।
अपनी साहित्यिक उपलब्धियों के लिए वृंदावनलाल वर्मा को आगरा विश्वविद्यालय द्वारा डी.लिट्. या डॉक्टरेट ऑफ लिटरेचर की डिग्री से भी सम्मानित किया गया। इतना ही नहीं, अपने काम के लिए इन्हें ‘सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार’ भी प्राप्त हुआ है। हिंदी साहित्य के इस महान लेखक ने 23 फरवरी, 1969 को झांसी में अंतिम सांस ली। वृंदावनलाल वर्मा ने जहाँ एक तरफ अपने समकालीन लेखक प्रेमचंद की सामाजिक परंपरा को आगे बढ़ाया, वहीं दूसरी ओर हिन्दी में ऐतिहासिक उपन्यास की धारा को अपने उत्कर्ष तक पहुँचाया है। इतिहास, कला, पुरातत्व, मनोविज्ञान जैसे विषयों में इनकी रूचि इनके लेख में साफ़ झलकती है। अपनी मातृभूमि कहानियों को एक सुन्दर और बेहतरीन तरीके से सहेज कर लोगों तक पहुंचाने के लिए वृंदावनलाल वर्मा हमेशा अमर रहेंगे।
हम आपसे सुनने के लिए उत्सुक हैं!
लिव हिस्ट्री इंडिया इस देश की अनमोल धरोहर की यादों को ताज़ा करने का एक प्रयत्न हैं। हम आपके विचारों और सुझावों का स्वागत करते हैं। हमारे साथ किसी भी तरह से जुड़े रहने के लिए यहाँ संपर्क कीजिये: contactus@livehistoryindia.com