लंबे समय तक यह धारणा रही थी, कि मुम्बई के इतिहास की शुरुआत पुर्तगालियों के आगमन से हुई थी। लेकिन यह धारणा तब टूटी, जब प्रसिद्ध इतिहासकार वी.के. राजवाड़े ने मुम्बई के इतिहास को एक नयी रौशनी सन 1926 में ‘माहिकावतीची बखर’ नामक एक पुराने दस्तावेज़ पर अपनीं व्याख्या द्वारा दी।
इतना ही नहीं, पानीपत की तीसरी लड़ाई के बारे में जो हमें जानकारी मिलती है, वो संभव नहीं होती अगर इस इतिहासकार ने तमाम धारणाओं को ग़लत साबित करते हुए महाराष्ट्र के इतिहास की नयी रौशनी में पड़ताल नहीं की होती।
इतिहासाचार्य वी.के. राजवाड़े के नाम से लोकप्रिय विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़े इतिहासकार, विद्वान, लेखक, भाषाविद् और टिप्पणीकार थे, जिन्हें वास्तविक अर्थों में महाराष्ट्र के इतिहास का व्यापक शोध करने वाला पहला व्यक्ति माना जाता है। सन 1863 में महाराष्ट्र के रायगढ़ ज़िले में जन्में राजवाड़े ने डेक्कन कॉलेज पोस्ट ग्रेजुएट एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट, पुणे से स्नातक किया था।
वी.के.राजवाड़े मराठा इतिहास पर काम करने वाले पहले व्यक्ति नहीं थे। विडंबना यह है, कि मराठा इतिहास पर सबसे पुरानी और मान्यता प्राप्त पुस्तकों में से एक अंग्रेज़ सैनिक अधिकारी जेम्स ग्रांट डफ़ ने लिखी थी जिसका शीर्षक था, “हिस्ट्री ऑफ़ महराष्ट्र” (1826)। इस दौरान पूरे भारत में सामाजिक सुधार आंदोलनों की लहर शुरू हो चुकी थी। पुणे में सांस्कृतिक पुनर्जागरण हो रहा था। आर.जी.भंडारकर जैसे मशहूर विद्वान ने भारत के प्राचीन अतीत को दोबारा खोजने, और एक बार फिर संगठित करने का ज़िम्मा लिया। क्रांतिकारी नेता लोकमान्य तिलक ने स्वतंत्रता संग्राम के प्रति लोगों को जागरुक करने के लिये सन 1881 में “केसरी” अख़बार शुरु किया। उन्होंने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ स्वतंत्रता की लड़ाई में समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों को एकजुट करने के उद्देश्य से बड़े पैमाने पर सार्वजनिक गणेश उत्सव भी शुरू किया।
भारतीय इतिहास का अध्ययन करने वाले कुछ अंग्रेज़ विद्वानों बे उसे अपने फ़ायदे के हिसाब से इसे पेश किया था। इसका वी.के. राजवाड़े पर गहरा प्रभाव पड़ा था। उन्होंने औपनिवेशिक इतिहास को ग़लत साबित करने के लिये प्रामाणिक स्रोतों का उपयोग कर भारत के सामाजिक और राजनीतिक इतिहास को नये सिरे से लिखा।
वी.के. राजवाड़े का मुख्य उद्देश्य पूरे देश से प्रामाणिक दस्तावेज़ जमा कर उन्हें प्रकाशित करना था। चूंकि मराठा साम्राज्य के पतन को ज़्यादा समय नहीं हुआ था, इसलिए वी.के. राजवाड़े ने उन सभी परिवारों से मूल दस्तावेज़ जमा करने का फ़ैसला किया, जिन्होंने मराठा साम्राज्य से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अहम भूमिका निभाई थी। चूंकि मराठा साम्राज्य अपने उरूज के दौरान उपमहाद्वीप के बड़े हिस्से में फैला हुआ था, इसीलिए ये परिवार देश के विभिन्न हिस्सों में रहते थे। सभी वित्तीय, भौतिक और मौसमी बाधाओं का सामना करते हुए, उन्होंने पूरे देश की यात्रा की और दस्तावेज़ के छोटे-से-छोटे टुकड़े को भी जमा किया।
उन्होंने इस काम के लिये उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान, पंजाब, रावलपिंडी, कराची से कर्नाटक और कन्याकुमारी तक की यात्राएं कीं। उन्होंने महाराष्ट्र के लगभग हर गांव का पैदल दौरा किया था। इन दस्तावेज़ों को इकट्ठा करना कोई आसान काम नहीं था। जिनके पास दस्तावेज़ थे, वे इन्हें देने में आनाकानी करते थे। एक व्यक्ति से कुछ दस्तावेज़ लेने के लिए उन्हें कई दिनों तक इंतज़ार करना पड़ता था।
कभी-कभी तो लोग अपने उपेक्षित पड़े दस्तावेज़ देने से सिर्फ़ इसलिए देने से इंकार कर देते थे, क्योंकि वे पीढ़ियों से उनके परिवार के पास थे। यहां तक कि उनकी एक प्रति देने से भी इनकार कर देते थे। अधिकांश लोगों को उनके पास मौजूद दस्तावेज़ों की अहमियत का अंदाज़ा भी नहीं था, और वी.के. राजवाड़े इन्हें हासिल करने के लिये हर मुमकिन हथकंडे अपनाते थे, और अज्ञानी ग्रामीणों को फुसलाया भी करते थे।
कई लोग अपने दस्तावेजों को लोगों की नज़रों से दूर सुरक्षित स्थानों पर छिपा देते थे। इन वर्षों के दौरान वी.के. राजवाड़े ने हज़ारों सिक्के, दस्तावेज़ और शिलालेख इकट्ठा करने में कामयाबी हासिल की। सन 1898 के आसपास, “मराठ्यांच्य इतिहासाची साधना” नामक उनकी श्रृंखला का पहला खंड प्रकाशित हुआ था, जिसमें मराठा साम्राज्य और अफ़ग़ानों के बीच पानीपत की तीसरी लड़ाई के लगभग आठ-नौ महीने बाद के लगभग 304 पत्र शामिल थे। मराठा शिविरों और दरबारों के नज़रिये से लिखे गए ये पत्र घातक युद्ध और इसके कारणों के बारे में थे। इन दस्तावेज़ से लोगों का ध्यान वी.के. राजवाड़े की तरफ़ गया, और जल्द ही वह महाराष्ट्र के इतिहास के प्रमुख इतिहासकारों के रूप में स्थापित हो गये। वी.के. राजवाड़े के जीवनकाल के दौरान, “मराठांच्य इतिहासाची साधना” के इक्कीस और खंड प्रकाशित हुए, जिसमें मराठा साम्राज्य के महत्वपूर्ण दस्तावेज़ शामिल थे। इनमें छत्रपति शिवाजी के पोते शाहू महाराज, पेशवा बाजीराव-प्रथम और तंजावुर में मराठा शासन के दस्तावेज़ शामिल हैं। ये सभी खंड मराठा इतिहास के अमूल्य स्रोत बन गए।
हम सभी मराठा राजा छत्रपति शिवाजी के इतिहास के बारे में जानते हैं, लेकिन उनके पिता शाहजी के बारे में हमारे पास ज़्यादा जानकारी नहीं थी। सन 1922 में,वी.के. राजवाड़े ने जयराम पिंडे नाम के व्यक्ति की लिखी शाहजी की जीवनी “राधा माधव विलास चंपू” नामक एक दस्तावेज़ प्रकाशित किया। राजवाड़े को एक पुराना दस्तावेज़ चिंचवाड़ के एक मकान से मिला था। वह दस्तावेज़, पुराने संस्कृत और मराठी दस्तावेज़ों के ढ़ेर के बीच बहुत ख़स्ता हाल में था। मूल दस्तावेज़ केवल लगभग 55-56 पृष्ठ के थे, लेकिन राजवाड़े ने उस दस्तावेज़ के आधार पर लगभग 200 पृष्ठों की एक विस्तृत प्रस्तावना लिखी थी, जिसमें उन्होंने एक
कविता का विश्लेक्षण भी किया था। इस विश्लेक्षण के ज़रिये उन्होंने कविता लिखे जाने के संभावित युग और संभावित स्थान का पता लगाया था। उनके इस विश्लेक्षण से पता लगा था, कि शाहजी का शासन देश के दक्षिणी हिस्सों में था।
उनकी सबसे प्रसिद्ध कृति संभवत: ‘माहिकावतीची बखर’ है, जिसमें पुर्तगालियों के आगमन के पहले मुंबई क्षेत्र का इतिहास है। बखर या एक ऐतिहासिक कथा, महाराष्ट्र के इतिहास के प्रमुख स्रोतों में से एक है। ‘माहिकावतीची बखर’ सबसे पुराने बखरों में से एक है, जिसकी रचना 200 वर्षों पहले हुई थी। लंबे समय तक इस दस्तावेज़ को लोक साहित्य माना जाता था, लेकिन सन 1924 में राजवाड़े ने बखर का अनुवाद प्रकाशित किया, जिसमें उत्तरी कोंकण और मुंबई- क्षेत्र के लगभग 400 वर्षों के इतिहास का दर्ज किया गया था।
इस अनुवाद ने तीसरी सदी के सोपारा और 16वीं सदी के पुर्तगालियों के प्राचीन इतिहास के बीच की खाई को पाटने में अहम भूमिका निभाई थी। बखर में इस क्षेत्र के लोगों के सामाजिक-राजनीतिक जीवन और इस क्षेत्र पर शासन करने वाले विभिन्न राजवंशों का इतिहास दर्ज हैं।
वी.के. राजवाड़े की एक और दिलचस्प रचना भारतीय विवाह संस्थेचाइतिहास (1926) है, जो विवाह-संस्था पर आधारित थी। ये भारतीय विवाह-प्रथा पर लिखे गए उनके निबंधों का संकलन था। जिसमें उन्होंने वेदों, पुराणों और महाभारत जैसे प्राचीन ग्रंथों पर आधारित लेख लिखे थे।
जल्द ही, राजवाड़े को अपना काम पूरा करने में मदद के लिए एक संगठन की ज़रूरत महसूस हुई। उन्होंने विद्वान के.सी. मेहेंदले के साथ मिलकर सन 1910 में, पुणे में प्रसिद्ध भारत इतिहास संशोधक मंडल की स्थापना की। संगठन का उद्देश्य एक छत के नीचे शोधकर्ताओं और इतिहासकारों को प्रामाणिक संसाधन उपलब्ध कराना था, ताकि उनका समय बर्बाद न हो। लेकिन प्रशासकों के साथ मतभेदों के कारण उन्होंने कुछ समय बाद मंडल छोड़ दिया। आज मंडल में ऐतिहासिक दस्तावेज़ों, सिक्कों, पेंटिंग, मूर्तियों, किताबों, खातों, तांबे की प्लेटों, नक़्शों, शुरुआती मराठी समाचार पत्रों और पांडुलिपियों का ख़ज़ाना जमा है।
सन 1926 में वी.के. राजवाड़े की धुले में की मृत्यु हो गई। धुले में स्थापित राजवाड़े शोधक मंडल में उनके बाद के जीवन में लिखी गई किताबें रखी हैं। इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस ने इतिहासाचार्य के सम्मान में भारतीय इतिहास में आजीवन सेवा और योगदान के लिए “विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़े पुरस्कार” भी शुरु किया।
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