लखनऊ का विलायती बाग़

लखनऊ की पूर्वी सीमा पर एक शाही गार्डन है जो एक नवाब ने अपनी यूरोपीय रानी के लिए बनवाया था? 19वीं सदी के आरंभिक वर्षों में बनवाए गए इस गार्डन को विलायती बाग़ कहते हैं जो गोमती नदी के किनारे पर स्थित है। ये बाग़ लखनऊ शहर की समृद्ध विरासत में एक छुपा हुआ नगीना है।

सन 1775 में अवध के चौथे नवाब असफ़उद्दौला (1775-1797) ने फ़ैज़ाबाद के बजाय लखनऊ को अवध की राजधानी बना लिया था । तब लखनऊ में कई सांस्कृतिक और वास्तुकला संबंधी बदलाव हुए। लखनऊ सदियों तक प्रमुख आर्थिक और शैक्षिक केंद्र रहा है और ये समृद्ध इतिहास तथा विरासत के लिये जाना जाता रहा है जो शहर के गौरवपूर्ण स्मारकों में झलकता है।

लखनऊ में कई ईमामबाड़े हैं जिनका एतिहासिक और धार्मिक महत्व है लेकिन ज़्यादातर लोगों को ये नहीं पता कि यहां कई बाग़ भी हैं जो नवाबों ने बनवाए थे और हर बाग़ के एक न एक दिलचस्प कहानी जुड़ी हुई है। उदाहरण के लिए शहर के बीचों बीच स्थित सिकंदर बाग़ है जो अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह (1847-56) ने बनवाया था। यहां सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता था और सन 1857 के विद्रोह के दौरान यहां भयंकर ख़ूनख़राबा भी हुआ था। इसी तरह शहर के दूसरी तरफ़ मूसा बाग़ है जिसे नवाब सआदत अली ख़ान (1798-1814) ने अपने और अपने यूरोपीय दोस्तों के मनोरंजन के लिए बनवाया था।

बाग़ों की लंबी फ़ेहरिस्त में विलायती बाग़ भी है जो मशहूर दिलकुशा महल के पास गोमती नदी के तट पर स्थित है।अमूमन माना जाता है कि ये बाग़ नवाब ग़ाज़ीउद्दीन हैदर (1818-1827) ने अपनी अंग्रेज़ पत्नी विलायती महल के लिए बनवाया था जिन्हें मुबारक महल के नाम से भी जाना जाता था। ग़ाज़ीउद्दीन हैदर अवध के अंतिम नवाब-वज़ीर थे जो अंग्रेज़ गवर्नर जनरल वॉरन हेस्टिंग के प्रभाव की वजह से अवध के राजा बन गये थे और उन्होंने ख़ुद को बादशाह-ए-अवध घोषित कर दिया था। बाद में ग़ाज़ीउद्दीन हैदर ने स्मारकों, ख़ासकर इमामबाड़ों के रखरखाव के लिए कर व्यवस्था की थी जिसे वसीक़ा कहा जाता था। जो आज भी जारी है।

कुछ लोगों का यह भी कहना है कि यह बाग़ ग़ाज़ीउद्दीन हैदर ने नहीं बल्कि उनके पुत्र नसीरउद्दीन हैदर ने बनवाया थाऔर बाग़ के नाम की वजह यह है कि यहां कई विदेशी पेड़-पौधे हुआ करते थे। बहरहाल, इस बारे में भले ही पुख़्ता जानकारी न हो लेकिन विलायती बाग़ लखनऊ के नवाबी युग की नुमाइंदगी करने वाले बेहद ख़ूबसूरत बाग़ों में से एक है।

अपने अच्छे दिनों में ये बाग़ नवाबों के मनोरंजन की जगह हुआ करता था जहां वे शानदार दावतें और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया करते थे। कहा जाता है कि किसी समय ये परिसर फूलों और दरख़्तों से भरा रहता था। हरेभरे बाग़ के बीच में यूरोपीय शैली का एक मकान होता था जिसमें अवधी वास्तुकला का भी पुट था। मकान के निर्माण में चूना-सुर्ख़ी गारे और लाखुरी ईंटों का इस्तेमाल किया गया था। 200X200 स्क्वैयरफ़ुट के इस घर में ऊंची दीवारें थीं जो शाही महिलाओं के लिये पर्दे का काम करती थीं।

बाग़ के दो प्रवेश द्वार हैं। मुख्य द्वार पश्चिम दिशा की तरफ़ था जो आज भी मौजूद है जबकि दूसरा द्वार पूर्व दिशा में था जो गोमती नदी की तरफ़ खुलता था। चूंकि बाग़ गोमती नदी के तट पर था इसलिये नवाब और उनके मेहमान शहर के बीच महल से नाव में यहां आते-जाते थे। उस समय नदियां ही आवागमन का ज़रिया थीं और नदियां ही शहर को जुड़ती थीं।

मकान के अलावा बाग़ में एक मेहराबदार पुल और तीन यूरोपीय क़ब्रें भी हैं। दो क़ब्रें एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं जबकि तीसरी क़बर कुछ दूरी पर है। यूरोपीय क़ब्रें अंग्रेज़ सैनिकों की हैं जो सन 1857 के ग़दर के दौरान मारे गए थे। सन 1857 में लखनऊ पर अंग्रेज़ों के हमले के दौरान विलायती बाग़ और दिलकुशा महल को बहुत नुक़सान पहुंचा था। ग़दर में सरकारी आवास और मार्टिनियर कॉलेज को भी नुकसान पहुंचा था इसके अलावा काफ़ी लोग भी मारे गए थे।

तीसरी क़ब्र सर्जेंट एस. न्यूमैन की याद में बनाई गई थी जो महारानी के 9वीं शाही घुड़सवारों में से एक था। न्यूमैन 19 मार्च सन 1858 में मूसा बाग़ के पास बाग़ियों का पीछा करते वक़्त बुरी तरह ज़ख़्मी हो गया था और बाद में उसकी मौत हो गई थी। 1857-58 में आज़ादी की पहली लड़ाई में बाग़ बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया था।

विलायती बाग़ में देखने और समझने के लिए बहुत कुछ है लेकिन अफ़सोस कि इस पर स्थानीय और सैलानियों का कम ही ध्यान जाता है लेकिन हाल ही में उम्मीद की किरण दिखाई दी, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने इस बाग़ की बदहाली पर ध्यान दिया और इसकी मरम्मत करवाई है जिसकी वजह से ये बाग़ धीमी मौत से बच गया है। लखनऊ का यह विचित्र स्थान देखने से ताल्लुक़ रखता है। अगर आप शहर की आपाधापी से भागकर एक शांत जगह में कुछ वक़्तआराम से ग़ुज़ारना चाहते हैं तो ये बाग़ निहायत ही मुनासिब जगह है।

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