‘मैथली कवि कोकिल’ विद्यापति ठाकुर

“सक्कय वाणी बहुजन भाबइ
पाउअ रस को मम्म न पाबइ
देसिल बयना सब जन मिट्ठा
त तसैन जम्पओ अवहट्टा”

अर्थात, संस्कृत केवल शिष्टजनों की वाणी है अतः इसमें सबको काव्य के मर्म के बारे में पता नहीं चलेगा। देशी काव्य के मर्म के बारे में पता नहीं चलेगा। देशी भाषा/वाणी/बोली सबसे मीठी भाषा होती है इसलिए मैं अवहट्ट में ही रचना करता हूँ।

उक्त बात स्थानीय भाषा के प्रसिद्ध लेखकों में से एक ने अपनी ख़ुद की भाषा या मातृभाषा में कविता लिखने के बारे में कही थी। विद्यापति ठाकुर, जिन्हें “मैथली कवि कोकिल” यानी मिथिला की कोयल के नाम से भी जाना जाता है, की गिनती 14वीं सदी के मैथली भाषा के सबसे प्रसिद्ध लेखकों में होती है। विद्यापति ने संस्कृत भाषा में भी काफ़ी लिखा लेकिन उन्हें ख्याति मैथली भाषा में लेखन की वजह से ही मिली। नोबेल पुरस्कार से सम्मानित रवींद्रनाथ ठाकुर भी उनके लेखन से बहुत प्रभावित थे।

विद्यापति को संस्कृत, अवहट्ट और मैथली भाषा में उनके बहुमूल्य योगदान के लिए जाना जाता है। अवहट्ट पूर्वी भारत में बोली और लिखी जानी वाली भाषा है। वैसे ही जैसे बंगाली, मैथली, असमी और उड़िया भाषाएं हैं। इसका संबंध इन भाषाओं के क्रमागत विकास से है। विद्यापति ने वैष्णव और शैव संप्रदाय से संबंधित क़रीब आठ सौ गीत अथवा पद लिखे हैं। उन्होंने कृष्ण और राधा को समर्पित भक्ति और प्रेम कविताओँ की भी रचना की है।

उनकी रचनाओं की प्रसिद्धी और प्रभाव सिर्फ़ मिथिला क्षेत्र तक ही नहीं बल्कि मौजूदा समय के पश्चिम बंगाल, असम, ओडिशा और नेपाल तक फैला हुआ था। अगर आप इन क्षेत्रों में जाएं तो वहां आज भी आप स्थानीय गीतों अथवा भजनों में उनकी कविताएं सुन सकते हैं। आज जिस मिथिला क्षेत्र को हम जानते हैं, यह सीखने और संस्कृति का एक महत्वपूर्ण महत्वपूर्ण केंद्र था। इसे तिरहुत और त्रियुक्ति के रूप में भी जाना जाता है। मिथिला पूर्व में महानंदा नदी, दक्षिण में गंगा, पश्चिम में गंडकी नदी और उत्तर में हिमालय की तलहटी से घिरा है। इसमें भारत के बिहार और झारखंड के कुछ हिस्सों और नेपाल के पूर्वी तराई से सटे जिले शामिल हैं। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, मिथिला कभी भगवान राम की पत्नी सीता के पिता जनक का राज्य था। वह इस कारण से मैथिली के रूप में भी जानी जाती हैं।

मध्यकालीन युग में मिथिला क्षेत्र को प्रसिद्धी मिली। 11वीं सदी में यहां कर्नाट राजवंश का शासन था जिनकी राजधानी सिम्रौनगढ़ (नेपाल) हुआ करती थी। इसके बाद इस राजवंश ने आधुनिक समय के बिहार के दरभंगा को अपनी राजधानी बना लिया। कर्नाट राजवंश के बाद यहां 14वीं से 16वीं सदी तक ओइनीवार राजवंश का शासन हो गया। इन्हीं के शासन काल में विद्यापति का जन्म और उदय हुआ।

विद्यापति ठाकुर का जन्म बिहार में, दरभंगा ज़िले के बिसफी गांव में क़रीब सन 1350 में हुआ था। उनका परिवार विद्वानों और राजनीतिज्ञों का था जिनकी पांच से ज़्यादा पीढ़ियों ने मैथली समाज के विकास में भरपूर योगदान किया। विद्यापति बचपन में अपने मैथली ब्राह्मण पिता के साथ ओइनीवार के दरबार में जाया करते थे। वह कीर्ति सिंह और शिव सिंह जैसे राजकुमारों के साथ खेला भी करते थे जिन्होंने मिथिला के इतिहास और संस्कृति को गढ़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। विद्यापति सभी राजकुमारों में से, शिव सिंह के सबसे ज़्यादा क़रीब थे। आगे चलकर विद्यापति शिव सिंह के विश्वासपात्र मित्र, कर्तव्यनिष्ठ सलाहकार और अभिन्न मित्र बन गए थे। विद्यापति शिव सिंह के दरबार में कवि भी बन गए थे।

माना जाता है कि विद्यापति ने जो कुछ सीखा उसमें ज़्यादातर मिथिला में ही सीखा था जहां देश भर के विद्वान आकर शास्त्र अथवा धर्म और सामाजिक मूल्यों पर चर्चा किया करते थे। एक छात्र के रुप में विद्यापति ने क्या पढ़ा-लिखा, इस बारे में हमारे पास ज़्यादा जानकारी नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने किसी गुरु से पढ़ाई करने में कोई ख़ास समय नहीं बिताया था। हम ऐसा इसलिए कह रहे हैं क्योंकि विद्वानों के अनुसार विद्यापति ने शुरुआत का काफी समय आधुनिक उत्तर प्रदेश में विष्णु मंदिर नैमिषारण्य में बिताया था।

विद्यापति, देव सिंह के साथ नैमिषारण्य चले गए थे। देव सिंह ने अपने छोटे पुत्र शिव सिंह को अपना उत्तराधिकारी बनाकर सन 1368 में राजपाट छोड़ दिया था। नैमिषारण्य में विद्यापति ने “भूपरिक्रमा” नाम से संस्कृत में गद्य लिखा। कुछ विद्वानों के अनुसार ये उनकी पहली प्रमाणिक रचना थी। “भूपरिक्रमा” में उन्होंने नैमिषारण्य से लेकर तिरहुट तक के मार्ग का वर्णन किया है। वर्णन के बीच बीच में आठ कहानियां भी हैं। विद्यापति, शिव सिंह के शासन के बहुत पहले ओइनीवार के दरबार में शामिल हो गए थे। सन 1370 के आसपास में जब शिव सिंह सत्ता में अपनी पैठ जमा रहा था तब विद्यापति को तिरहुत बुलाया गया। तब से लेकर सन 1400 के आरंभिक वर्षों तक, जब शिव सिंह का निधन हुआ, विद्यापति, शिव सिंह के विश्वासपात्र मित्र और सलाहकार बने रहे। ये वो समय था जब विद्यापति ने शिव सिंह के संरक्षण में अपने कई प्रसिद्ध काव्यों की रचना की और ख़ूब मशहूर हुए।

ओइनीवार शासक कला और संस्कृति के बड़े संरक्षक थे और उनके शासनकाल में मैथली भाषा ख़ूब फलीफूली थी। आधिकारिक रुप से विद्यापति का पद राज पंडित का था। पंडितों का स्वागत करना, उनकी देखभाल करना और उन्हें इनाम इत्यादि देने की व्यवस्था करना विद्यापति की ज़िम्मेदारी थी। लेकिन वह राजा के वफ़ादार सलाहकार,अभिन्न मित्र और भरोसेमंद अधिकारी थे। शिव सिंह जब राजगद्दी पर बैठे तो उन्होंने विद्यापति को अनुदान में अपना ख़ुद का गांव भेंट किया और अभिनव जयदेव के ख़िताब से सम्मानित किया।

विद्यापति, शिव सिंह के दरबार में करीब 36 साल तक रहे। इस दौरान विद्यापति ने अपने अधिकतर गीतों और गद्यों की रचना की जिसकी वजह से वह अमर हो गए। उन्होंने इस दौरान अपने चार सबसे प्रसिद्ध काव्यों की भी रचना की। उन्होंने महाराजा कीर्ति सिंह की प्रशंसा में “कीर्तिलता” और शिव सिंह की स्तुति में “कीर्तिपताका” जैसे प्रशंसात्मक निबंध भी लिखे। उन्होंने “अबहट्ठा भाषा” में कीर्तिपताका और कीर्तिलता निबंध, संस्कृत गद्ध और पद्ध में पुरुषपरीक्षा और संस्कृत तथा प्राकृत भाषा में “गोरक्ष विजय” नाटक लिखा। इस नाटक में उन्होंने मैथिली में गीतों का अनोखा प्रयोग किया था। दरबार में रहते हुए उन्होंने “राधा-कृष्ण” पर कई पद भी लिखे।

उन्होंने ख़ुद अपने हाथों से संपूर्ण श्रीमद् भागवत की नक़ल की । सन 1428 में लेखक की हस्ताक्षरित ये पूरी पांडुलिपी दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में आज भी रखी हुई है। भैरवसिंह अंतिम शासक थे जिसके मातहत रहते हुए उन्होंने “दुर्गा भक्ति तरंगिणी” की रचना की।

आज भी मिथिला क्षेत्र में विद्यापति का नाम आदर से लिया जाता है। यहां उनकी कुछ पुरानी पांडुलीपियां मिली थीं। लेखक नगेंद्रनाथ गुप्ता ने अपनी किताब “ ए प्लेस ऑफ़ मैन एंड अदर एसेज़ (1928)” में लिखा है कि दरभंगा ज़िले के एक गांव में ताड़ के एक पत्ते पर कवि की हस्तलिपि में श्रीमद् भागवतम की एक पांडुलिपी है जो एक अनमोल ख़ज़ाना है। मैथिल के घरों में विद्यापति की कई कविताएं मिल सकती हैं लेकिन इसके अलावा इस दिशा में और कुछ नहीं किया गया।

विद्यापति के साहित्य में कितना जादू और कशिश थी, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके बाद बंगाल और नेपाल में कई कवियों ने विद्यापति की रचनाओं की नक़ल की और उनकी कविताओं में थोड़ा बहुत रद्दोबदल करके, अपने नाम से पेश कर दिया। वह भारत में पूर्वी साहित्य के सबसे प्रसिद्ध लेखकों में से एक हैं। उनका अधिकतर काम वैष्णव परंपरा, साहित्य और आराधना से संबंधित है। उनके भक्ति गीतों की वजह से आज भी मिथिला क्षेत्र में उनका आदर किया जाता है।

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