25 जुलाई सन 1857 को पटना ( बिहार) से क़रीब 12 कि.मी. दूर बंगाल देसी पैदल सेना की दीनापुर (दानापुर) में तैनात तीन देसी रेजीमेंटों ने, ईस्ट इंडिया कंपनी के ख़िलाफ़ बग़ावत कर दी थी। 26 जुलाई को वो शाहबाद ज़िले पहुंची जहां जगदीशपुर के कुंवर सिंह भी बग़ावत में शामिल हो गये। कुंवर सिंह भारत में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ इस संघर्ष में उनका नेतृत्व कर रहे थे। सन 1857 के विद्रोह का ये अध्याय कुंवर सिंह राजपूत के नेतृत्व की वजह से इतिहास में एक ख़ास स्थान रखता है। अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ जंग में कुंवर सिंह की 80 साल उम्र भी आड़े नहीं आई । वह बिहार में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ाई में हीरो बन गये थे।
सन 1857 का विद्रोह तब शुरु हुआ जब भारतीय सिपाहियों ने मेरठ में, 10 मई सन 1857 को अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ हथियार उठा लिये थे। मेरठ के विद्रोह का असर पूरे उत्तर-पश्चिमी भारत पर पड़ा और बिहार भी इससे अछूता नहीं रहा। बिहार प्रांत अंग्रेज़ हुक़ूमत के लिये चुनौती का केंद्र बन गया था। उस समय बिहार बंगाल के गवर्नर फ़्रेडरिक हैलीडे के अंतर्गत आने वाले क्षेत्रों का एक हिस्सा था। बिहार प्रांत में तब पटना, गया, शाहबाद, सारन, चंपारण तिरहुट ज़िले आते थे। इनके अलावा भागलपुर और छोटा नागपुर संभाग भी इसमें शामिल थे।
अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आंदोलन में पहली बड़ी घटना तीन जुलाई को पटना में हुई। पीर अली नामक किताब बेचने वाला व्यक्ति इसमें सबसे आगे था। इस विद्रोह में बिहार के अफ़ीम एजेंट का मुख्य सहायक डॉ. लिएल मारा गया था। ये औपनिवेशिक राजस्व पर कुठाराघात था जिसकी धमक सारे बिहार में सुनाई पड़ी। पीर अली पर हत्या का मुक़दमा चला और उसे फांसी पर लटका दिया गया। बिहार में बग़ावत की अगली बड़ी घटना कुंवर सिंह के नेतृत्व में दीनापुर में हुई। कुंवर सिंह असल में जगदीशपुर के जमींदार थे।
कुंवर सिंह का जन्म 13 नवंबर सन 1777 को बिहार राज्य के शाहबाद ज़िले (अब भोजपुर) के जगदीशपुर में हुआ था।
उनके पिता का नाम साहेबज़ादा सिंह और मां का नाम महारानी पंचरतन देवी था। जगदीशपुर जागीर पर उज्जैनी राजपूतों का शासन होता था। ये राजपूत ख़ुद को मालवा के परमार राजवंश का वारिस होने का दावा करते थे। बिहार का भोजपुर प्रांत परमार राजा भोज (1010-1055) के नाम पर रखा गया था। जगदीशपुर जागीर पर उज्जैनी राजपूतों ने सन 1702 के बाद शासन किया। इन्हीं में से ही एक राजा साहेबज़ादा सिंह का निधन सन 1826 में कभी हो गया और उनकी जगह उनके पुत्र कुंवर सिंह की ताजपोशी हो गई। कुंवर सिंह बचपन से ही जांबाज़ थे। कुंवर सिंह के सत्ता संभालने के समय जागीर का कुल राजस्व क़रीब 5 से 6 लाख रुपये था जिसमें से क़रीब एक-दो लाख रुपये सरकार को राजस्व के रुप में दिया जाता था। राजगद्दी पर बैठने के बाद कुंवर सिंह ने सारी संपत्ति अपने नाम रजिस्टर करने और अपने कब्ज़े में लेने की दिशा में क़दम बढ़ाये।
लेकिन कुंवर सिंह की किस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था। वह उदार और आज़ाद ख़यालात के व्यक्ति थे। उन्होंने विभिन्न लोगों और संस्थानों को बड़े बड़े अनुदान देना शुरु कर दिये। कुछ सामाजिक रीति रिवाजों पर बहुत ख़र्च करते थे और उन्हें शिकार आदि का भी शौक़ था। इन तमाम वजहों से उनकी जागीर भारी कर्ज़े में दब गई। सन1838 तक उन पर क़रीब 17 लाख रुपये का कर्ज़ चढ़ गया था जो सन 1857 के आते आते 20 लाख रुपये से भी ज़्यादा हो गया।
इस बात पर ध्यान देना महत्वपूर्ण होगा कि सन 1857 की बग़ावत के पहले कुंवर सिंह के बंगाल सरकार के साथ अच्छे संबंध थे और यहां तक कि पटना के कमिश्नर विलियम टैलर के साथ भी दोस्ताना ताल्लुक़ात थे। 1854-55 में बंगाल सरकार ने कुंवर सिंह को दिवालिया होने से बचाने के लिये उनकी जागीर का प्रबंधन अपने हाथों में लेकर इससे होने वाली आमदनी से शाहबाद के कलेक्टर ने देनदारों का कर्ज़ धीरे-धीरे चुकाने का फ़ैसला किया। इसी दौरान कुंवर सिंह ने पैसे उधार लेकर कुछ क़र्ज़ चुकाने की कोशिश की लेकिन उन्हें इसमें सफलता नहीं मिल पाई।सन 1857 की क्रांति के कुछ पहले राजस्व बोर्ड ने टैलर के मार्फ़त कुंवर सिंह को संदेश भिजवाया कि अगर उन्होंने पूरा क़र्ज़ एक माह के अंदर नहीं चुकाया (जो नामुमकिन था) तो वे सरकार से उनके सारे अधिकार वापस लेने और जागीर का प्रबंधन छोड़ने की सिफ़ारिश करेंगे। कुंवर सिंह ने बोर्ड के इस फ़ैसले को उनकी संपत्ति का अधिग्रहण माना। यहां तक कि इस फ़ैसले से टैलर भी ख़ुश नहीं था। टैलर ने बंगाल के लेफ़्टिनेंट गवर्नर हैलिडे को समझाने की कोशिश की लेकिन बात बनी नहीं। आख़िरकार सदर कोर्ट में कुंवर सिंह के ख़िलाफ़ मुक़दमा दर्ज हो गया। तब तक उनके पास कुछ भी नहीं बचा था। इसी घटना से कुंवर सिंह बाग़ी हो गया और वह क्रांतिकारियों के साथ शामिल हो गया। राजपूतों ने उसे अपना नेता मान लिया हालंकि तब तक उसकी उम्र 79 साल हो चुकी थी।
अंग्रेज़ प्रशासन के कुछ लोगों ने कुंवर सिंह के, इस तरह का क़दम उठाने के बारे में सोचा नहीं था लेकिन बाक़ी लोगों का मानना था कि कुंवर सिंह ने बग़ावत की योजना बहुत पहले ही बनाली थी। आरा के मजिस्ट्रेट एच. सी. वेक ने 29 जनवरी सन 1858 को पटना के कमिश्नर को लिखे पत्र में कहा, “जो सूचना मुझे मिली है उसमें कोई शक नहीं कि कुंवर सिंह पहले से बग़ावत की योजना बना रहे थे और दीनापुर रेजीमेंट का इंतज़ार कर रहे थे। मैं जानता हूं कि कहा जा रहा है कि कुंवर सिंह की, बग़ावत की योजना पहले से सोची समझी नहीं है लेकिन मुझे पक्का यक़ीन है कि वह कम से कम तीन महीने से उचित समय का इंतज़ार कर रहे थे।” जुलाई में बग़ावत के कुछ दिन पहले ही आरा में ख़बरे फैल रही थीं और पर्चे बंट रहे थे कि जल्द ही बग़ावत होने वाली है। टैलर को ख़ुद अज्ञात लोगों से बग़ावत के बारे में ख़बरे मिल रहीं थीं।
आरा शहर शाहबाद ज़िले का मुख्यालय था। यहां अंग्रेज़ों और ईस्ट इंडिया कंपनी तथा ईस्ट इंडियन रेल्वे कंपनी के यूरोपीय कर्मचारियों की अच्छी ख़ासी आबादी थी। 26 जुलाई को दीनापुर से रेजीमेंट आरा की तरफ़ बढ़ी। 27 जुलाई की सुबह कुंवर सिंह और उनकी सेना सहित अन्य क्रांतिकारी आरा पहुंच गए। कुंवर सिंह के साथ उनके भाई अमर सिंह, भतीजा रितभंजन सिंह, उनका दोस्त निशान सिंह और उनका तहसीलदार हरकिशन सिंह था। उन्होंने आरा की जेल से क़ैदियों को रिहा करवा लिया। फिर उन्होंने सरकारी ख़ज़ाने से 85 हज़ार रुपये लूटे और अंग्रेज़ सेना को घेर लिया। मजिस्ट्रेट एच.एस. वेक और सभी यूरोपीय निवासी पहले से ही (26 जुलाई की शाम) दो मंज़िला मकान में शरण ले चुके थे जिसकी सुरक्षा रेल्वे इंजीनियर विकार्स बोयल ने मज़बूत कर दी थी। बाग़ियों ने घेराबंदी पांच अगस्त तक जारी रखी। अगस्त में बंगाल तोपख़ाने का मेजर विंसेंट आयर आरा की तरफ़ रवाना हुआ। दो अगस्त को बीबीगंज में कुंवर सिंह की सेना के साथ भीषण लड़ाई के बाद, वह तीन अगस्त को आरा पहुंचे और उन्होंने अंग्रेज़ सेना की घेराबंदी तुड़वाई और आरा पर नियंत्रण कर लिया। इस घटना को आरा पर कब्ज़ा नाम से जाना जाता है और इसे सन 1857 के आंदोलनों में कम ही जाना जाता है।
कुंवर सिंह और उनकी सेना लगभग एक साल तक अंग्रेज़ों विरुद्ध लड़ती रही। विंसेंट आयर की सेना ने जगदीशपुर में भी ख़ूब लूटपाट की और उसे अपने कब्ज़े में कर लिया था। कुंवर सिंह को छापामार युद्ध का माहिर माना जाता था और उन्होने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ इस युद्ध कला का ख़ूब इस्तेमाल किया था। मार्च सन 1858 में कुंवर सिंह ने आज़मगढ़ (अब उत्तर प्रदेश में) पर कब्ज़ा कर लिया। उन्होंने अंग्रेज सेना के ब्रिगेडियर डगलस के नेतृत्व में लड़ रहे अंग्रेज सैनिकों से लड़ाई लड़ी थी।
कुंवर सिंह की बहादुरी का एक और क़िस्सा है। आज़मगढ़ में लड़ाई के बाद जब वह गंगा नदी पार कर रहे थे, तभी उन्हें अंग्रेज़ सेना की गोली लग गई। गोली उनकी कलाई में लगी थी। उन्होंने तुरंत अपना वो हाथ ही काटकर नदी में फेंक दिया ताकि उनकी सेहत को और नुक़सान न पहुंचे। और फिर भी हिम्मत नहीं हारे।
पूर्वी यूपी में अलग अलग स्थानों पर अंग्रेज़ सेना से आठ महीने लड़ने के बाद कुंवर सिंह ने जगदीशपुर लौटने का फ़ैसला किया। कुंवर सिंह ने अपनी बहादुरी और संयम से 21 अप्रैल को गंगा नदी पार की और शाहबाद की ओर रवाना हो गये। ब्रिगेडियर डगलस उन्हें मनाने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन इसी बीच अंग्रेज़ सेना के कैप्टन ले ग्रांदे ने 23 अप्रैल सन 1858 को जगदीशपुर में जंग छेड़ दी।
अंग्रेज़ सेना से कड़ी लड़ाई के बाद कुंवर सिंह ने अंग्रेज़ सेना को अपनी ज़मीन से खदेड़ दिया। कहा जाता है कि गंभीर रुप से घायल होने के बावजूद कुंवर सिंह लड़ते रहे और उन्होंने जगदीशपुर क़िले से यूनियन जैक उतारकर भारतीय ध्वज फेहरा दिया। लड़ाई के तीन दिन बाद घायल कुंवर सिंह ने 26 अप्रैल सन 1858 की सुबह ख़ामोशी से दम तोड़ दिया। उनकी मौत के बाद उनके भाई अमर सिंह के नेतृत्व में नवंबर सन 1858 तक अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ जंग जारी रही।
कुंवर सिंह को वीर कुंवर सिंह के नाम से याद किया जाता है। बिहार के भोजपुर ज़िले में आरा के पास जगदीशपुर में वीर कुंवर सिंह को समर्पित एक संग्रहालय भी है। उन्हें बिहार में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ाई में उनके महान योगदान और 80 साल की उम्र में भी लंबी लड़ाई लड़ने के लिये आज भी सम्मान दिया जाता है ।
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