वाघेर विद्रोह: सौराष्ट्र में सन 1857 की बग़ावत

भगवान कृष्ण को समर्पित द्वारकाधीश मंदिर के दर्शन करने के लिये गुजरात में हर साल लाखों तीर्थ-यात्री द्वारका आते हैं। यहां से 15 किमी दूर बेट द्वारका द्वीप है। स्थानीय मान्यताओं के अनुसार, ये कभी भगवान कृष्ण की राजधानी हुआ करता था। लेकिन आपको जानकर यह हैरानी होगी, कि द्वारका और बेट द्वारका दोनों ही अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ सन 1857 के विद्रोह के साक्षी थे। इतना ही नहीं, ‘वाघेर विद्रोह’ दिल्ली, लखनऊ और झांसी जैसी जगहों पर विद्रोह को दबाये जाने के लगभग एक साल बाद यानी अक्टूबर सन 1859 तक जारी रहा। चूंकि इस विद्रोह का नेतृत्व वाघेर समुदाय कर रहा था, इसलिये इसे ‘वाघेर विद्रोह’ कहा जाता है।

सौराष्ट्र में सन 1857 के विद्रोह की कहानी बहुत दिलचस्प है।

प्राचीन काल से द्वारका आध्यात्म और व्यापार का केंद्र रहा है। पेरिप्लस ऑफ़ एरिथ्रियन सी में इसे बाराका कहा गया है।  द्वारका और बेट द्वारका सिंधु घाटी सभ्यता के हड़प्पा युग का हिस्सा रहे हैं। जहां द्वारका एक प्रमुख तीर्थस्थल के रूप में उभरा, वहीं बेट द्वारका में 13वीं सदी में कुल्लरकोट नाम का एक क़िला बनाया गया। यह क़िला वाघेर के किसान समुदाय ने अपने व्यापारिक हितों की हिफ़ाज़त के लिए बनाया था। 10वीं सदी में ये समुदाय स्थानीय सरदारों के रूप में उभरा था।

वाघेर समुदाय के बारे में कोई ख़ास जानकारी नहीं मिलती है। कहा जाता है कि 15वीं शताब्दी के दौरान जब ओखमण्डल गुजरात सल्तनत के अधीन हुआ, तो वाघेर समुदाय के कुछ लोगों ने सूफ़ीमत अपना लिया था। वे इस क्षेत्र में खेती, मछली पकड़ने और समुद्री यात्रा जैसे विभिन्न काम शांतिपूर्वक किया करते थे। वे अपने व्यवसाय में कुशल हो गये थे, जिसकी वजह से ओखमण्डल काठियावाड़ प्रायद्वीप के प्रमुख व्यापार केंद्रों में से एक बन गया था। इस समुदाय के ज़्यादातर लोग द्वारका और वसई (अब मेहसाणा ज़िले में) में बस गये थे।

19वीं सदी की शुरूआत में मंज़र तब बदला, जब अंग्रेज़ धीरे-धीरे पश्चिमी तट सहित भारतीय उपमहाद्वीप में अपनी पैठ जमाने लगे। ज़ाहिर है, इससे वाघेर समुदाय नाराज़ हो गया। उसने सन 1804 में ओखा में एक ब्रिटिश जहाज़ को लूट लिया। इससे नाराज़ अंग्रेजों ने सन 1894, सन 1807 और सन 1810 में उनसे मुक़ाबला किया, जिसके बाद अंग्रेज़ युद्ध में हुए भारी नुक़सान की भरपाई वाघेर समुदाय से करवाना चाहते थे। सन 1816 में  कर्नल ईस्ट ने बेट पर हमला कर बेट क़िले पर क़ब्ज़ा कर लिया। इस बीच मराठों के अधीन रहकर, गायकवाड़ बड़ौदा के शासकों के रूप में उभर आये थे। तीसरे एंग्लो-मराठा युद्ध (1817-18) के बाद गायकवाड़ों  ने अंग्रेज़ों से हाथ मिला लिया था, और इस तरह उनके क्षेत्र बॉम्बे प्रेसीडेंसी के अधीन हो गए।  गायकवाड़ों को ओखमण्डल क्षेत्र दे दिया गया और उन से युद्ध में हुये नुक़सान की भरपाई करने का आदेश दिया गया।

अंग्रेज़ों और गायकवाड़ों के बीच समझौता न सिर्फ़ वाघेर बल्कि कोली और भील जैसे अन्य स्थानीय समुदायों के लिये भी ख़तरा बन गया था। जैसे ही दोनों (अंग्रेज़ और गायकवाड़ों) ने अपने शासन का विस्तार किया, वाघेरों ने सन 1818 और सन 1820 में जगह-जगह विद्रोह किया, लेकिन उनके विद्रोह को कुछ ही समय में कुचल दिया गया।

सन 1852 में लॉर्ड डलहौज़ी (1812-1860) के नेतृत्व में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने बॉम्बे रेंट फ़्री एस्टेट्स एक्ट (1852) के हिस्से के रूप में इनाम आयोग बनाया। आयोग ने भू-अनुदानों में अभिलेखों और राजस्व की जांच की, और उन ज़मीनों के अधिग्रहण की भी सिफ़ारिश की जिन पर राजस्व का भुगतान नहीं किया गया था। इस फ़ैसले के तहत कंपनी ने कई ज़मीनों को ज़ब्त कर लिया, क्योंकि ज़मीन के मालिक, ज़मीन पर मालिकाना हक़ जैसे दस्तावेज़ पेश करने में नाकाम रहे। इस आयोग के तहत बड़ी संख्या में वाघेर समुदाय की बड़ी संपत्तियों को ज़ब्त कर लिया गया, जिससे समुदाय में भारी असंतोष पैदा हो गया।

सन 1857 का विद्रोह मेरठ से शुरू हुआ, जो उत्तरी और मध्य भारत के अधिकांश हिस्सों में फैल गया। दिल्ली, झांसी कानपुर में विद्रोह की कहानी जग-ज़ाहिर है, लेकिन पूर्वी गुजरात के कुछ हिस्सों में भी बग़ावत हुई, ख़ासतौर पर राजपीपल के आसपास के क्षेत्रों में। वहां जुलाई-सितंबर, सन 1857 में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ विद्रोह हुआ, जिसे सन 1857 के अंत तक कुचल दिया गया।

इस बीच, एक और विद्रोह की संभावना को देखते हुए द्वारका में गायकवाड़ प्रशासन ने वाघेर समुदाय को नाशपाती के कांटेदार जंगलों को काटने और दूसरे छोटे मोटे कामों पर लगा दिया, ताकि वे इनमें व्यस्त रहें। उन्हें स्थानीय पुलिस बल में भर्ती करने की भी योजना थी।

लेकिन वाघेर समुदाय को उत्तर भारत से आनेवाले तीर्थ-यात्रियों से, पड़ोसी क्षेत्रों में होने वाली झड़पों की ख़बरें मिलीं। उसके बाद उपमहाद्वीप के कई क्षेत्रों में ब्रिटिश राज को उखाड़ फैंकने की अफ़वाहों की वजह से वाघेरा समुदाय में भी असंतोष बढ़ने लगा। अंत में एक जनवरी सन 1858 को, जोधा मानेक और मुलु मानेक (दोनों का जन्म वर्ष अज्ञात) के नेतृत्व में वाघेर समुदाय के लोग ओखा में जमा हुये। उसी बैठक में गायकवाड़ और अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ विद्रोह करने का फ़ैसला लिया गया।

फ़रवरी सन 1858 में, वाघेर समुदाय ने पास के शहर वसई से ब्रिटिश सेना पर हमला करना शुरू कर दिया, जिसके नतीजे में गायकवाड़ के फ़ौजी पीछे हट गए। यहां से उन्होंने गायकवाड़ की सेना और ब्रिटिश सैनिकों पर हमले किये और ओखमण्डल क्षेत्र पर पूरी तरह से क़ब्ज़ा कर ख़ुद को एक संयुक्त शक्ति के रूप में स्थापित कर दिया। एक मार्च तक उन्होंने बेट द्वारका क़िले पर दोबारा क़ब्ज़ा कर लिया, और गायकवाड़ प्रशासकों पर कड़ी निगरानी रखने लगे। साथ ही जोधा को ‘द्वारका का राजा’ घोषित कर दिया गया।

स्थिति को देखते हुए और कई समुदाय वाघेरों के साथ आ गये और उन्होंने भाग रहे गायकवाड़ सैनिकों को मारकर उनके हथियार और गोला-बारूद लूट लिये। कई दस्तावेज़ों में दावा किया गया है, कि जोधा ने जामनगर और पोरबंदर के राजाओं को पत्र लिखकर कहा, कि वह ब्रिटिश और गायकवाड़ की मदद न करें। हालांकि विद्रोह आधिकारिक तौर पर भारतीय उपमहाद्वीप के बाक़ी हिस्सों में सन 1858 तक समाप्त हो गया था, लेकिन ओखमण्डल, जुलाई सन 1859 तक पूरी तरह आज़ाद था। इस बीच ब्रिटिश सरकार ने इस क्षेत्र पर फिर कब्ज़ा करने के लिए कर्नल डोनावन और कर्नल स्क्राइब को नियुक्त किया।

हालांकि सन 1858 में दिल्ली पर अंग्रेज़ों का दोबारा कब्जा हो गया था , लेकिन द्वारका सन 1859 के अंत तक यानी अंग्रेज़ों के कब्ज़े के पहले तक स्वतंत्र रहा।

4 अक्टूबर, सन 1859 को कर्नल डोनोवन ने अपने जहाज़ों से बेट द्वारका पर हमला किया और साथ ही पैदल सेना को तैनात कर दिया। बेट क़िले को न केवल पूरी तरह से नष्ट कर दिया गया बल्कि मंदिरों और अन्य भवनों में लूटपाट भी की गई। इस दौरान सैनिकों ने कई लोगों का क़त्ल भी कर दिया।

वाघेर हार गए और उनका एक नेता देवा छबानी मारा गया। अब वे द्वारका में रहकर अंग्रेज़ों से लड़ने की तैयारी करने लगे। लेकिन एक गुप्त सूचना मिलने के बाद अंग्रेज़ समय से पहले ही द्वारका पहुंच गए और 31 अक्टूबर, सन 1859 को द्वारका में वही किया जो उन्होंने बेट द्वारका में किया था। द्वारका पर कब्ज़े के बाद वहां के मंदिरों में लूटपाट की गई जिसका कच्छ, पोरबंदर और जामनगर के शासकों ने विरोध किया। बाद में लूट का सामान वापस कर दिया गया।

वाघेर समुदाय के ज़्यादातर लोगों ने जहां आत्मसमर्पण कर दिया वहीं  कुछ जोधा और मुलु के साथ अभापारा पहाड़ियों में भाग गये जहां से उन्होंने छापामार युद्ध शुरु कर दिया। विद्रोह के इस अंतिम प्रयास को कुचलने के लिए, जूनागढ़, जामनगर और पोरबंदर की रियासतों ने अंग्रेज़ों की सहायता के लिए अपने दीवान और सेनाएं भेजीं। सन 1859 के अंत में  विद्रोह तब समाप्त हो गया, जब मुलु को उसके समर्थकों के साथ धोखे से पकड़ लिया गया और बड़ौदा में क़ैद कर दिया। हालांकि इसी विद्रोह ने वाघेर समुदाय को लगभग एक स्वतंत्र साम्राज्य के रूप में स्थापित कर दिया था। सन 1862 में मुलु क़ैद से फ़रार होकर जामनगर की ओर भाग निकला, और सन 1868 तक अपना संघर्ष तब तक जारी रखा, जब तक कि उसे पकड़कर मार नहीं दिया गया। जोधा ने अपने कुछ समर्थकों के साथ सन 1860 में गिर के सासन में शरण ली थी, जहां बुख़ार के कारण उनकी मृत्यु हो गई।

सौराष्ट्र में जोधा की विरासत आज भी ज़िदा है। द्वारका में एक सड़क का नाम के नाम पर रखा गया है, और उनकी क़ब्र आज भी सासन में देखी जा सकती है। जोधा मुलु दोनों स्थानीय लोक-कथाओं का हिस्सा बन गए हैं। सन 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद  ओखा जामनगर ज़िले का हिस्सा बन गया, और द्वारका आज एक अलग ज़िला और महत्वपूर्ण तीर्थ केंद्रों में से एक है।

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